परमात्मा का स्वरूप

आत्मा का परम रूप परमात्मा है। स्वयं की चेतना की चरम अवस्था परमात्मा है। सर्वव्यापी अनाहत-नाद परमात्मा का संगीत है। अनादि एवं अनंत स्रोत-हीन प्रकाश उसकी रोशनी है।

एक संत ने कहा- अपनी आंखें बंद करो और आत्मा को अपने अंदर ही खोजो। वह तुम्हारे भीतर ही कहीं गुम है। कबीरदास कहते हैं कि परमात्मा और आत्मा एक नहीं हैं और परमात्मा और आत्मा अलग-अलग भी नहीं हैं, क्योंकि जैसी आत्मा, वैसा ही परमात्मा और जैसा परमात्मा, वैसी ही आत्मा। इनमें कोई अंतर या भेद नहीं है।

परमात्मा शब्द दो शब्दों ‘परम’ तथा ‘आत्मा’ से मिलकर बना है। परम का अर्थ है सर्वोच्च और आत्मा का अर्थ है चेतना, जिसे प्राण शक्ति भी कहा जाता है। परमात्मा वो शक्ति है जो इस धरती को ही नहीं वरन इस ब्रह्माण्ड को सुचारू रूप से चलाने के लिए उत्तरदायी है तथा ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण परमात्मा से पैदा हुआ है।

‘परमात्मा एक है अनेक नही।’

‘एको अहम् द्वितीयो नास्ति।’

सनातन वेद और गीता, कुरान, बाइबल, गुरुग्रंथसाहिब सब यही कहते है- ‘परमात्मा एक है’ जो अजन्मा (जिसका कभी जन्म न हुआ हो), अविनाशी (जिसका कभी नाश न हो सके) तथा अनन्त है। परमात्मा निराकार है। परमपिता परमात्मा का दिव्य-रूप एक ‘ज्योति बिन्दु’ के समान, दीये की लौ जैसा है।

उपनिषदों में परमात्मा को सच्चिदानन्द कहा गया है। सत् अर्थात् शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप। चित् अर्थात् चेतना। चेतना अर्थात् दिव्य गुणों से सुसज्जित, उच्चस्तरीय आदर्शों-आस्थाओं से युक्त। आनन्द अर्थात् भाव संवेदनाओं, सरसता, मृदुलता से सिक्त। परमात्मा को तर्कों से परे एवं तर्क सम्मत भी माना जा सकता है।

परमात्मा जिनका ध्यान शंकर जी हमेशा करते रहते हैं। जिन्हें क्रिश्चियन ‘god is lite’ कहते हैं। यहूदी जेहोबा कहते हैं। जिनको गुरुनानक ने सतश्रीअकाल निराकार कहा है। जिनकी इस्लाम मे संगे असवद (शिवलिंग की तरह पत्थर) के रुप मे इबादत (जब हज यात्रा पर जाते हैं तो) करते हैं। बौद्ध धर्म में भी ज्योति के आकार के लाल पत्थर का उपयोग ध्यान करने में करते हैं।

परमात्मा ज्ञान का, प्रेम का, आनंद का, शान्ति का, सागर है। ध्यान और मुराक़बे के ज़रिये आप परमात्मा तक पहुंच सकते हैं, वही आपका मूलस्वरूप है। जिस तरह पानी के बिना लहर नहीं हो सकती, उसी तरह संसार में बिना परमात्मा के कुछ नहीं हो सकता। परमात्मा के पास संपूर्ण ज्ञान है, जबकि जीव के पास ज्ञान अधूरा है। यही कारण है कि जब किसी की मृत्यु होती है, तो वह दुखी हो जाता है। ज्ञान होने पर इस दु:ख की अनुभूति नहीं होगी।

अनंत आकाशगंगाए, अनंत ग्रह और उपग्रह, अनंत सजीव तथा निर्जीव वस्तुए आदि का जन्मदाता सिर्फ और सिर्फ वो शक्ति है जिसे परमात्मा के नाम से जाना जाता है। परमात्मा से जुड़ने का सबसे सरल उपाय है। स्वभाव से सरल हो जाओ। जैसे तुम अपने आप को प्रेम करते हो, वैसे ही प्रेम परमात्मा से भी करो। परमात्मा को अपना ही अंश समझो। नैतिकता से युक्त, पवित्र व स्वस्थ जीवन व्यतीत करना ही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ पूजा है।

जीव जन्म और मृत्यु के चक्र में फसे रहते हैं तथा उनकी आयु निश्चित होती है और उस निश्चित आयु को पार कर लेने के पश्चात शरीर समाप्त हो जाता है। आत्मा का परम उद्देश्य परमात्मा में विलीन होना होता है जिससे वो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सके।

परमात्मा का निवास-
परमात्मा कहीं अदंर बाहर नहीं है। बल्कि वह तो आपके पास है। अर्थात आपके शरीर में जो त्रिकुटी यानी ३ कुटी है। जिनमे एक कुटी में साकार रुप में सब देवताओं का वास हैं और दूसरी कुटी में निराकार ज्योत निवास और एक कुटी में परमात्मा का वास है। अर्थात इन स्थानों में विवेक से खोज सकते हैं। कुटी अर्थात रहने का स्थान। काल्पनिक कहानीयों में मत फसंना किसी भी देवी देवता का बाहर कोई लोक परलोक नहीं है। सबकुछ आपके अदंर हैं परमात्मा को छोड़कर। क्योंकि ये पिण्ड, ब्रह्माण्ड की डिक्टोकोपि है। क्योंकि देवता देवी चक्करों में विराजमान है चक्कर साकार है तो देवता देवी भी।

प्रेम का सत्य स्वरुप आपको जानना होगा तभी आप प्रेम कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि आप प्रेम करे और वही प्रेम परमात्मा का स्वरूप हो। क्योंकि जो परमात्मा का स्वरूप है वही आपका भी स्वरूप है। इसको आप नकार नहीं सकते। लेकिन ये जानना जरूरी है तभी वह सत्य प्रेम होगा।

आप सत्य स्वरुप जानते नहीं और प्रेम करते हैं बात नहीं बनेगी। इसलिए कहते हैं परमात्मा को जानने से पहले स्वयं का स्वरूप जानना होगा। तभी आप सत्य प्रेम कर पाएगें वर्ना कभी नहीं।

बहुत लोग अज्ञानता से कह देते हैं; परमात्मा वरमात्मा कुछ नहीं होता। अरे भाई क्या आप अपने को नकार सकते हैं और आप हैं तो आपका कोई स्वरूप भी होगा।

“परमात्मा इतनी व्यवस्था देता है जीवन को कि सब तरफ से जो जरूरी है जिसके लिए, वह उसे मिल जाता है।”

आज किसी भी संत से या कोई भी धर्म गुरु जिस से भी सवाल किया जाता है, वह सिर्फ यही कहता है कि परमात्मा तो एक ही है, लेकिन यह आज तक कोई नहीं बता पाया कि वह परमात्मा है कौन और वह कहां रहता है, कैसे मिलता है, उसकी पूजा की विधि क्या है ?

परमात्मा को आज तक कोई भी प्रमाणित नहीं कर पाया। प्रत्येक धर्मगुरु अपने-अपने मत अनुसार अलग-अलग तरह की जानकारी बताते रहे, कोई कहता ब्रह्मा जी, कोई कहता विष्णु जी, कोई शंकर भगवान को ही परमात्मा बताता है। कोई परमात्मा को निराकार ही कहता है, जिस कारण से सही तथ्य की जानकारी ना होने के कारण नास्तिकता की ओर समाज जाने लगा।

ईश्वर की परिभाषा-
“ईश्वर उस सभी के रचयिता हैं जो हमें दिखता है व सुनाई देता है या न दिखता है, न सुनाई देता है परंतु विद्यमान है। वह हर प्रकार की शक्ति के अकेले स्रोत हैं। वही अकेले कर्ता हैं। वह प्रत्येक क्षण सभी स्थानों पर विद्यमान हैं। वह अकेले हैं परंतु अपने अधिकारी नियुक्त करते हैं जिन्हें वह कुछ कार्य देते हैं तथा अपनी कुछ शक्ति भी। वह अपनी सभी रचनाओं को अपनी इच्छानुसार चलाते हैं। कुछ स्थूल (फ़िज़िकल) करने के लिए वह न जन्म लेते हैं न ही कोई शक्ल या शरीर क्योंकि उन्हें इसकी कोई आवश्यकता नही होती। केवल उनकी इच्छा से ही सभी कार्य सम्पन्न हो जाते हैं।”

आप जो कुछ भी जानते हैं, जान सकते हैं वह आपका मन, बुद्धि जो छह ज्ञानेन्द्रियों के जोड़ से काम करता है- एकमात्र आधार है। ज्ञानेन्द्रियों का कमांडर मन है और मन मे संग्रहित विचारों, अनुभवों के आधार पर बुद्धि, विवेक काम करता है। अब ईश्वर आपकी मन, बुद्धि से परे की चीज है यानी वह आपकी ज्ञानेन्द्रियों का विषय नही है। इसीलिए वेदों ने नेति नेति कह दिया। यानी जो कुछ भी आप ज्ञानेन्द्रियों, मन, बुद्धि से जान सकते या कल्पना कर सकते हैं वह ईश्वर नही है। वेदों मे अद्वैत की अवधारणा है यानी इस सृष्टि में या इससे पार भी जो कुछ है वह सब एक ही है दूसरा कोई है ही नहीं यानी जो कुछ भी है वह ईश्वर ही है। ।। श्री परमात्मने नमः ।।

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