बाल भक्त श्री ओम प्रकाश जी


इनका जन्म राजस्थान के टोंक जिले में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं पर हुई। इन्हें बचपन से ही कृष्ण भगवान से बड़ा प्रेम था। जब भी एकांत में बैठते थे तो हा कृष्ण..! हा कृष्ण..! कह कर रोते थे और कोई आ जाए तो अपना रुदन झट से छुपा लेते थे। हाई स्कूल की पढ़ाई करने के लिए ये आगरा आए। भक्ति के संस्कार तो पूर्व जन्म के थे ही तो अपने संगी साथियों को भी हर समय भगवद भजन और हरि नाम जप के लिए प्रेरित करते रहते थे। जब कक्षा 9 में पढ़ रहे थे उसी समय इन्हें बड़ा तीव्र वैराग्य हुआ। पूर्व जन्म के संस्कार थे बलवान हो गए। परिणाम …? जैसे तैसे एक साल और काटा। जब दसवीं में थे तब भावावेश के कारण सब छोड़ छाड़ के वृंदावन को चले गए। अब ये घटना करीब 80 वर्ष पहले की है। उस समय की… जब वृंदावन में हर तरफ घना जंगल था। संत सुनाते हैं कि जिस स्थान पर ये रुके थे … आज से करीब 30 वर्ष पूर्व वहां पर पहुंचना बड़ा कठिन था… अब तो सड़क बन गई है सब काफी आसान हो गया है।
तो उस घने जंगल में यमुना जी के तट पर बैठकर ये भजन करने लगे। उसी भावावेश में इन्हें भगवद दर्शन हुआ और भगवान ने आज्ञा दी कि यमुना तट पर ही रहकर… बस यमुना जल पीकर तुम्हें भजन करना है …. अन्य कुछ नहीं ग्रहण करना है। आज्ञा के अनुसार ही ये बस यमुना जल पीकर भजन करने लगे। एक चमत्कार जो वहां पर हुआ वो यह कि रात्रि होते ही दो बड़े बड़े सर्प इनके पास आकर बैठ जाते थे मानो इनकी रखवाली कर रहे हों। दिन जैसे-जैसे बीते … शरीर कमजोर होने लगा। दूसरी तरफ सर्दियों का मौसम भी आ गया। अब ना तो कुछ ओढ़ने बिछाने के लिए था… ना पहनने के लिए… ऊपर से शरीर भी दुर्बल था… तो जब बैठे-बैठे थक जाते थे तो लेट जाते थे। शरीर ठंड से कांपता था। किंतु मानसिक ध्यान और जप बड़ी दृढ़ता के साथ बढ़ता रहा। उसी ध्यानावस्था में इनको प्रभु का दर्शन होता था और प्रभु से बातें भी होती थीं। एक बार उसी क्रम में इन्होंने प्रभु से निवेदन किया कि- प्रभु…! हमें बहुत ठंड लग रही है …. अब सहन नहीं हो रही। प्रभु ने कहा थोड़े समय और तप कर लो … यद्यपि तुम्हें कष्ट है परंतु तुम्हारे इसी कष्ट के कारण तुम्हारे अनंत जन्मों के पाप कटे जा रहे हैं…. बहुत शीघ्र ही तुम इन सब से छूटकर मेरे नित्यधाम में आ जाओगे और वहां ये सर्दी गर्मी, संसार के कोई भी कष्ट तुम्हें नहीं सताएंगे।
ये सब बातें करते करते ही ओमप्रकाश जी सो गए और जब जागे तो देखा एक मोटे से कंबल के ऊपर ये सो रहे थे। वह कंबल कौन लाया… कहां से आया…. कुछ नहीं पता। उस स्थान पर तो दिन में जाना भी कठिन था फिर भला रात्रि में कौन आ गया और उस पर भी उन सर्पों के कारण तो कोई आ ही नहीं सकता। अभी इतना सोच ही रहे थे कि इनकी दृष्टि पास में ही खड़े एक महात्मा पर गई। उन महात्मा का वेश और स्वरूप असाधारण था जिसे देखकर ओमप्रकाश जी को बड़ा सुख हुआ। ये उनसे कुछ पूछते तब तक वे महात्मा बोले- अपने साधन में दृढ़ रहना… तुम्हारा सब काम बन चुका है… बस जो साधना कर रहे हो दृढ़ता के साथ उसको करते रहना। इतना कहकर वे महात्मा जी अंतर्ध्यान हो गए। बाद में जब ध्यानावस्था में प्रभु के साथ इनकी बात हुई तब पता चला कि वह संत कोई और नहीं स्वयं प्रभु ही थे और वह कंबल भी स्वयं प्रभु ही इनके इनको दे गए थे। उस कंबल में सिर और हाथ डालने के लिए तीन छेद बने हुए थे यानी उसे चोले की तरह पहन भी सकते थे और ओढ़ भी सकते थे। तब चूंकि प्रभु ने दिया है …. इसलिए उन्होंने वो कंबल ग्रहण कर लिया।
उस घनघोर जंगल में कहीं से गाय चराने वाले बच्चों की नजर इन पर पड़ गई। उन बच्चों ने जाकर अपने घरों में बता दिया कि कोई बालक वहां घने जंगल में अकेला बैठा भजन कर रहा है। उत्सुकता वश लोग देखने के लिए आने लगे। यद्यपि वहां घनघोर जंगल था और पहुंचना भी बड़ा कठिन था परंतु उस समय लोग भी बहुत आस्थावान होते थे। अब लोगों ने इन्हें बालक जानकर समझाना शुरू कर दिया कि बेटा ऐसा हठ मत करो… कुछ खा लो… ऐसे कब तक रहोगे… परंतु ये सरलता पूर्वक सबको मना कर देते थे कि हमें सिर्फ जल पीने की आज्ञा हुई है …. हम सिर्फ जल पिएंगे। धीरे धीरे संत महात्मा भी वहां इनको देखने के लिए आए। सब ने समझाया… बहुत आग्रह किया कि बेटा कुछ थोड़ा बहुत तो खा लो…. ऐसे शरीर कब तक चलेगा…. परंतु इनका एक ही उत्तर रहा कि हमको सिर्फ जल पीने की आज्ञा हुई है हम सिर्फ जल ही पिएंगे।
इतना ही नहीं उस समय की एक मूर्धन्य विभूति पूज्य श्री हरि बाबा भी इनसे मिलने गए और बाबा ने भी समझाया। जब ये नहीं माने तब हरि बाबा ने कहा- तुम जो साधना कर रहे हो उसके लिए गुरू की आवश्यकता होती है…. ऐसे भूखे बैठकर थोड़ी साधना होती है …तुमने गुरु किया है? इन्होंने उत्तर दिया- हां… हमारे गुरु हैं नारायण स्वामी। श्री नारायण स्वामी उस समय वृंदावन में ही थे। पूज्य श्री हरि बाबा तब श्री नारायण स्वामी जी को अपने साथ लाए और श्री नारायण स्वामी ने भी इन्हें समझाया बेटा कुछ थोड़ा सा तो खा लो…. ऐसे शरीर कब तक चलेगा। तब चूंकि श्री नारायण स्वामी के प्रति इनका गुरू भाव था अतः सर्वप्रथम तो इन्होंने श्री नारायण स्वामी को दंडवत प्रणाम किया और फिर अत्यंत दीन स्वर में कहा- गुरुदेव आपकी आज्ञा है वह तो ठीक है… किंतु मुझे ठाकुर जी की आज्ञा नहीं है …. अब आप ही बताइए मैं ठाकुर जी की आज्ञा कैसे छोड़ दूं। यह बात सुनकर नारायण स्वामी निरुत्तर हो गए और बोले- बेटा यदि ठाकुर जी की आज्ञा कुछ ना खाने की ही है तो तुम ठाकुर जी की आज्ञा का पालन करो… मेरे कारण ठाकुर जी की आज्ञा न छोड़ो …. मैं तुम्हारा व्रत नहीं तुड़वाउंगा।
धीरे-धीरे बात पूरे वृंदावन में फैल गई और लोग इनके दर्शनों को आने लगे। इन्हें बालक समझकर कोई कुछ खाने पीने का पदार्थ ले आता, कोई ओढ़ने बिछाने का ले आता…. चूंकि सर्दियों के दिन थे अतः कोई दुशाला कंबल आदि लेकर आता। परंतु इनका बड़ा कठोर नियम था ये लेते किसी से कुछ नहीं थे। चाहे कोई कितना भी समझाये… कितना भी आग्रह करे…. इनका बस सीधा सा एक ही जवाब होता था कि- हमें प्रभु की आज्ञा नहीं है…. प्रभु ने हमको कष्ट सहने के लिए बोला है… हम वही सहेंगे। एक व्यक्ति ऐसा आया जिसने निवेदन किया- मेरे पेट में दर्द रहता है … मैंने बड़े से बड़े वैद्यों को दिखाया है… झाड़-फूंक भी कराई है परंतु सही नहीं हुआ …. मुझे ऐसा लगता है कि यदि आप मिट्टी भी छूकर दे देंगे तो यह सही हो जाएगा। ओमप्रकाश जी ने उत्तर दिया कि मैं कोई वैद्य या ओझा तो नहीं हूं जो आपकी पीड़ा दूर कर दूं… परंतु चूंकि आप इतनी श्रद्धा से आए हैं इसलिए मैं कहता हूं जाइए

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे।।

यह महामंत्र तीन बार बोलिए और तीनों बार यमुना जी का जल पी लीजिए …. आप सही हो जाएंगे। उसने वैसा ही किया और वह ठीक हो गया।
एक कोई वृंदावन के ही बड़े माने हुए वैद्य जी थे उनको खबर लगी कि कोई बच्चा घने जंगल में बहुत दिनों से भूखा प्यासा बैठा है …. न कुछ खा रहा है ना ही घर जा रहा है। यह सुनकर वह सेठ जी अपने साथ पुलिस के अधिकारी को लेकर गए। (कुछ लोगों को अपनी उम्र का बड़ा घमंड होता है। उन्हें लगता है हमारे बाल पक गए हैं तो अब हम किसी की भी बात और काम में टांग अड़ा सकते हैं… खास करके अगर वह कम उम्र का है तो) तो फिलहाल वो वैद्य जी पुलिस वालों को लेकर वहां गए और प्यार से ओमप्रकाश जी को समझाने लगे कि बेटा तुम तो इतने छोटे हो… कहां चक्कर में पड़ गए…. जाओ पढ़ाई करो। लेकिन ओमप्रकाश जी टस से मस नहीं हुए। वैद्य जी ने खूब तर्क दिए …ओम प्रकाश जी ने सबके उत्तर दिए। जब वैद्य जी को समझ में आ गया कि ये बच्चा नहीं उठेगा तब उन्होंने पुलिस वाले को इशारा किया। पुलिस वाले ने उद्दंडता और कठोरता के साथ कहा कि अगर सीधे-सीधे नहीं उठोगे तो मजबूरन मुझे तुम पर बल लगाना पड़ेगा। अब ओमप्रकाश जी का भी स्वर थोड़ा सा रूखा हो गया और वे बोले- हमारे ऊपर तुम्हारा बल तो नहीं चलेगा …. परंतु तुम्हारे ऊपर हमारा बल बहुत जल्दी चलने वाला है। इतनी बात जैसे ही कही वैसे ही उस पुलिस वाले के पेट में बड़ी जोर का दर्द हुआ और वह लंबी सी सांस खींचकर वहीं भूमि पर गिर गया और तड़पने लगा। अब सबको समझ में आ गया कि कोई सात्विक शक्ति है जो ओमप्रकाश जी की रक्षा कर रही है। तब वहीं जमीन पर पड़े पड़े उस पुलिस वाले ने क्षमा मांगी तब जाकर कहीं उसके पेट का दर्द बंद हुआ। फिर वह वैद्य जी और पुलिस वाला दोनों भाग गए।
खैर दिन बीतते रहे होते होते करीब 70 दिन निकल गए। इतने दिनों तक इन्होंने सिर्फ यमुना जी का जल ही पिया अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं किया। ओढ़ने, बिछाने, पहनने के नाम पर भी बस एक वही कंबल जो भगवान ओढ़ा गए थे वही रखा। 71 वां दिन जब आया तब कोई व्यक्ति जो इनके पास था उसने निवेदन किया कि आप नारायण स्वामी के प्रति गुरु भाव रखते हैं परंतु इतनी बार उन्होंने आपसे कुछ खाने पीने का निवेदन किया और आपने मना कर दिया …. क्या गुरु की इस प्रकार से अवहेलना उचित है…? कुछ सोच कर इन्होंने उत्तर दिया- ठीक है ….. गुरु की अवहेलना तो ठीक नहीं है… जाकर उनसे कह दो कि यदि कल गुरुदेव आ कर के अपने हाथ से मुझे दुग्ध पान कराएंगे तो मैं पी लूंगा। यह बात आग की तरह सब जगह फैल गई और उनके गुरुदेव को भी बता दी गई। वह तिथि दशमी की थी और अगले दिन की तिथि थी “मोक्षदा एकादशी”।
इधर श्री ओमप्रकाश जी ने अपने साथ वाले उस व्यक्ति से निवेदन किया कि एक तो हमें कहीं से कृष्ण भगवान का वह चित्र लाकर दिखा दो (वह चित्र मतलब श्री भगवान का एक चित्र है संभवत: आप सब ने भी देखा हो जिसमें बाल रूप में भगवान हैं और एक तोते को देखकर भगवान मुस्कुरा रहे हैं। वह चित्र श्री ओमप्रकाश जी को बड़ा प्रिय था और उसी चित्र को दिखाने का उन्होंने आग्रह किया था) और दूसरा हमारे पास श्रीरामचरितमानस रख दो। इनके निवेदन के अनुसार ही व्यवस्था कर दी गई। इधर श्री नारायण स्वामी, श्री हरि बाबा और कई सारे संत महात्मा इकट्ठे हुए और दशमी की रात में ही एक गाय की व्यवस्था कर ली गई कि कल तो एकादशी है ….कल यह गाय लेकर वहीं चलेंगे और वहीं दूध दुहकर उस बालक को पिला देंगे। रात्रि में श्री नारायण स्वामी से स्वप्न में श्री किशोरी जी ने कहा कि- गाय ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है …. मैं उन्हें अपने साथ ही ले जा रही हूं… वे मेरे ही परिकरों में से हैं और अब वापस धाम में ही जाकर रहेंगे। जब नारायण स्वामी सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठे तब पता चला कि ठीक वही स्वप्न श्री हरि बाबा और बाकी कई महात्माओं ने भी देखा। इसका एक ही अर्थ था … ओमप्रकाश जी की तपस्या पूरी हो गई। अब गाय वहीं छोड़ के सारे महात्मा लोग वहां जंगल में भागे। जब वहां पहुंचे तब देखा कि ओमप्रकाश जी के मुख पर अपार तेज है … और एक बड़ी संतोष पूर्ण मुस्कान है …. जैसे उन्होंने सब कुछ पा लिया… अब कुछ शेष नहीं बचा… रही बात प्राणों की तो वह श्री ठाकुर जी में लीन हो गए थे। जो सब सोच रहे थे वही हो गया…. ओमप्रकाश जी धाम में लौट गए।
उनका विमान बनाकर जब वृंदावन में घुमाया गया था तो संत बताते हैं कि हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे हो गए थे। जो कंबल भगवान उन्हें ओढ़ा गए थे उस कंबल का धागा धागा खोलकर लोगों ने प्रसादी के रूप में आपस में बांटा था। ज्ञान गुदड़ी में ला करके उनका शरीर कुछ देर रखा गया था जहां पर उसका एक चित्र भी लिया गया। वृंदावन से टोंक जिले की दूरी तय करने में लगभग 12 घंटे का समय लगता है परंतु प्रभु की ऐसी लीला थी कि उनके माता-पिता को खबर तब लग पाई जब उनका शरीर छूट गया था। कहने का अभिप्राय यह है कि यदि शरीर रहते ही उनके माता-पिता वहां पहुंच जाते तो उनकी तपस्या में बाधा पड़ जाती परंतु प्रभु ने ऐसी कृपा की कि माता-पिता को खबर ही नहीं लगी और जब शरीर छूट गया तब माता-पिता वहां पहुंच पाए।
अब कहने को तो उनकी अवस्था इतनी छोटी थी परंतु भजन में वे इतने बड़े हो गए कि अच्छे-अच्छे महात्माओं को भी पीछे छोड़ गए। वे, उनके ठाकुर जी और श्री ठकुराइन… हमें भी आशीर्वाद दें कि इस पतित शरीर से कुछ थोड़ा बहुत ही सही ….भजन हो पाए।



इनका जन्म राजस्थान के टोंक जिले में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं पर हुई। इन्हें बचपन से ही कृष्ण भगवान से बड़ा प्रेम था। जब भी एकांत में बैठते थे तो हा कृष्ण..! हा कृष्ण..! कह कर रोते थे और कोई आ जाए तो अपना रुदन झट से छुपा लेते थे। हाई स्कूल की पढ़ाई करने के लिए ये आगरा आए। भक्ति के संस्कार तो पूर्व जन्म के थे ही तो अपने संगी साथियों को भी हर समय भगवद भजन और हरि नाम जप के लिए प्रेरित करते रहते थे। जब कक्षा 9 में पढ़ रहे थे उसी समय इन्हें बड़ा तीव्र वैराग्य हुआ। पूर्व जन्म के संस्कार थे बलवान हो गए। परिणाम …? जैसे तैसे एक साल और काटा। जब दसवीं में थे तब भावावेश के कारण सब छोड़ छाड़ के वृंदावन को चले गए। अब ये घटना करीब 80 वर्ष पहले की है। उस समय की… जब वृंदावन में हर तरफ घना जंगल था। संत सुनाते हैं कि जिस स्थान पर ये रुके थे … आज से करीब 30 वर्ष पूर्व वहां पर पहुंचना बड़ा कठिन था… अब तो सड़क बन गई है सब काफी आसान हो गया है। तो उस घने जंगल में यमुना जी के तट पर बैठकर ये भजन करने लगे। उसी भावावेश में इन्हें भगवद दर्शन हुआ और भगवान ने आज्ञा दी कि यमुना तट पर ही रहकर… बस यमुना जल पीकर तुम्हें भजन करना है …. अन्य कुछ नहीं ग्रहण करना है। आज्ञा के अनुसार ही ये बस यमुना जल पीकर भजन करने लगे। एक चमत्कार जो वहां पर हुआ वो यह कि रात्रि होते ही दो बड़े बड़े सर्प इनके पास आकर बैठ जाते थे मानो इनकी रखवाली कर रहे हों। दिन जैसे-जैसे बीते … शरीर कमजोर होने लगा। दूसरी तरफ सर्दियों का मौसम भी आ गया। अब ना तो कुछ ओढ़ने बिछाने के लिए था… ना पहनने के लिए… ऊपर से शरीर भी दुर्बल था… तो जब बैठे-बैठे थक जाते थे तो लेट जाते थे। शरीर ठंड से कांपता था। किंतु मानसिक ध्यान और जप बड़ी दृढ़ता के साथ बढ़ता रहा। उसी ध्यानावस्था में इनको प्रभु का दर्शन होता था और प्रभु से बातें भी होती थीं। एक बार उसी क्रम में इन्होंने प्रभु से निवेदन किया कि- प्रभु…! हमें बहुत ठंड लग रही है …. अब सहन नहीं हो रही। प्रभु ने कहा थोड़े समय और तप कर लो … यद्यपि तुम्हें कष्ट है परंतु तुम्हारे इसी कष्ट के कारण तुम्हारे अनंत जन्मों के पाप कटे जा रहे हैं…. बहुत शीघ्र ही तुम इन सब से छूटकर मेरे नित्यधाम में आ जाओगे और वहां ये सर्दी गर्मी, संसार के कोई भी कष्ट तुम्हें नहीं सताएंगे। ये सब बातें करते करते ही ओमप्रकाश जी सो गए और जब जागे तो देखा एक मोटे से कंबल के ऊपर ये सो रहे थे। वह कंबल कौन लाया… कहां से आया…. कुछ नहीं पता। उस स्थान पर तो दिन में जाना भी कठिन था फिर भला रात्रि में कौन आ गया और उस पर भी उन सर्पों के कारण तो कोई आ ही नहीं सकता। अभी इतना सोच ही रहे थे कि इनकी दृष्टि पास में ही खड़े एक महात्मा पर गई। उन महात्मा का वेश और स्वरूप असाधारण था जिसे देखकर ओमप्रकाश जी को बड़ा सुख हुआ। ये उनसे कुछ पूछते तब तक वे महात्मा बोले- अपने साधन में दृढ़ रहना… तुम्हारा सब काम बन चुका है… बस जो साधना कर रहे हो दृढ़ता के साथ उसको करते रहना। इतना कहकर वे महात्मा जी अंतर्ध्यान हो गए। बाद में जब ध्यानावस्था में प्रभु के साथ इनकी बात हुई तब पता चला कि वह संत कोई और नहीं स्वयं प्रभु ही थे और वह कंबल भी स्वयं प्रभु ही इनके इनको दे गए थे। उस कंबल में सिर और हाथ डालने के लिए तीन छेद बने हुए थे यानी उसे चोले की तरह पहन भी सकते थे और ओढ़ भी सकते थे। तब चूंकि प्रभु ने दिया है …. इसलिए उन्होंने वो कंबल ग्रहण कर लिया। उस घनघोर जंगल में कहीं से गाय चराने वाले बच्चों की नजर इन पर पड़ गई। उन बच्चों ने जाकर अपने घरों में बता दिया कि कोई बालक वहां घने जंगल में अकेला बैठा भजन कर रहा है। उत्सुकता वश लोग देखने के लिए आने लगे। यद्यपि वहां घनघोर जंगल था और पहुंचना भी बड़ा कठिन था परंतु उस समय लोग भी बहुत आस्थावान होते थे। अब लोगों ने इन्हें बालक जानकर समझाना शुरू कर दिया कि बेटा ऐसा हठ मत करो… कुछ खा लो… ऐसे कब तक रहोगे… परंतु ये सरलता पूर्वक सबको मना कर देते थे कि हमें सिर्फ जल पीने की आज्ञा हुई है …. हम सिर्फ जल पिएंगे। धीरे धीरे संत महात्मा भी वहां इनको देखने के लिए आए। सब ने समझाया… बहुत आग्रह किया कि बेटा कुछ थोड़ा बहुत तो खा लो…. ऐसे शरीर कब तक चलेगा…. परंतु इनका एक ही उत्तर रहा कि हमको सिर्फ जल पीने की आज्ञा हुई है हम सिर्फ जल ही पिएंगे। इतना ही नहीं उस समय की एक मूर्धन्य विभूति पूज्य श्री हरि बाबा भी इनसे मिलने गए और बाबा ने भी समझाया। जब ये नहीं माने तब हरि बाबा ने कहा- तुम जो साधना कर रहे हो उसके लिए गुरू की आवश्यकता होती है…. ऐसे भूखे बैठकर थोड़ी साधना होती है …तुमने गुरु किया है? इन्होंने उत्तर दिया- हां… हमारे गुरु हैं नारायण स्वामी। श्री नारायण स्वामी उस समय वृंदावन में ही थे। पूज्य श्री हरि बाबा तब श्री नारायण स्वामी जी को अपने साथ लाए और श्री नारायण स्वामी ने भी इन्हें समझाया बेटा कुछ थोड़ा सा तो खा लो…. ऐसे शरीर कब तक चलेगा। तब चूंकि श्री नारायण स्वामी के प्रति इनका गुरू भाव था अतः सर्वप्रथम तो इन्होंने श्री नारायण स्वामी को दंडवत प्रणाम किया और फिर अत्यंत दीन स्वर में कहा- गुरुदेव आपकी आज्ञा है वह तो ठीक है… किंतु मुझे ठाकुर जी की आज्ञा नहीं है …. अब आप ही बताइए मैं ठाकुर जी की आज्ञा कैसे छोड़ दूं। यह बात सुनकर नारायण स्वामी निरुत्तर हो गए और बोले- बेटा यदि ठाकुर जी की आज्ञा कुछ ना खाने की ही है तो तुम ठाकुर जी की आज्ञा का पालन करो… मेरे कारण ठाकुर जी की आज्ञा न छोड़ो …. मैं तुम्हारा व्रत नहीं तुड़वाउंगा। धीरे-धीरे बात पूरे वृंदावन में फैल गई और लोग इनके दर्शनों को आने लगे। इन्हें बालक समझकर कोई कुछ खाने पीने का पदार्थ ले आता, कोई ओढ़ने बिछाने का ले आता…. चूंकि सर्दियों के दिन थे अतः कोई दुशाला कंबल आदि लेकर आता। परंतु इनका बड़ा कठोर नियम था ये लेते किसी से कुछ नहीं थे। चाहे कोई कितना भी समझाये… कितना भी आग्रह करे…. इनका बस सीधा सा एक ही जवाब होता था कि- हमें प्रभु की आज्ञा नहीं है…. प्रभु ने हमको कष्ट सहने के लिए बोला है… हम वही सहेंगे। एक व्यक्ति ऐसा आया जिसने निवेदन किया- मेरे पेट में दर्द रहता है … मैंने बड़े से बड़े वैद्यों को दिखाया है… झाड़-फूंक भी कराई है परंतु सही नहीं हुआ …. मुझे ऐसा लगता है कि यदि आप मिट्टी भी छूकर दे देंगे तो यह सही हो जाएगा। ओमप्रकाश जी ने उत्तर दिया कि मैं कोई वैद्य या ओझा तो नहीं हूं जो आपकी पीड़ा दूर कर दूं… परंतु चूंकि आप इतनी श्रद्धा से आए हैं इसलिए मैं कहता हूं जाइए

Hare Krishna Hare Krishna, Krishna Krishna Hare Hare. Hare Rama Hare Rama, Rama Rama Hare Hare.

यह महामंत्र तीन बार बोलिए और तीनों बार यमुना जी का जल पी लीजिए …. आप सही हो जाएंगे। उसने वैसा ही किया और वह ठीक हो गया। एक कोई वृंदावन के ही बड़े माने हुए वैद्य जी थे उनको खबर लगी कि कोई बच्चा घने जंगल में बहुत दिनों से भूखा प्यासा बैठा है …. न कुछ खा रहा है ना ही घर जा रहा है। यह सुनकर वह सेठ जी अपने साथ पुलिस के अधिकारी को लेकर गए। (कुछ लोगों को अपनी उम्र का बड़ा घमंड होता है। उन्हें लगता है हमारे बाल पक गए हैं तो अब हम किसी की भी बात और काम में टांग अड़ा सकते हैं… खास करके अगर वह कम उम्र का है तो) तो फिलहाल वो वैद्य जी पुलिस वालों को लेकर वहां गए और प्यार से ओमप्रकाश जी को समझाने लगे कि बेटा तुम तो इतने छोटे हो… कहां चक्कर में पड़ गए…. जाओ पढ़ाई करो। लेकिन ओमप्रकाश जी टस से मस नहीं हुए। वैद्य जी ने खूब तर्क दिए …ओम प्रकाश जी ने सबके उत्तर दिए। जब वैद्य जी को समझ में आ गया कि ये बच्चा नहीं उठेगा तब उन्होंने पुलिस वाले को इशारा किया। पुलिस वाले ने उद्दंडता और कठोरता के साथ कहा कि अगर सीधे-सीधे नहीं उठोगे तो मजबूरन मुझे तुम पर बल लगाना पड़ेगा। अब ओमप्रकाश जी का भी स्वर थोड़ा सा रूखा हो गया और वे बोले- हमारे ऊपर तुम्हारा बल तो नहीं चलेगा …. परंतु तुम्हारे ऊपर हमारा बल बहुत जल्दी चलने वाला है। इतनी बात जैसे ही कही वैसे ही उस पुलिस वाले के पेट में बड़ी जोर का दर्द हुआ और वह लंबी सी सांस खींचकर वहीं भूमि पर गिर गया और तड़पने लगा। अब सबको समझ में आ गया कि कोई सात्विक शक्ति है जो ओमप्रकाश जी की रक्षा कर रही है। तब वहीं जमीन पर पड़े पड़े उस पुलिस वाले ने क्षमा मांगी तब जाकर कहीं उसके पेट का दर्द बंद हुआ। फिर वह वैद्य जी और पुलिस वाला दोनों भाग गए। खैर दिन बीतते रहे होते होते करीब 70 दिन निकल गए। इतने दिनों तक इन्होंने सिर्फ यमुना जी का जल ही पिया अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं किया। ओढ़ने, बिछाने, पहनने के नाम पर भी बस एक वही कंबल जो भगवान ओढ़ा गए थे वही रखा। 71 वां दिन जब आया तब कोई व्यक्ति जो इनके पास था उसने निवेदन किया कि आप नारायण स्वामी के प्रति गुरु भाव रखते हैं परंतु इतनी बार उन्होंने आपसे कुछ खाने पीने का निवेदन किया और आपने मना कर दिया …. क्या गुरु की इस प्रकार से अवहेलना उचित है…? कुछ सोच कर इन्होंने उत्तर दिया- ठीक है ….. गुरु की अवहेलना तो ठीक नहीं है… जाकर उनसे कह दो कि यदि कल गुरुदेव आ कर के अपने हाथ से मुझे दुग्ध पान कराएंगे तो मैं पी लूंगा। यह बात आग की तरह सब जगह फैल गई और उनके गुरुदेव को भी बता दी गई। वह तिथि दशमी की थी और अगले दिन की तिथि थी “मोक्षदा एकादशी”। इधर श्री ओमप्रकाश जी ने अपने साथ वाले उस व्यक्ति से निवेदन किया कि एक तो हमें कहीं से कृष्ण भगवान का वह चित्र लाकर दिखा दो (वह चित्र मतलब श्री भगवान का एक चित्र है संभवत: आप सब ने भी देखा हो जिसमें बाल रूप में भगवान हैं और एक तोते को देखकर भगवान मुस्कुरा रहे हैं। वह चित्र श्री ओमप्रकाश जी को बड़ा प्रिय था और उसी चित्र को दिखाने का उन्होंने आग्रह किया था) और दूसरा हमारे पास श्रीरामचरितमानस रख दो। इनके निवेदन के अनुसार ही व्यवस्था कर दी गई। इधर श्री नारायण स्वामी, श्री हरि बाबा और कई सारे संत महात्मा इकट्ठे हुए और दशमी की रात में ही एक गाय की व्यवस्था कर ली गई कि कल तो एकादशी है ….कल यह गाय लेकर वहीं चलेंगे और वहीं दूध दुहकर उस बालक को पिला देंगे। रात्रि में श्री नारायण स्वामी से स्वप्न में श्री किशोरी जी ने कहा कि- गाय ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है …. मैं उन्हें अपने साथ ही ले जा रही हूं… वे मेरे ही परिकरों में से हैं और अब वापस धाम में ही जाकर रहेंगे। जब नारायण स्वामी सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठे तब पता चला कि ठीक वही स्वप्न श्री हरि बाबा और बाकी कई महात्माओं ने भी देखा। इसका एक ही अर्थ था … ओमप्रकाश जी की तपस्या पूरी हो गई। अब गाय वहीं छोड़ के सारे महात्मा लोग वहां जंगल में भागे। जब वहां पहुंचे तब देखा कि ओमप्रकाश जी के मुख पर अपार तेज है … और एक बड़ी संतोष पूर्ण मुस्कान है …. जैसे उन्होंने सब कुछ पा लिया… अब कुछ शेष नहीं बचा… रही बात प्राणों की तो वह श्री ठाकुर जी में लीन हो गए थे। जो सब सोच रहे थे वही हो गया…. ओमप्रकाश जी धाम में लौट गए। उनका विमान बनाकर जब वृंदावन में घुमाया गया था तो संत बताते हैं कि हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे हो गए थे। जो कंबल भगवान उन्हें ओढ़ा गए थे उस कंबल का धागा धागा खोलकर लोगों ने प्रसादी के रूप में आपस में बांटा था। ज्ञान गुदड़ी में ला करके उनका शरीर कुछ देर रखा गया था जहां पर उसका एक चित्र भी लिया गया। वृंदावन से टोंक जिले की दूरी तय करने में लगभग 12 घंटे का समय लगता है परंतु प्रभु की ऐसी लीला थी कि उनके माता-पिता को खबर तब लग पाई जब उनका शरीर छूट गया था। कहने का अभिप्राय यह है कि यदि शरीर रहते ही उनके माता-पिता वहां पहुंच जाते तो उनकी तपस्या में बाधा पड़ जाती परंतु प्रभु ने ऐसी कृपा की कि माता-पिता को खबर ही नहीं लगी और जब शरीर छूट गया तब माता-पिता वहां पहुंच पाए। अब कहने को तो उनकी अवस्था इतनी छोटी थी परंतु भजन में वे इतने बड़े हो गए कि अच्छे-अच्छे महात्माओं को भी पीछे छोड़ गए। वे, उनके ठाकुर जी और श्री ठकुराइन… हमें भी आशीर्वाद दें कि इस पतित शरीर से कुछ थोड़ा बहुत ही सही ….भजन हो पाए।

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