श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त

जय श्री कृष्ण

एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक गरीब विधवा महिला रहती थी। उसका नाम मालती था। वह दलित समाज से थी और लोग उसे तुच्छ समझते थे। लेकिन वह बचपन से श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थी। दिन-रात उनका स्मरण करती, भजन गाती और मन ही मन उन्हें अपना सर्वस्व मानती थी।

गाँव में एक बड़ा मंदिर था, जहाँ उच्च जाति के लोग ही पूजा कर सकते थे। मालती को मंदिर के भीतर जाने की अनुमति नहीं थी, लेकिन वह प्रतिदिन मंदिर के द्वार पर बैठकर प्रेम और श्रद्धा से श्रीकृष्ण को याद करती। उसका हृदय पवित्र था, और उसकी आँखों में सच्ची भक्ति का प्रकाश झलकता था।

एक दिन, गाँव में भयंकर महामारी फैली। कई लोग बीमार पड़ गए, परंतु कोई भी एक-दूसरे की सहायता करने को तैयार नहीं था। मालती को यह देखकर बहुत दुःख हुआ। वह स्वयं भी निर्धन थी, लेकिन उसने अपनी छोटी सी कुटिया को बीमारों के लिए खोल दिया। वह रात-दिन सेवा करती, उन्हें औषधि देती, और उनकी देखभाल करती।

लोगों ने देखा कि जहाँ अमीर और शक्तिशाली लोग भी भय से घरों में छिपे थे, वहीं यह गरीब महिला निःस्वार्थ भाव से सेवा कर रही थी। धीरे-धीरे उसके सेवा कार्यों की चर्चा पूरे गाँव में फैल गई।

एक दिन, गाँव का मुख्य पुजारी भी बीमार पड़ा। किसी ने उसकी सेवा करने का साहस नहीं किया, लेकिन मालती ने बिना किसी भेदभाव के उसकी देखभाल की। कुछ दिनों में पुजारी स्वस्थ हो गया। अब उसे समझ आया कि सच्ची भक्ति जन्म, जाति या समाज की ऊँच-नीच से नहीं, बल्कि हृदय की पवित्रता और प्रेम से होती है।

पुजारी ने मंदिर के द्वार खोल दिए और घोषणा की – “श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है कि चाहे कोई भी स्त्री हो, वैश्य हो, शूद्र हो या कोई भी निम्न वर्ग का व्यक्ति, यदि वह सच्चे हृदय से उनकी शरण में आता है, तो वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करता है।”

इसके बाद मालती को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति मिल गई। लेकिन तब तक उसे बाहरी मंदिर की आवश्यकता ही नहीं रही थी, क्योंकि उसने श्रीकृष्ण को अपने हृदय में ही साक्षात अनुभव कर लिया था।

यह कहानी भगवद्गीता के उन श्लोकों का जीवंत प्रमाण है, जहाँ श्रीकृष्ण ने कहा –

“हे पार्थ, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र और अन्य जो निम्न कुल में जन्मे हैं, यदि वे भी मेरी शरण में आते हैं, तो वे परम गति को प्राप्त करते हैं।” (अध्याय 9, श्लोक 32)

“तो हे अर्जुन, जब पुण्यशील ब्राह्मण और भक्तराजा तक मेरी भक्ति से परम गति प्राप्त कर सकते हैं, तो फिर इस नश्वर और दुःखमय संसार में जन्म लेने वाले अन्य लोग भी मेरी शरण में आकर क्यों नहीं मुक्त हो सकते?” (अध्याय 9, श्लोक 33)

“इसलिए हे अर्जुन, तू मुझमें मन लगा, मुझमें ही अनुरक्त हो, मेरी पूजा कर, मेरी शरण में आ। इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझ तक पहुँचेगा, यह मेरा सत्य वचन है।” (अध्याय 9, श्लोक 34)

मालती की भक्ति यह सिखाती है कि ईश्वर केवल ऊँचे कुल या जाति को नहीं देखते, वे केवल प्रेम और समर्पण को स्वीकार करते हैं। यदि हृदय में सच्चा प्रेम हो, तो हर व्यक्ति उनके प्रिय भक्तों में शामिल हो सकता है।

जय श्री कृष्ण

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