समाज में धर्म होगा तो सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी। और यदि आधार के रूप में धर्म विद्यमान नहीं होगा तो उसका परिणाम होगा कि सामाजिक व्यवस्था समाप्त हो जायेगी।अयोध्या से प्रभु श्रीराम के वनगमन बाद भरतजी के सिंहासनारुढ होने भरत-समुद्र मन्थन की प्रक्रिया में प्रारम्भ में गुरु वशिष्ठ तथा श्रीभरत की मान्यताओं में मतभेद है। दोनों के अलग-अलग मत हैं। गुरु वशिष्ठ की मान्यता यह भी थी कि इस समय भरत का कर्तव्य है कि वे भावना के प्रवाह में न बहें तथा अयोध्या के राज्य को स्वीकार करें। और अगर उनके अन्तःकरण में राज्य चलाने की इच्छा न हो तो कोई बात नहीं है। प्रारम्भ में अयोध्या के राज्य का संचालन करने के बाद जिस समय राम वन से लौटकर आवें तब श्रीभरत उनको राज्य सौंपकर अपनी भावना को संतुष्ट करें। इस तरह से कर्तव्य तथा भावना दोनों का सामंजस्य हो जायगा। इस सन्दर्भ में गुरु वशिष्ठ तथा श्रीभरत की जो धारणा है, उसमें मूलतः जो अन्तर है उसकी ओर आपका ध्यान आकृष्ट करूँगा। गुरु वशिष्ठ का भाषण जब समाप्त होता है तब कौसल्या अम्बा कहती हैं कि भरत ! मन के रोगों को दूर करने वाला वैद्य जो है, वह तो सद्गुरु है। और गुरु वशिष्ठ से बढ़कर कोई सदगुरु नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में गुरु वशिष्ठ के द्वारा कोई आदेश दिया जा रहा है तो वह तुम्हें स्वीकार कर लेना चाहिये भले ही वह प्रिय प्रतीत न हो। जिस समय कौसल्या अम्बा ने यह कहा कि - “पूत पथ्य गुरु आयसु अहई।'' कौसल्या अम्बा के वाक्य को सुनकर जब श्रीभरत उत्तर देने के लिये प्रस्तुत होते हैं तो श्रीभरत के अनगिनत सद्गुण एक के बाद एक प्रकट होते जा रहे हैं। जिस समय श्रीभरत बोलने के लिये खड़े हुए उस समय का वर्णन करते हुए तुलसीदासजी कहते हैं --
भरत कमल कर जोर धरम धुरंधर २/१७६
यहाँ पर श्रीभरत के लिये एक उपाधि दी गयी कि वे तो धर्म धुरन्धर हैं, धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं। और यह जो धर्म शब्द की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है उससे तो आप लोग परिचित होंगे ही। यद्यपि धर्म की व्याख्या कई रूपों में की गयी है पर धर्म की मुख्य परिभाषा करते हुए कहा गया कि — “धारणाद् धर्म इत्याहुः” — जो समाज को धारण करता है वही धर्म है। जिसके बल पर समाज टिका हुआ है वह धर्म है। इसका अभिप्राय है कि समाज में यदि धर्म होगा तो सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी। और यदि आधार के रूप में धर्म विद्यमान नहीं होगा तो उसका परिणाम होगा कि सामाजिक व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। इसीलिये कहा गया कि धर्म समाज को धारण करने वाला है।लेकिन श्रीभरत के विषय में जो वाक्य कहा गया वह बड़ा अनोखा है और गोस्वामीजी से जब पूछा गया कि क्या यह कहा जा सकता है कि श्रीभरत धर्मात्मा हैं ? तो उन्होंने कहा कि श्रीभरत के लिये धर्मात्मा शब्द ठीक नहीं है।
धर्म शब्द जितना आकर्षक और महत्त्वपूर्ण है, समाज में इसका उपयोग भी उतना ही अधिक होता है। धर्म के साथ सबसे बड़ी बिडम्बना जो रही है, वह यह है कि बुरे से बुरा कार्य करने वाला जो व्यक्ति है वह भी यह मानकर बुरा कार्य करता है कि मैं धर्म का पालन कर रहा हूँ। इसलिये रामचरितमानस में धर्म की दुहाई देने वाले पात्रों में केवल श्रीराम, श्रीभरत, श्रीलक्ष्मण या हनुमानजी ही नहीं बल्कि धर्म की दुहाई देने वालों में तो रावण भी और बालि भी हैं। रावण भी वार्तालाप में अंगद से कहता है कि मैं अगर चाहूँ तो तुम्हें मृत्युदण्ड दे सकता हूँ लेकिन इसकी क्षमता होते हुए भी मैं तुम्हें मृत्युदण्ड नहीं दे रहा हूँ, इसका कारण तुम जानते हो ? अंगद ने पूछा — क्या कारण है ? तो रावण ने तुरंत कहा कि —
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ।
क्योंकि
नीति धरम में जानत अहऊँ।। ६/२१/४
मैं धर्म का महान् पण्डित हूँ, नीति को जानता हूँ। मैं धर्म तथा नीति के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता और दूत को मारना धर्म के विरुद्ध है। इसीलिये मैं तुम्हें मृत्यु दण्ड नहीं दे रहा हूँ। इसका अभिप्राय है कि रावण को भी यह प्रतीति नहीं होती कि वह अधार्मिक है। और धर्म की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय यही है कि अधर्मी व्यक्ति भी यह कहकर संतुष्ट होता है कि मैं धार्मिक हूँ। इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि नकली सिक्का चलाने वाला भी यह जानता है कि नकली सिक्का नकली सिक्के के नाम पर नहीं चलेगा अपितु जब चलेगा तब असली सिक्के के नाम पर ही चलेगा। अगर कोई नकली सिक्का किसी को देकर यह कहे कि यह नकली सिक्का लीजिये तब तो सामने वाला व्यक्ति उसे लेगा ही नहीं। उस समय तो व्यक्ति चेष्टा यही करता है कि हम अपने नकली सिक्के में भी असली की ही प्रतीति करा दें। यद्यपि व्यक्ति व्यवहार में बहुत अधिक असत्य बोलता है लेकिन कितना भी बड़ा असत्यवादी क्यों न हो परन्तु वह जब बोलेगा तब यही कहेगा कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह बिलकुल सत्य है। इसी प्रकार रावण के अन्तर्मन में भी यहीं बात आती है कि मैं तो धार्मिक हूँ। परन्तु दूसरी ओर अंगद तो व्यंग्य कला में अत्यन्त निपुण थे। अंगद ने तुरन्त रावण पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वाह-वाह आपसे बढ़कर धर्मात्मा विश्व के इतिहास में तो कोई हुआ ही नहीं। और इसका सबसे बड़ा दृष्टान्त तो यही है कि —
कह कपि धर्मसीलता तोरी।
हमहूँ सुनी कृत परत्रिय चोरी।।
अरे भई! दूसरे की स्त्री को चुराना भी धर्म ही होगा ? इसीलिये तो तुमने भगवान् राम की प्रिया श्री सीताजी को चुराया है। वस्तुतः रावण जो बात कह रहा था वह तो केवल स्वार्थपरता से कह रहा था। अंगद को उसने जो दण्ड देने के लिये नहीं कहा, उसका कारण यह है कि हनुमानजी को दंड देने के लिये कहकर वह बड़ा कष्ट भोग चुका था। इसलिये उसके मन में यह आतंक था कि कहीं इसको भी दण्ड देने की चेष्टा की जाय और इसके द्वारा भी कोई नयी समस्या उत्पन्न न हो जाय, इसलिये क्यों न यही लाभ लिया जाय कि मैं नीति तथा धर्म के कारण ऐसा कह रहा हूँ। किन्तु इसका सीधा अभिप्राय है की रावण भी अपने दुर्गुणों को छिपाने के लिये धर्म की दुहाई देता है तथा बालि भी धर्म की दुहाई देता है।
रामचरितमानस में भगवान् श्रीराम यह मानते हैं कि धर्म तो समाज को धारण करता है। लेकिन अगर धर्म को भी सच्चे अर्थों में धारण करने वाला कोई है तो वह एक मात्र भरत है —
“भरतहिं धरम धुरंधर जानी।”
अथवा —
भरत कमल कर जोरि धरम धुरंधर धीर धरि।
और यह बात बिल्कुल यथार्थ है. कि जो धर्म समाज को धारण करता है, उस धर्म को भी अगर किसी ने सही अर्थों में समाज में प्रतिष्ठापित किया तो वे श्रीभरत हैं। यद्यपि कैकेयी जी ने तो धर्म का दुरुपयोग किया था और कुछ समय के लिये तो गुरु वशिष्ठ के जीवन में भी धर्म के सन्दर्भ में भ्रान्ति सी हो जाती है, किन्तु श्री भरत के चरित्र में धर्म का जो तत्त्व प्रकट होता है, वही धर्म का प्राण है, धर्म का मूल तत्त्व है।
(चतुर्वेदी जे पी एन)
जय श्री राम।
If there is religion in the society, social order will remain. And if religion does not exist as a basis, then the result will be that the social system will end. After Lord Shri Ram’s exile from Ayodhya and Bharatji’s accession to the throne, in the process of Bharat-Samudra Manthan, there is a difference of opinion in the beliefs of Guru Vashishtha and Shri Bharat. . Both have different opinions. Guru Vashishtha also believed that at this time it was Bharat’s duty not to get carried away by the flow of emotions and accept the kingdom of Ayodhya. And if there is no desire in their conscience to run the state then it does not matter. Initially, after ruling the kingdom of Ayodhya, whenever Ram returned from the forest, Shri Bharat should satisfy his feelings by handing over the kingdom to him. In this way both duty and emotions will be in harmony. In this context, I will draw your attention to the fundamental difference between the beliefs of Guru Vashishtha and Shri Bharat. When Guru Vashishtha’s speech ends, Kausalya Amba says, Bharat! The doctor who cures the diseases of the mind is a Sadguru. And no one can be a better Guru than Guru Vashishtha. In such a situation, if any order is being given by Guru Vashishtha, then you should accept it even if it does not seem dear to you. At the time when Kausalya Amba said – “Poot Pathya Guru Aaysu Ahai.” After listening to Kausalya Amba’s sentence, when Shri Bharata presented himself to answer, then the countless virtues of Shri Bharata were becoming visible one after the other. Describing the time when Shri Bharat stood up to speak, Tulsidasji says –
भरत कमल कर जोर धरम धुरंधर २/१७६ यहाँ पर श्रीभरत के लिये एक उपाधि दी गयी कि वे तो धर्म धुरन्धर हैं, धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं। और यह जो धर्म शब्द की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है उससे तो आप लोग परिचित होंगे ही। यद्यपि धर्म की व्याख्या कई रूपों में की गयी है पर धर्म की मुख्य परिभाषा करते हुए कहा गया कि — “धारणाद् धर्म इत्याहुः” — जो समाज को धारण करता है वही धर्म है। जिसके बल पर समाज टिका हुआ है वह धर्म है। इसका अभिप्राय है कि समाज में यदि धर्म होगा तो सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी। और यदि आधार के रूप में धर्म विद्यमान नहीं होगा तो उसका परिणाम होगा कि सामाजिक व्यवस्था समाप्त हो जायेगी। इसीलिये कहा गया कि धर्म समाज को धारण करने वाला है।लेकिन श्रीभरत के विषय में जो वाक्य कहा गया वह बड़ा अनोखा है और गोस्वामीजी से जब पूछा गया कि क्या यह कहा जा सकता है कि श्रीभरत धर्मात्मा हैं ? तो उन्होंने कहा कि श्रीभरत के लिये धर्मात्मा शब्द ठीक नहीं है। धर्म शब्द जितना आकर्षक और महत्त्वपूर्ण है, समाज में इसका उपयोग भी उतना ही अधिक होता है। धर्म के साथ सबसे बड़ी बिडम्बना जो रही है, वह यह है कि बुरे से बुरा कार्य करने वाला जो व्यक्ति है वह भी यह मानकर बुरा कार्य करता है कि मैं धर्म का पालन कर रहा हूँ। इसलिये रामचरितमानस में धर्म की दुहाई देने वाले पात्रों में केवल श्रीराम, श्रीभरत, श्रीलक्ष्मण या हनुमानजी ही नहीं बल्कि धर्म की दुहाई देने वालों में तो रावण भी और बालि भी हैं। रावण भी वार्तालाप में अंगद से कहता है कि मैं अगर चाहूँ तो तुम्हें मृत्युदण्ड दे सकता हूँ लेकिन इसकी क्षमता होते हुए भी मैं तुम्हें मृत्युदण्ड नहीं दे रहा हूँ, इसका कारण तुम जानते हो ? अंगद ने पूछा — क्या कारण है ? तो रावण ने तुरंत कहा कि — खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। क्योंकि नीति धरम में जानत अहऊँ।। ६/२१/४ मैं धर्म का महान् पण्डित हूँ, नीति को जानता हूँ। मैं धर्म तथा नीति के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता और दूत को मारना धर्म के विरुद्ध है। इसीलिये मैं तुम्हें मृत्यु दण्ड नहीं दे रहा हूँ। इसका अभिप्राय है कि रावण को भी यह प्रतीति नहीं होती कि वह अधार्मिक है। और धर्म की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय यही है कि अधर्मी व्यक्ति भी यह कहकर संतुष्ट होता है कि मैं धार्मिक हूँ। इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि नकली सिक्का चलाने वाला भी यह जानता है कि नकली सिक्का नकली सिक्के के नाम पर नहीं चलेगा अपितु जब चलेगा तब असली सिक्के के नाम पर ही चलेगा। अगर कोई नकली सिक्का किसी को देकर यह कहे कि यह नकली सिक्का लीजिये तब तो सामने वाला व्यक्ति उसे लेगा ही नहीं। उस समय तो व्यक्ति चेष्टा यही करता है कि हम अपने नकली सिक्के में भी असली की ही प्रतीति करा दें। यद्यपि व्यक्ति व्यवहार में बहुत अधिक असत्य बोलता है लेकिन कितना भी बड़ा असत्यवादी क्यों न हो परन्तु वह जब बोलेगा तब यही कहेगा कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह बिलकुल सत्य है। इसी प्रकार रावण के अन्तर्मन में भी यहीं बात आती है कि मैं तो धार्मिक हूँ। परन्तु दूसरी ओर अंगद तो व्यंग्य कला में अत्यन्त निपुण थे। अंगद ने तुरन्त रावण पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वाह-वाह आपसे बढ़कर धर्मात्मा विश्व के इतिहास में तो कोई हुआ ही नहीं। और इसका सबसे बड़ा दृष्टान्त तो यही है कि — कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहूँ सुनी कृत परत्रिय चोरी।। अरे भई! दूसरे की स्त्री को चुराना भी धर्म ही होगा ? इसीलिये तो तुमने भगवान् राम की प्रिया श्री सीताजी को चुराया है। वस्तुतः रावण जो बात कह रहा था वह तो केवल स्वार्थपरता से कह रहा था। अंगद को उसने जो दण्ड देने के लिये नहीं कहा, उसका कारण यह है कि हनुमानजी को दंड देने के लिये कहकर वह बड़ा कष्ट भोग चुका था। इसलिये उसके मन में यह आतंक था कि कहीं इसको भी दण्ड देने की चेष्टा की जाय और इसके द्वारा भी कोई नयी समस्या उत्पन्न न हो जाय, इसलिये क्यों न यही लाभ लिया जाय कि मैं नीति तथा धर्म के कारण ऐसा कह रहा हूँ। किन्तु इसका सीधा अभिप्राय है की रावण भी अपने दुर्गुणों को छिपाने के लिये धर्म की दुहाई देता है तथा बालि भी धर्म की दुहाई देता है। रामचरितमानस में भगवान् श्रीराम यह मानते हैं कि धर्म तो समाज को धारण करता है। लेकिन अगर धर्म को भी सच्चे अर्थों में धारण करने वाला कोई है तो वह एक मात्र भरत है — “भरतहिं धरम धुरंधर जानी।” अथवा — भरत कमल कर जोरि धरम धुरंधर धीर धरि। और यह बात बिल्कुल यथार्थ है. कि जो धर्म समाज को धारण करता है, उस धर्म को भी अगर किसी ने सही अर्थों में समाज में प्रतिष्ठापित किया तो वे श्रीभरत हैं। यद्यपि कैकेयी जी ने तो धर्म का दुरुपयोग किया था और कुछ समय के लिये तो गुरु वशिष्ठ के जीवन में भी धर्म के सन्दर्भ में भ्रान्ति सी हो जाती है, किन्तु श्री भरत के चरित्र में धर्म का जो तत्त्व प्रकट होता है, वही धर्म का प्राण है, धर्म का मूल तत्त्व है। (चतुर्वेदी जे पी एन)
Jai Shri Ram.