अन्तर यात्रा क्या है


हमारे जीवन का लक्ष्य जीवनकाल में अन्तर यात्रा को करना है। अन्तर यात्रा का अर्थ है अपने भीतर की यात्रा करना। मनुष्य जीवन ही है जिसमें हम आत्म चिन्तन कर सकते हैं। इस जन्म में भी हम कुछ नहीं करते हैं फिर न जाने कब हमे मानव जीवन मिले। मानव जीवन में हमे कल्याण के पथ पर अग्रसर होना होता है कल्याण किसका हम समझते हैं मानव जाति का हम कल्याण कर देंगे। प्रथम हमें अपना कल्याण करना चाहिए। मेरा जन्म क्यों हुआ है। मै पृथ्वी पर किसी विशेष प्रयोजन के लिए आया हूँ। मुझे परमात्मा का चिन्तन मनन करना है । मै सत्य रूप में परमात्मा का चिन्तन करता हूँ। चिन्तन में मेरा और मेरे राष्ट्र का कल्याण है। फुल खिलते हैं खिले हुए फुल खुशबु देते हैं। एक व्यक्ति आत्मचिंतन करता है उससे अनेक व्यक्ति का कल्याण होता है

जन्म हुआ है मृत्यु निश्चित है। हमारे कितने ही जन्म हुए होंगे ।इस जन्म में हमें भीतर की यात्रा करनी है। हम भगवान राम भगवान कृष्ण और अनेक देवी देवता की पूजा करते हैं  मुर्ति में भगवान को खोजते है सोचते हैं अब मुर्ति में से भगवान प्रकट होकर कुछ बात करेंगे। हृदय की ऐसी तङफ होती है निहारते हुए कहते हैं तुझमें जो अन्दर बैठा मुझे तो उसे निहारना है दर्शन करने है तु कब प्रकट होगा। हे प्रभु राम तुम बोलते क्यों नहीं हो। एक एक क्षण परमात्मा की याद में बिताना जीवन का लक्ष्य बन जाता है राम राम राम राम का जप भीतर से चल जाता है। जप कभी रूकता नहीं भक्त देखता है भीतर जप अपने आप चल रहा है। पर हृदय में लगी अभिलाषा कैसे पुरण हो भगवान नाम ध्वनि बजाते हैं हर वस्तु विशेष में प्रभु भगवान का अहसास कराते हैं फिर भी भक्त को चैन नहीं मिलता है जितने अहसास होते हैं उतनी तङफ बढती जाती है। भक्त भगवान से प्रार्थना करता है।
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अंखियाँ प्यासी रे
भक्त अबोध है सोचता है मुर्ति में भगवान फिर भक्त को कण-कण में परमात्मा के होने का अहसासं कराते है। भक्त फिर भी भगवान को बाहर खोज रहा है। परमात्मा के कैसे पुरण दर्शन हो मै प्रभु प्राण नाथ का बन जाऊं ।मुझमे मेंरा पन रहे ही नहीं। परमात्मा का चिन्तन कर रहा है। नाम जप को सांस से करता है। कि अब परमात्मा से मिलन हो। अनजान है नहीं जानता परमात्मा पुरण शरीर धारण कर के जल्दी से प्रकट नहीं होते हैं। अहसास होते हैं पर भक्त का अहसास से हृदय कैसे टिके। तङफ बढती जाती है। एक दिन सोचता बाहर तो प्रभु भगवान कुछ समय अहसास कराते हैं छुप जाते हदय कैसे शान्त हो। एक एक पल कैसे प्रभु प्राण नाथ से साक्षात्कार हो तङफ रहा है भीतर की तङफ जब जग जाती है तब भौतिक संसार सम्बन्ध सब फीके है। मै मै नहीं रहता है। होश नहीं है प्रार्थना करते करते खोजते हुए बाहर नहीं मिलते हैं तब एक दिन भीतर का द्वार खटकाता है ।भक्त के हदय में विचार आता है क्यों न भगवान को हृदय मंदिर में बिठा लु बाहर कभी परमात्मा के आने का अनुभव होता है फिर छिप जाते हैं हृदय मंदिर में एक बार आ गए फिर कंही नहीं जाएगे जी भरकर देखुगी। नैन भी भीतर की ओर हो जाते हैं। भक्त के हृदय की पुकार होती है हे प्रभु प्राण नाथ हृदय मन्दिर में कब आओगे हृदय मंदिर आत्मचिंतन करने पर ही महसुस होता है। रामायण पढते हुए आत्मा ईश्वर है ईश्वर सबकी आत्मा है आत्म रूप में ईश्वर सबके हृदय में बैठे हैं। भक्त इतना आकर्षित हो जाता है जैसे कुछ घटित हो गया खो जाता है एक सांस में सौ सौ बार पढता है दस वर्ष आत्मचिंतन करेंगे ईश्वर है एक दिन अहसास होता है आत्मा ही ईश्वर है ईश्वर ही आत्मा है ईश्वर हृदय में बैठे हैं। मै शरीर नहीं हूं शरीर मेरा नही है ।सब किरया कर्म ईश्वर के द्वारा होते हैं मै कर्ता नहीं हूँ। कर्ता ईश्वर है

हम अबोध बच्चे थे तब भगवान के रूप पर मोहित हो जाते रूप को देखते निहारते भगवान से बात कर लेते बार बार देखने का मन करता यंहा से हमारी अन्तर यात्रा प्रारंभ होती है। भगवान को देखना निहारना मन ही मन बात करना जीवन का लक्ष्य बन जाता है। भक्त के हदय में बचपन में ही भगवान से बात करने की ललक लग जाती है।एक बार ललक लग गई फिर चाहे आप कुछ भी करो परमात्मा की वह महक सांसो में समा जाती है। यही आत्मज्ञान आत्मचिंतन है आत्मा अजर अमर है ।  तब आतआत्म चिन्तन करते हुए हम

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