अन्यमनोलग्ना कन्या को पाने में मेरा कोई उत्साह नहीं है’ -यह कथन कहकर श्रीकृष्णचन्द्र कुण्डिनपुर से यादव महारथियों के साथ चले गये थे। रुक्मिणी ने भी यह सुना। किसी न किसी प्रकार समाचार तो पहुँच ही गया। प्राण जिनकी जन्म-जन्म से प्रतिक्षा करते थे, जो हृदय के अधीश्वर बनकर पता नहीं, कब से वहाँ आसीन हो चुके, वे कुण्डिनपुर आये, उनका पल-पल का समाचार पाने को समुत्सुक होना स्वाभाविक ही था और जब उत्सुकता सच्ची होती है, मार्ग मिल ही जाता है; किन्तु जब उन नवघनसुन्दर के लौटने का समाचार मिला- ‘हाय वे मुझे अन्यमनोलग्ना कहकर लौट गये’- रुक्मिणी मूर्च्छित हो गयीं। पिता ने यह क्या किया? रुक्मिणी ने कहाँ स्वयम्वर सभा में जाना अस्वीकार किया था। उनको वहाँ जाने में आपत्ति क्या थी। कहाँ उन्हें इधर-उधर देखना था। जयमाला लिये सीधे चले जाना था और अपने उन जन्म-जन्मान्तर के आराध्य के गले में डाल देना था, किन्तु वे तो लौट गये। अन्यमनोलग्ना कहकर लौट गये। अब वे कैसे आवेंगे? रुक्मिणी की व्यथा का पार नहीं।
माता ने पति से कहा- स्वयम्वर सभा भंग करना अच्छा नहीं हुआ। आपकी पुत्री बहुत संकोचशीला है। वह कितना भी पूछो, कुछ कहेगी नहीं किन्तु दिन-दिन घुलती जा रही है। उसका विवाह शीघ्र कर देना अच्छा है। महाराज भीष्मक ने पत्नी को आश्वासन दिया। राजसभा में उन्होंने रुक्मिणी के विवाह का प्रश्न उठाया।
कुलपुरोहित शतानन्द जी ने कहा- ‘रुक्मिणी का पाणिग्रहण श्रीकृष्ण करेंगे। यह संबंध ब्रह्मा ने ही निश्चित कर दिया है। अतः अन्य पात्र का अन्वेषण व्यर्थ है। श्रीकृष्ण के पास ब्राह्मण भेजिये।’
महाराज भीष्मक प्रसन्न हुए किन्तु उनका ज्येष्ठ पुत्र रुक्मी क्रोध से लाल होकर उठ खड़ा हुआ- ‘क्या है कृष्ण के पास? कालयवन का धन हड़पकर कृष्ण ने द्वारिका में धनी बने हैं।
मगधराज के भय से दस्युओं की भाँति समुद्री द्वीप में जा छिपे हैं। मैं महर्षि दुर्वासा का शिष्य हूँ। मेरे समबल या तो परशुराम जी हैं या शिशुपाल हैं।
उस नन्द पुत्र को- गोप को मैं बहिन दूँगा? मेरी बहिन का विवाह शिशुपाल से होगा। वह राजधिराज जरासन्ध का मान्य पुत्र है।’
इसी समय मगध से जरासन्ध का भेजा ब्राह्मण पहुँचा। उसने संदेश भेजा था- ‘मैं अपने अत्यंत प्रिय पुत्र, महा सेनापति चन्द्रिकापुर नरेश शिशुपाल के लिए आपकी कन्या रुक्मिणी की याचना करता हूँ। मुझे आशा है कि विदर्भाधिप इस संबंध को स्वीकार करके मुझे उपकृत करेंगे।’
‘मुझे यह संबंध स्वीकार है।’ रुक्मी ने तत्काल घोषणा कर दी। महाराज भीष्मक मना नहीं कर सके। मना करने का अर्थ था मगध नरेश से शत्रुता लेना और अपना ज्येष्ठ पुत्र ही अड़ा था। महाराज जानते थे कि रुक्मी हठ छोड़ने वाला नहीं है। रुक्मी बहुत हठी, बहुत अधिक घमण्डी हो गया था, क्योंकि महर्षि दुर्वासा ने अनुग्रह करके उसे अग्नि से प्रकट दिव्य रथ दे दिया था। किम्पुरुषराजद्रुम से उसे दिव्यास्त्र मिले थे। परशुराम जी ने उसे ब्रह्मास्त्र दे दिया था। फलतः वह दुर्जय हो गया था। कौशिक गोत्रीय, दक्षिणावर्त विजेता, दक्षिणात्येश्वर महाराज हिरण्यरोमा, जिनका लोकप्रसिद्ध नाम भीष्मक था, आज अपने पुत्र से ही विवश हो गये।
उन्होंने मगधराज को स्वीकृति दे दी और शिशुपाल के पिता महाराज सुनीथ को जिन्हें ‘दमघोष’ भी कहा जाता है, ब्राह्मण भेजकर बारात लाने का आमंत्रण किया। चेदिराज उपरिचर वसु के पुत्र वृहद्रथ ने ही मगध में गिरिव्रज नगर बसाया था। वृहद्रथ का पुत्र जरासन्ध दमघोष (सुनीथ) का चचेरा भाई ही था। दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल उसे सौंप दिया था। यद्यपि पीछे जरासन्ध के पुत्र हुआ सहदेव, किन्तु शिशुपाल पर उसका वात्सल्य पूरा बना रहा। वह शिशुपाल को अपना बड़ा पुत्र मानता था।शिशुपाल के विवाह का सबसे अधिक उत्साह मगधराज जरासन्ध को ही था। श्रीकृष्ण स्वयम्बर में आये थे। स्वयंवर सभा भले भंग हो गयी, रुक्मिणी का हरण करने वे आवेंगे- आ सकते हैं, यह संभावना पूरी थी।
जरासन्ध इस ओर से उदासीन नहीं था। गोमन्तक पर्वत के चक्र-मौसल युद्ध में पराजित होकर जरासन्ध एक बार साहस खो बैठा था। स्वयम्वर के समय इसी से श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने में हिचक हुई थी लेकिन अन्तिम बार बलराम-श्रीकृष्ण दोनों भाई उसके सम्मुख युद्ध किये बिना ही भाग खड़े हुए। जरासन्ध को लगा कि वासुदेव के दोनों पुत्र भीरु हैं। वह व्यर्थ इनसे डर रहा था।
यह स्पष्ट था सब इसे समझते थे कि जरासन्ध के भय से ही यादव मथुरा त्यागकर द्वारिका में जा बसे हैं। इससे जरासन्ध ही नहीं, उसके सभी साथी, समर्थकों का साहस बढ़ गया था। विदर्भ के लिए जब जरासन्ध ने ब्राह्मण भेजा, शिशुपाल के लिए कन्या-माँगने का सन्देश देखकर तो उसे विश्वास था कि उसकी प्रार्थना अस्वीकृत नहीं होगी। उसने उसी समय अपने सहायक नरेशों के पास सम्पूर्ण सेना लेकर आने का सन्देश भेजते हुए कहला दिया- ‘विदर्भाधिप की कन्या रुक्मिणी का शिशुपाल से विवाह होने वाला है। यदि यादव कन्या-हरण का प्रयत्न करें तो हम पूरी शक्ति से प्रतिकार करेंगे।’ जो-जो भी नरेश श्रीकृष्ण से रुष्ट थे, सबको मगध राज ने आमन्त्रित किया गया।
(क्रमश:)
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩
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