भोगे बैगर त्याग कैसे

जिसने भोगा ही नहीं है, वह त्याग कैसे करेगा? और जिसके पास है ही नहीं, वह छोड़ेगा कैसे?

एक साधु हुआ बालसेन। एक दिन एक धनपति उससे मिलने आया। वह उस गांव का सबसे बड़ा धनपति था, यहूदी था। और बालसेन से उसने कहा कि कुछ शिक्षा मुझे भी दो। मैं क्या करूं?

बालसेन ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा, वह आदमी तो धनी था लेकिन कपड़े चीथड़े पहने हुए था। उसका शरीर रूखा-सूखा मालूम पड़ता था। लगता था, भयंकर कंजूस है। तो बालसेन ने पूछा कि पहले तुम अपनी जीवन-चर्या के संबंध में कुछ कहो। तुम किस भांति रहते हो? तो उसने कहा कि मैं इस भांति रहता हूं जैसे एक गरीब आदमी को रहना चाहिये। रूखी-सूखी रोटी खाता हूं। बस नमक, चटनी और रोटी से काम चलाता हूं। एक कपड़ा जब तक जार-जार न हो जाए तब तक पहनता हूं। खुली जमीन पर सोता हूं, एक गरीब साधु का जीवन व्यतीत करता हूं।

बालसेन एकदम नाराज हो गया और कहा, नासमझ! जब भगवान ने तुझे इतना धन दिया तो तू गरीब की तरह जीवन क्यों बिता रहा है? भगवान ने तुझे धन दिया ही इसलिए है कि तू सुख से रह, ठीक भोजन कर। खा कसम कि आज से ठीक भोजन करेगा, अच्छे कपड़े पहनेगा, सुखद शैया पर सोयेगा, महल में रहेगा।

धनपति भी थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि मैंने तो सुना है कि यही साधुता का व्यवहार है। पर बालसेन ने कहा कि मैं तुझसे कहता हूं कि यह कंजूसी है, साधुता नहीं है। काफी समझा-बुझाकर कसम दिलवा दी। वह आदमी जरा झिझकता तो था, क्योंकि जिंदगी भर का कंजूस था। जिसको वह साधुता कह रहा था वह साधुता थी नहीं, सिर्फ कृपणता थी। लेकिन लोग कृपणता को भी साधुता के आवरण में छिपा लेते हैं। कृपण भी अपने को कहता है कि मैं साधु हूं इसलिए ऐसा जीता हूं। पर बालसेन ने उसे समझा-बुझाकर कसम दिलवा दी।

जब वह चला गया तो बालसेन के शिष्यों ने पूछा कि यह तो हद्द हो गई। उस आदमी की जिंदगी खराब कर दी। वह साधु की तरह जी रहा था। और हमने तो सदा यही सुना है कि सादगी से जीना ही परमात्मा को पाने का मार्ग है। यही तुम हमसे कहते रहे। और इस आदमी के साथ तुम बिलकुल उल्टे हो गये। क्या इसको नरक भेजना है?*

बालसेन ने कहा, ‘यह आदमी अगर रूखी रोटी खायेगा तो यह कभी समझ ही न पायेगा कि गरीब का दुख क्या है! यह आदमी रूखी रोटी खायेगा तो समझेगा कि गरीब तो पत्थर खाये तो भी चल जाएगा। इसे थोड़ा सुखी होने दो ताकि यह दुख को समझ सके; ताकि जितने लोग इसके कारण गरीब हो गये हैं इस गांव में, उनकी पीड़ा भी इसको खयाल में आये। लेकिन यह सुखी होगा तो ही उनका दुख दिखाई पड़ सकता है। अगर यह खुद ही महादुख में जी रहा है, इसको किसी का दुख नहीं दिखाई पड़ेगा। कोई गरीब इसके द्वार पर भीख मांगने नहीं जा सकता, क्योंकि यह खुद ही भिखारी की तरह जी रहा है। यह किसी की पीड़ा अनुभव नहीं कर सकता।

विपरीत का अनुभव चाहिये। अगर सुख ही सुख हो संसार में तो तुम्हें सुख का पता ही न चलेगा। और तुम सुख से इस बुरी तरह ऊब जाओगे जितने कि तुम दुख से भी नहीं ऊबे हो। और तुम उस सुख का त्याग कर देना चाहोगे।

देखो पीछे लौटकर इतिहास में। महावीर और बुद्ध जैसे त्यागी गरीब घरों में पैदा नहीं होते; हो नहीं सकते। क्योंकि सुख से ऊब पैदा होनी चाहिये, तब त्याग होता है। बुद्ध के जीवन में इतना सुख है कि उस सुख का स्वाद मर गया। जिसने रोज सुस्वादु भोजन किये हों, तो स्वाद मर जाए। कभी-कभी उपवास जरूरी है भूख का रस लेने के लिये। अगर भूख का मौका ही न मिले और रोज उत्सव चलता रहे घर में, और मिष्ठान्न बनते रहें तो जल्दी ही स्वाद मर जाएगा। भूख ही मर जाएगी।

इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गरीबों के धार्मिक उत्सव सदा भोजन के उत्सव होते हैं। और अमीरों के धार्मिक उत्सव सदा उपवास के होते हैं। अगर जैनों का धार्मिक पर्व उपवास का है, तो उसका अर्थ है। लेकिन एक मुसलमान, एक गरीब हिंदू–जब उसका धार्मिक दिन आता है तो ताजे और नये कपड़े पहनता है। अच्छे से अच्छा भोजन बनाता है। हलवा और पूड़ी उस दिन बनाता है। वह धार्मिक दिन है। जिसके तीन सौ चौंसठ दिन भूख से गुजरते हों, उसका धार्मिक दिन उपवास का नहीं हो सकता। होना भी नहीं चाहिये; वह अन्याय हो जाएगा। लेकिन जो तीन सौ चौंसठ दिन उत्सव मनाता हो भोजन का, उसका धार्मिक दिन उपवास का ही होना चाहिये।

हम अपने स्वाद को विपरीत से पाते हैं। इसलिए जब जैनों का पर्युषण होता है, तभी पहली दफा उन्हें भूख का अनुभव होता है। और पर्युषण के बाद पहली दफा दो चार दिन खाने में मजा आता है, और खाने के संबंध में सोचने में मजा आता है। और पर्युषण के दिनों में ही सपने देखते हैं वे खाने के, बाकी दिन नहीं देखते क्योंकि सपनों की कोई जरूरत नहीं है। बाकी दिन वे सलाह लेते हैं चिकित्सक से कि भूख मर गई है।

जिन मुल्कों में भी धन बढ़ जाता है, वहीं उपवास को मानने वाले संप्रदाय पैदा हो जाते हैं। यह जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में आज उपवास का बड़ा प्रभाव है। गरीब मुल्कों में उपवास का प्रभाव हो भी नहीं सकता। लोग वैसे ही उपवासे हैं। लेकिन अमेरिका में लोग महीनों के उपवास के लिए जाते हैं। नेचरोपेथी के क्लिनिक हैं, चिकित्सालय हैं, जहां कुल काम इतना है कि लोगों को उपवास करवाना।

अगर सुख ही सुख हो और दुख का उपाय न हो तो तुम ऊब जाओगे सुख से। एक बड़े मजे की बात है कि दुख से आदमी कभी नहीं ऊबता, क्योंकि दुख में आशा बनी रहती है। आज दुख है, कल सुख होगा। सपना जिंदा रहता है। मन कामना करता रहता है और कल पर हम आज को टालते रहते हैं। दुखी आदमी कभी नहीं ऊबता। सुखी आदमी ऊबता है; क्योंकि उसकी कोई आशा नहीं बचती। सुख तो आज उसे मिल गया, कल के लिये कुछ बचा नहीं।

तुम्हें पता नहीं है कि महावीर और बुद्ध क्यों संन्यासी हुए? जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे क्यों हैं, हिंदुओं के सब अवतार राजपुत्र क्यों हैं? बात जाहिर है, साफ है। गणित सीधा है। सुख इतना था कि वे ऊब गये। और ज्यादा पाने का कोई उपाय नहीं था। जितना हो सकता था वह था, वह पहले से मिला था।

इसलिए जिस दिन महावीर नग्न होकर रास्ते पर भिखमंगे की तरह चले, उन्हें जो आनंद मिला है, तुम भूल मत करना नग्न चलकर रास्ते पर; तुम्हें वह न मिलेगा। क्योंकि तुम गणित ही चूक रहे हो। उसके पहले राजा होना जरूरी है। वस्त्रों से जब कोई इतना ऊब गया हो कि वे बोझिल मालूम होने लगे तब कोई नग्न खड़ा हो जाए रास्ते पर तो स्वतंत्रता का अनुभव होगा–मुक्ति! उसे लगेगा कि मोक्ष मिला। जो भोजन से इतना पीड़ित हो गया हो, वह जब पहली दफा उपवास करेगा तो शरीर फिर से जीवंत होगा; फिर से भूख जगेगी। और जो महलों में रह-रहकर कारागृह में बंद हो गया हो, जब वह खुले आकाश के नीचे, वृक्ष के नीचे सोयेगा तब उसे पहली दफा पता चलेगा कि जीवन का आनंद क्या है!

महावीर की बात सुनकर कई साधारण-जन भी त्यागी हो जाते हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं क्योंकि जो आनंद महावीर को मिला, वह उन्हें मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। तो वे सोचते हैं शायद अपनी कोई साधना में भूल है। साधना में कोई भूल नहीं, शुरुआत में ही भूल है।

महावीर उतरते हैं राज-सिंहासन से। राज-सिंहासन से ऊब गये हैं इसलिए उतरते हैं; क्योंकि उसके आगे और कोई सीढ़ी नहीं है। वे आखिरी सीढ़ी पर थे; और कोई विकास का उपाय न था। आकांक्षा को जाने की जगह न थी। नीचे उतरते हैं। सिंहासन से नीचे उतरकर जीवन में फिर से उमंग आती है। फिर से रस आता है। फिर से खोज शुरू होती है।

तुम्हारे जीवन में यह नहीं हो सकता। जिसने भोगा ही नहीं है, वह त्याग कैसे करेगा? और जिसके पास है ही नहीं, वह छोड़ेगा कैसे? जो तुम्हारे पास है, वही तुम छोड़ सकते हो। जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे तुम कैसे छोड़ोगे? उस भ्रांति में पड़ना ही मत।
बिन बाती बिन तेल



One who has not experienced anything, how can he renounce it? And the one who doesn’t have it, how will he leave it?

Balsen became a saint. One day a rich man came to meet him. He was the biggest rich man of that village and was a Jew. And he asked Balsen to give me some education also. What shall I do?

Balsen looked at him from bottom to top, the man was rich but was wearing rags. His body appeared dry and rough. He seemed to be extremely miser. So Balsen asked that first you say something about your lifestyle. How do you live? So he said that I live the way a poor man should live. I eat dry bread. I make do with just salt, chutney and bread. I wear a cloth until it becomes tattered. I sleep on the open ground and live the life of a poor monk.

Balsen became very angry and said, Fool! When God gave you so much wealth then why are you living like a poor? God has given you money so that you can live happily and eat right. Swear that from today onwards he will eat right, wear good clothes, sleep on a comfortable bed, and live in a palace.

Dhanpati was also a little surprised. He said that I have heard that this is the behavior of a saint. But Balsen said, I tell you that this is miserliness, not saintliness. After a lot of persuasion, he got me to take the oath. That man was a little hesitant because he was a miser all his life. What he was calling sadism was not sadism, it was just miserliness. But people also hide their miserliness under the guise of saintliness. Even a miser tells himself that he is a saint, that is why he lives like this. But Balsen convinced him and made him take an oath.

When he left, Balsen’s disciples asked whether this had gone too far. Spoiled that man’s life. He was living like a saint. And we have always heard that living simply is the way to attain God. This is what you kept telling us. And with this man you became completely opposite. Does he have to be sent to hell?*

Balsen said, ‘If this man eats dry bread, he will never be able to understand the suffering of the poor! If this man eats dry bread, he will understand that even if a poor person eats a stone, he will be fine. Let it be a little happy so that it can understand sadness; So that the pain of the people who have become poor in this village due to this is also remembered. But their sorrow can be seen only if it is happy. If he himself is living in great sorrow, he will not be able to see anyone’s sorrow. No poor person can go to his door to beg, because he himself is living like a beggar. It cannot feel anyone’s pain.

The opposite experience is needed. If there is only happiness in the world then you will not know happiness. And you will become more bored with happiness than you are even bored with sadness. And you would like to give up that happiness.

Look back in history. Renunciants like Mahavir and Buddha are not born in poor families; Can’t happen. Because happiness should lead to boredom, then renunciation takes place. There was so much happiness in Buddha’s life that the taste of that happiness died. If one eats delicious food every day, his taste will die. Sometimes fasting is necessary to satisfy hunger. If there is no chance of hunger and celebrations continue at home every day and sweets are prepared, then the taste will soon die. Hunger will die.

Therefore it is not surprising that the religious festivals of the poor are always festivals of food. And the religious festivals of the rich always involve fasting. If the religious festival of Jains is of fasting, then it has meaning. But a Muslim, a poor Hindu – when his religious day comes he wears fresh and new clothes. Makes the best food. Makes halwa and puri that day. It is a religious day. One who spends three hundred and sixty-four days in hunger cannot have a religious day of fasting. It shouldn’t even happen; That would be injustice. But the one who celebrates food for three hundred and sixty-four days, his religious day should be of fasting only.

We find our taste from opposites. Therefore, when Jains undergo Paryushana, they experience hunger for the first time. And for the first time after Paryushan, it is fun to eat for two-four days, and it is fun to think about food. And only during the days of Paryushan they dream about food, they do not dream during the rest of the days because there is no need for dreams. The rest of the day they consult the doctor because they have lost their appetite.

In countries where wealth increases, sects following fasting arise. It would be surprising to know that fasting has a big impact in America today. Fasting may not have any effect in poor countries. People are fasting like that. But in America people go for months of fasting. There are Naturopathy clinics and hospitals, where the whole work is to make people fast.

If happiness is only happiness and there is no solution to sorrow, then you will get bored of happiness. It is a very interesting thing that a man never gets bored of sorrow, because there is hope in sorrow. Today there is sadness, tomorrow there will be happiness. The dream remains alive. The mind keeps wishing and we keep postponing today for tomorrow. An unhappy man never gets bored. A happy man gets bored; Because there is no hope left for him. He got happiness today, nothing is left for tomorrow.

Don’t you know why Mahavir and Buddha became monks? Why are the twenty-four Tirthankaras of the Jains the sons of kings, why are all the incarnations of the Hindus the sons of kings? The matter is obvious, clear. The math is simple. The happiness was so much that they got bored. There was no way to get more. He had met as much as he could in advance.

Therefore, the day when Mahavir walked naked on the road like a beggar, he got the happiness, do not forget that he walked naked on the road; You won’t get it. Because you are missing mathematics. Before that there must be a king. When someone is so bored with clothes that they start feeling burdensome, then if someone stands naked on the road, then he will experience freedom – liberation! He will feel that he has attained salvation. When one who has been so tormented by food fasts for the first time, his body will become alive again; Hunger will awaken again. And the one who has been locked in prison after living in palaces, when he sleeps under the open sky, under a tree, then he will know for the first time what is the joy of life!

Many common people also become renunciant after listening to Mahavir. They fall into great difficulty because they do not seem to be getting the happiness that Mahavir got. So they think that maybe there is some mistake in their sadhana. There is no mistake in sadhana, there is mistake in the beginning itself.

Mahavir descends from the throne. They are bored with the throne so they step down; Because there is no other ladder beyond that. They were on the last step; There was no other solution for development. Akanksha had no place to go. Let’s get down. Coming down from the throne brings enthusiasm in life again. The juice comes again. The search begins again.

This cannot happen in your life. One who has not experienced anything, how can he renounce it? And the one who doesn’t have it, how will he leave it? You can leave only what you have. How do you give up what you don’t have? Don’t fall into that misconception. without wick without oil

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