महाभारत में एक बात आती है कि पाँच पाण्डवों सहित द्रौपदी जब वन में विचरण कर रही थी तब एक शाम को युधिष्ठिर महाराज पर्वतों की ओर निहारते हुए, शान्ति एवं आनंद का अनुभव करते हुए प्रसन्नमुख नज़र आ रहे थे।
द्रौपदी के मन में आयाः महाराज युधिष्ठिर हम संध्या करते हैं, ध्यान-भजन करते हैं, भगवान का सुमिरण-चिंतन करते हैं। फिर भी हम दुखी है । वन में दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और दुष्ट दुर्योधन को कोई कष्ट नहीं?ʹ अत उसने महाराज युधिष्ठिर से पूछा
महाराज ! आप भजन कर रहे हैं, धर्म का अनुष्ठान कर रहे हैं,
सच्चाई से चल रहे हैं और दुख भोग रहे हैं जबकि वह दुष्ट दुर्योधन कपट करके, जुआ खेलकर भी सुखी है। यह कैसी बात है ? आप भजन करते हैं तो भगवान से क्यों नहीं कहते कि हमें न्याय मिले ?
युधिष्ठिर महाराज ने बड़ा गजब का जवाब दिया है जो भारतीय संस्कृति के गौरव का एक जवलंत उदाहरण है। युधिष्ठिर ने कहा द्रौपदी ! उसके पास कपट से वैभव और सुख है। वैभव और सुख बाहर से दिखता है किन्तु वह भीतर से सुखी नहीं, वरन् अशांत है। जबकि हमारे पास बाहर की सुविधाएँ नहीं हैं फिर भी हमारे चित्त का सुख नहीं मिटता।
मैं भजन इसलिए नहीं करता हूँ कि मुझे सुविधाएँ मिलें अथवा मेरे शत्रु का नाश हो जाए वरन् मैं ईश्वर के सानिध्य के लिए भजन करता हूँ। उस सुखस्वरूप, आनंदस्वरूप, चैतन्यघन से क्या माँगना?
ईश्वर की प्राप्ति तभी होगी जब भगवान से कुछ न माँगा जाये। जो आयेगा देखा जायेगा जो आयेगा सह लेंगे जो आयेगा गुज़र जायेगा इस भाव से भजन करें तभी भगवान के लिए भजन होगा अन्यथा, यह हो जाये… वह हो जाये इस भाव से किया गया भजन भगवान के लिए नहीं होगा। भगवान से कुछ माँगने के लिए भजन करना तो भगवान को नौकर बनाने के लिए भजन करना है।
भजन प्रेमपूर्वक किया जाये, अहोभाव से किया जाये, भगवान को अपना और अपने को भगवान का मानकर भजन किया जाये, निष्काम होकर किया जाये तभी भजन, भजन के लिए होगा अन्यथा मात्र दुकानदारी ही रह जायेगा।
अत सावधान ! समय बहुत कम है। भजन ही करें व्यापार नहीं, दुकानदारी नहीं। कहीं यह अनमोल मनुष्य जन्म यूँ ही व्यर्थ न बीत जाए