भगवान राम का माता केकैयी के प्रति प्रेम


जानत प्रीति रीति रघुराई भगवान राम वनवास से आने के बाद माता केकैयी को पश्चाताप की अग्नि में जलते देखते हैं
माता को भूमि बैठे देख प्रभु भी भूमि पर बैठकर जाते है और कहते “ माता ! आपने राम को वन भेज कर सम्पूर्ण संसार ही नहीं सम्पूर्ण त्रिलोक को उपकृत किया है , यदि मैं वन न जाता तो क्या रावन , खर,दूषण जैसे अनेक राक्षस, दानव आदि आतताइयों से इस त्रिलोक को मुक्त करा सकता था ? नहीं न , राष्ट्र के प्रति जन मानस को जोड़ने का कार्य , दीन हीन जनों का उद्धार और कोटिश उत्तरदायी कार्यों का सिद्ध किये जाने का गौरव भी तो आप ही के कारण हुआ है माता | अपना मन छोटा न करें माँ ! राम के पुरुषार्थ को कसौटी पर कसने और दीप्त करने ,अजेय बना देने  में आप ही  दिखाई देती है | “
कैकेयी का मस्तक गर्व से उठ जाता है , पश्चाताप की पीड़ा के स्थान पर माता होने का , पराक्रमी पुत्र की माता होने का स्वाभिमान दृष्टिगोचर होने लगता है | रघुनाथ जी पुन कोमल वाणी में कहने लगते है , छोटी माँ ! त्रिलोक में शांति स्थापना का श्रेय आप ही को है , राम , आप जैसी गौरवमयी जननी के चरणों की वंदना करता है | वे अपने कोमल हाथों को जोड़ कर फिर से माता के चरणों में प्रणाम निवेदन करते है |
आपको भरत जैसे सर्वत्यागी , वीतरागी ऋषिपुरुष की माता होने का सम्मान भी तो धारण करना होगा |  कैकेयी के ह्रदय का संताप दूर हो गया भावावेश में माता ने पुन: दुलारते हुए आपने कोमल शिशु को अपनी छाती से लगा लिया ,  राम ने अपने मस्तक को जननी की गोद झुका लिया और वे फिर से अपने अंचल से प्रभु के पुष्प से सुकोमल मुख को पोंछने लगी | प्रभु भी ममतामयी माँ की गोद में आश्रय पा लेने को आतुर थे | रघुवंश की कीर्ति पताका को ब्रम्हांड भर में फहराने का सामर्थ्य करने वाला यह यशस्वी पुत्र अपनी ममतामयी माता के अंचल के दुलार को पाने को व्याकुल दिखाई पड़ता है | माता और पुत्र की भाव समाधी लगी हुयी है | कैकेयी का कक्ष बहुत देर तक वात्सल्य और ममता की दिव्य आभा से दीप्त रहा | विरह, संताप की प्रचंड अग्नि को प्रेमाश्रु की शीतलता ने समाप्त कर दिया और प्रेम एवं आनंद की  धरा रनिवास में बहने लगी |
तभी श्रीराम को कुछ याद आया और पूछ लिया “ माता ! वह नानी माँ कहाँ है , अपार जन समूह में भी हमारे नेत्र पूज्य नानी माँ को ढूंढ रहे थे | “
माता ने उच्च स्वर में पुकार , अरी ! मंथरा  औ मेरी माता,
फिर राम की ओर उन्मुख हो कर कहने लगी , इसे भी क्षमा दान दे दो राम ! मुझसे भी कहीं अधिक व्यथित है यह , पीड़ा में जली ही जा रही है , बेचारी !
मंथरा , पश्चाताप और लज्जा के भार सर झुकी हुए भूमि पट दृष्टि गडाए राघवेन्द्र सरकार के चरणों से लिपट गयी, सरकार ! मुझे क्षमा कर दो सरकार ! यह पापिनी आपसे क्षमा याचना योग्य भी नहीं है | प्रभु ! मेरी मति ही भ्रष्ट हो गयी थी |आप पापियों को तारने वाले , दया निधान है , दीनदयाल है ,मेरे जधन्य अपराध को क्षमादान दो सरकार ! “
नानी माँ ! पश्चाताप की अग्नि ने आपको सुवर्ण बना दिया है भामिनी ! , शोक न करो , अब आप पवित्र हो , निर्दोष हो |” राघवेन्द्र ने मंथरा को उठा कर ह्रदय से लगा लिया और विनती की ,” नानी माँ ! हमें कहानियां सुनाओगी ना | “
अपनी ममतामयी माता के समक्ष , व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो जाये अपने नन्हा शिशु ही पाता है |यह दृश्य वस्तुत:दासी मंथरा और रघुकुल के राजा राम का मिलन नहीं था ।यह तो भक्त और भगवान का मिलन था। भक्त कैसा भी हो सर्वांतरायामी रघुकुल तिलक परात्पर ब्रह्म श्रीराम और अनन्य भक्त का महामिलन था।
महाराज तुलसीदास जी ने कवितावली एक बड़ा ही सुंदर पद लिखा है ,
“ जानत प्रीति रीति रघुराई ….
नेह निवाहि देह तजि दसरथ कीरति अचल चलाई |
ऐसेहूँ पितु तें अधिक गीध पर ममता गुण गरुआई ||
तिय-विरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई |”
…… श्रीरघुनाथ जी प्रीति करने की रीती निभाना भातिभंती जानते है | प्रीति , स्नेह , प्रेम के अपार सागर है , श्रीराम स्नेह सिन्धु है | तुलसीदास जी कहते है की पिता दशरथ जी ने नेह को निभाया राम विरह में देह तज दी तो प्रभु ने उनकी त्रिलोक में कीर्ति पताका स्थापित की और अपने पिता से भी अधिक गृधराज जटायु को सन्मान दिया और उनको गौरवपूर्ण स्थान दिया | जानत प्रीति की रीति रघुराई …..

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