गतांक से आगे –
गंगागोविन्द सिंह ये दादा जी हैं बालक कृष्णचन्द्र सिंह के ….बहुत लाढ प्यार में पला है ये बालक ….पचासों नौकर चाकर हैं घर में ….सब बड़े प्यार से “लाला बाबू” कहते हैं इसे …..इस तरह बड़े हो रहे थे ये ।
शिक्षा के लिए दादा ने घर में ही अध्यापकों की लाइन लगा दी ….अंग्रेज गवर्नर के खास जो थे लाला बाबू के दादा जी ….इसलिये शिक्षा के लिए कोई दिक्कत नही हुई बालक को ….विशेष अंग्रेजी और फ़ारसी की शिक्षा दी गयी थी….हिन्दी और संस्कृत तो बालक ने स्वयं से ही सीखी …बंगाली इनकी मातृभाषा थी ही , ये मेधावी था ही …..दादा ने कोई कसर नही छोड़ी थी बालक को पढ़ाने में , इस तरह से बालक शीघ्र ही विद्वान हो गया था ।
पर बालक अतिसंवेदनशील था ….ये आवश्यक गुण हैं अध्यात्म के लिये ….पर विशुद्ध भौतिक जगत के लिए ये अवगुण भी हो सकते हैं ….क्यों की स्वार्थ में टिका है ये भौतिक जगत ।
लाला बाबू बड़ा हो रहा था …पर अतिसम्मवेदनशीलता के चलते ग़रीबों को धन आदि लुटाना इसने प्रारम्भ किया ।
गंगा किनारे ग़रीबों को देखता लाला बाबू तो इसका हृदय पिघल उठता और इसके पास जो भी होता वो दे देता । ये अभी पन्द्रह वर्ष का ही तो था ….सर्दियों में ये अपनी बग्गी में निकलता ….इसके साथ दो चार नौकर होते …..ग़रीबों को ठिठुरते देखता तो अपना क़ीमती दुशाला ही उतार कर दे देता …..कभी कोई बग्गी के सामने आकर हाथ जोड़ता और कहता ….बाबू ! दो दिन से घर में चूल्हा नही जला है ….कुछ करो । तो लाला बाबू काग़ज़ में लिखकर दे देता ….कि “दादा ! इसे सौ रुपये दे देना “। पर्ची दिखाकर वो गरीब गंगा गोविन्द सिंह से सौ रुपए ले लेता । विलासिता प्रिय नही था लाला बाबू ….नही ..ये ग़रीबों के दुःख देख नही सकता था ….उसमें ही ये धन उड़ाता ….अपने लिए इसने कभी धन खर्च नही किया …..गरीब इसको बहुत आशीष देते …इसको ये सब अच्छा लगता था ।
एक दिन इसके दादा जी ने लाला बाबू को कहा ….लाला ! तेरा कल जन्म दिन है …तू कल सोलह वर्ष का हो जाएगा …दादा बहुत खुश हैं – बाबू ! जा बजार से अपने लिए अच्छे कपड़े ख़रीद ला ….और दादा ने अपने मुनिम के साथ में अपने प्रिय पोते लाला को भेज दिया था ।
लाला बाबू जब बग्गी में चला तो आगे ही जाकर एक गरीब परिवार बग्गी के सामने आकर गिड़गिड़ाने लगा ….लाला बाबू से कहने लगा – आपके दादा मेरी झोपड़ी को हटा रहे हैं …हम कहाँ जायें बाबू ! कुछ करो …हमारी मदद करो ….वो गरीब रो रहा था उसके बच्चे रो रहे थे …..लाला ने देखा मुनिम की ओर ….मुनिम ने समझाना चाहा ….बाबू ! गरीब कहने मात्र से नही होता और हर अमीर गलत भी नही होता ….बाबू ! ये लोग ही हमारी ज़मीन क़ब्ज़ा करना चाहते हैं ….इसलिये इन लोगों की बातों पर ध्यान मत दो और चलो । बग्गी को आगे बढ़ाने के लिए कहा मुनिम ने ….लाला बाबू देख रहा है ….गरीब आदमी बग्गी के आगे सिर के बल गिर गया ….उसके सिर से रक्त बहने लगा …वो हाथ जोड कर कह रहा था…हम कहाँ जायें बाबू ! वो भले तुम्हारी ज़मीन है …पर हम सालों से रह रहे हैं ….कहाँ जायेंगे , दया करो …पर मुनिम के संकेत पर बग्गी वाले ने जैसे ही घोड़े को हाँका ….गरीब आदमी के पैर पर बग्गी चढ़ गयी ….लाला बाबू को ये देखकर बड़ा क्रोध आया ….और वो चिल्लाकर बोला ….ज़मीन किसकी है ? मुनिम ने कहा …आपकी ही है ….तो लाओ …मैं उस ज़मीन को इन ग़रीबों के नाम करता हूँ ….ये कहते हुये ….काग़ज़ लेकर लाला बाबू ने वो ज़मीन गरीब के नाम कर दी । मुनिम ने ऐसे मुँह बनाया जैसे वो कह रहा हो मुझे क्या सारी जायदाद दे दो इन भिखमंगो को ……पर वो गरीब परिवार बहुत बहुत खुश होकर गया था ।
ये सब क्या है बाबू !
दादा को मुनिम ने सारी घटना बता दी थीं …इसलिये वो थोड़े कड़े शब्दों में पूछ रहे थे ।
दादा ! वो बेचारे गरीब हैं ….कहाँ जायेंगे वो लोग ! इसलिये मैंने वो सम्पत्ति उनको दे दी ।
लाला बाबू ने सहज कहा ।
बाबू ! अगर इस तरह लुटाना हो ना तो स्वयं कमाओ ….समझे ! दादा इससे ज़्यादा बोले नही …ये भी आज इनको ज़्यादा क्रोध आया था इसलिए बोल दिया था ।
पन्द्रह वर्ष के युवा कृष्ण चन्द्र सिंह ( लाला बाबू ) ये सोलह वर्ष में लगने ही तो वाले थे कल , कल इनका जन्म दिन था ….पर दादा की बात इनको लग गयी …जैसे भक्त ध्रुव को लगी थी अपनी सौतेली माँ की बात और वो निकल गए थे घर से ….ऐसे ही लाला बाबू भी घर से निकल गए ….एक जोड़ी कपड़े में ही …जिद्दी थे ….बात लग गयी थी दादा की ….कि “अगर लुटाना हो तो स्वयं कमाओ” …ये बिना किसी को बताये रात में ही “वर्धमान” चले गये ।
सुबह जब इनके दादा उठे और उन्होंने देखा कि लाला नही है …तो उन्होंने अपने लोगों को चारों ओर दौड़ा दिया , लाला बाबू को खोजने ….पर लाला ने भी जब देखा कि दादा ने मुझे खोजने के लिए लोग लगा दिये हैं और ये लोग मुझे यहाँ काम नही करने देंगे तो लाला बाबू रेल में बैठकर उड़ीसा चले गये ।
शेष कल –