कहा करौं वैकुण्ठहि जाय



भगवान के सभी नाम श्रेष्ठ हैं, सभी धाम पवित्र हैं, सभी स्वरूप ध्येय (ध्यान करने के लिए) हैं; फिर भी जो माधुर्य ब्रज-वृंदावन में है, वह वैकुण्ठ में नहीं है। माधुर्य की अधिकता के कारण ही ब्रज को वैकुण्ठ से श्रेष्ठ माना गया है।

इससे सम्बधित एक लीला श्रीमद्भागवत और श्रीगर्ग संहिता में पढ़ने को मिलती है..
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एक बार नन्दबाबा ने एकादशी का व्रत किया और उसी दिन रात में द्वादशी लगने पर वह मध्य रात्रि में ही ग्वालों के साथ यमुना-स्नान के लिए चले गए।
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नन्दबाबा को ज्ञात नहीं था कि यह असुरों की बेला है, इस समय स्नान के लिए यमुनाजल में प्रवेश नहीं करना चाहिए। (रात को दस बजे से प्रात: साढ़े तीन बजे तक स्नान का निषेध है।)
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जल के देवता वरुण का एक सेवक उनको पकड़ कर वरुण लोक में ले गया। नन्दबाबा को डूबा हुआ जान कर ग्वाल-बालों में कोहराम मच गया।
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सभी कहने लगे.. ‘कृष्ण ! तुम्हारा ही भरोसा है, तुम्हीं अपने पिता को वापिस ला सकते हो। सदा से ही तुमने हमारे सारे भय दूर किए हैं।’
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श्रीकृष्ण जानते थे कि ये वरुण के सेवक की लीला है। वे सबको सांत्वना देकर वरुण लोक गए। वहां उन्होंने वरुणपुरी के विशाल दुर्ग को जाते ही भस्म कर दिया।
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भगवान श्रीकृष्ण को कुपित देख कर लोकपाल वरुण उनकी स्तुति करते हुए बोले..
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नम: श्रीकृष्णचन्द्राय परिपूर्णतमाय च।
असंख्यब्रह्माण्डभृते गोलोकपतये नम:।।
चतुर्व्यूहाय महसे नमस्ते सर्वतेजसे।
नमस्ते सर्वभावाय परस्मै ब्रह्मणे नम:।।
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अर्थात्.. श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है। परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डों का भरण-पोषण करने वाले गोलोकपति को नमस्कार है। चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट तेजोमय श्रीहरि को नमस्कार है। सर्वतेज:स्वरूप आप परमेश्वर को नमस्कार है। सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है।
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वरुण देव ने कहा.. ‘मेरे किसी मूर्ख सेवक ने यह पहली बार आपकी गलती की है; उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए l।’
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लोकपाल वरुण की स्तुति सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए और नन्दबाबा को जीवित लेकर ब्रजमण्डल में लौट आए।
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नन्दबाबा ने वरुण लोक में देखा कि कैसे लोकपाल वरुण उनके पुत्र श्रीकृष्ण के चरणों में झुक-झुक कर प्रणाम कर रहे थे, उन्हें बड़ा विस्मय हुआ।
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अब नन्दबाबा गोप-गोपियों और अपने जाति-भाइयों को वरुण लोक में श्रीकृष्ण के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते.. ‘मैं वरुण लोक गया था, वहां वरुण देव ने कृष्ण को साक्षात् भगवान बताया। यह हमारा लाला नहीं है, ये तो साक्षात् भगवान है।’
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गोप-गोपियों ने जब यह सब सुना तो उनके मन में भी उत्सुकता जगी कि क्या भगवान श्रीकृष्ण हम लोगों को भी अपना वह मायातीत स्वधाम दिखलायेंगे ?
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वे श्रीकृष्ण के पीछे पड़ गए कि.. ‘कन्हैया ! तुम यदि लोकपालों से पूजित साक्षात् भगवान हो तो हमें भी वैकुण्ठ लोक का दर्शन कराओ।’
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जिस जलाशय में भगवान श्रीकृष्ण ने अक्रूर को अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मह्रद में भगवान उन गोप-गोपियों को ले गए।
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वहां उन लोगों ने उसमें डुबकी लगाई। श्रीकृष्ण ने कहा.. ‘अच्छा, तुम सब अब आंखें बंद करो।’
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अगले ही पल जैसे ही सबने अपनी आंखें खोलीं तो सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म लिए वनमाला से सुशोभित, असंख्य सूर्यों के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण शेषनाग की शय्या पर पौढ़े थे। ब्रह्मा आदि देवता उनकी सेवा कर रहे थे।
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यह देखकर सीधे-सादे गोप-गोपियां आपस में कानाफूसी करने लगे.. ‘अरे, ये देखने में तो अपने कन्हैया से लगते हैं पर इनके चार हाथ हैं।
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हमारे कन्हैया के पास तो शंख, चक्र, गदा, पद्म हैं नहीं, वह तो बांसुरी वाला है। हम सब उसके समीप ही खड़े हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके यह ऊंचे सिंहासन पर बैठ गया और हमसे एक क्षण के लिए बात तक नहीं करता।’
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वैकुण्ठ में ब्रज की तरह प्रेम की नहीं मर्यादा की प्रधानता है। गोप-गोपियों को इस तरह कानाफूसी करते देख कर भगवान के गदाधारी पार्षदों ने उनको डांटते हुए कहा..
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‘अरे, वनचरो ! चुप हो जाओ। यहां भाषण न करो। क्या तुमने कभी श्रीहरि की सभा नहीं देखी है ? यहां सबके परमात्मा देवाधिदेव भगवान श्रीहरि विराजमान हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।’
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गोप-गोपियां तो गंवार ठहरे, आपस में कहने लगे.. ‘यहां तो बोलने की भी मनाही है, कन्हैया के पास भी ये पार्षद जाने नहीं देंगे। अरे भैया, हम को वैकुण्ठ में आकर बहुत पछताए।
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यहां तो कन्हैया चार हाथों वाला हो गया है, और हमसे बहुत दूर बैठा है, हम उसके पास जा भी नहीं सकते हैं।
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ब्रज से बढ़कर कोई दूसरा सुखदायक और श्रेष्ठ लोक नहीं है; क्योंकि ब्रज में तो कन्हैया हमारा सखा है, हमारे साथ गेंद खेलता, घोड़ा बनता।
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यहां तो आफत ही आ गई, खड़े रहना भी मुश्किल है। वैकुण्ठ में आकर तो हम सच में बहुत पछता रहे हैं।’
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भगवान तो अंतर्यामी हैं। जब चतुर्भुज रूप श्रीकृष्ण ने देखा कि गोप-गोपियां दु:खी हो रहे हैं तो वे तुरंत उनके साथ ब्रज लौट आए।
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ब्रज में आकर गोप-गोपियों ने भी चैन की सांस लेते हुए कहा.. वैकुण्ठ में जाकर हम क्या करेंगे ? वहां यमुना, गिरि गोवर्धन, वंशीवट, निकुंज, वृंदावन, नन्दबाबा-यशोदा और उनकी गायें.. कुछ भी तो नहीं हैं।
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वहां ब्रज की मंद सुगंधित बयार भी नहीं बहती, न ही मोर-हंस कूजते हैं। वहां कन्हैया की वंशीधुन भी नहीं सुनाई देती। ब्रज और नन्दबाबा के पुत्र को छोड़कर हमारी बला ही वैकुण्ठ में बसे।
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कहा करौं वैकुण्ठहि जाय।
जहां नहिं वंशीवट यमुना
गिरिगोवर्धन नन्द की गाय।।
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जहाँ नहिं यह कुंज लताद्रुम
मंद सुगंध बहत नहिं वाय।
कोकिल हंस मोर नहीं कूजत
ताको बसिवो काहि सुहाय।।
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जहाँ नहिं धुन वंशी की बाजत
कृष्ण न पुरवत अधर लगाय।
प्रेम पुलक रोमांच न उपजत
मन वच क्रम आवत नहिं धाय।।
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जहाँ नहिं यह भूमि वृंदावन
बाबा नन्द यशोमति माय।
‘गोविन्द’ प्रभु तजि नन्द सुवन को
ब्रज तजि वहाँ मेरी बसै बलाय।।
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वाह रे व्रज के भाग्य ! धन्य है व्रज, जिसने परमात्मा श्रीकृष्ण का सांनिध्य पाया, उसकी महत्ता का वर्णन कौन कर सकता है ?
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ऐसा सुख व्रजवासियों के अलावा अन्य किसी देवता को नसीब नहीं है। सभी व्रजवासियों के प्रेम के केन्द्र श्रीकृष्ण थे और भगवान श्रीकृष्ण का भी जीवन, कार्य और लीलाएं अपने प्यारे व्रजवासियों को सुखी और कृतार्थ करने के लिए थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है..
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ब्रजवासी बल्लभ सदा मेरे जीवन प्रान।
इन्हें न कबहूँ बिसारिहौं मोहि नंदबाबा की आन।।
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सारा संसार जिसे ‘अविनाशी परब्रह्म’ कहता है, वह इस व्रज के घर-घर का खिलौना है। यह व्रज तो तीनों लोक से न्यारा है जिसके हाथ में श्रीकृष्णरूपी सुख की राशि लग गयी है..
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जो सुख लेत सदा ब्रजवासी।
सो सुख सपने हू नहिं पावत,
जे जन हैं बैकुंठ-निवासी।।

ह्याँ घर घर ह्वै रह्यौ खिलौना,
जगत कहत जाको अविनासी।
नागरिदास विस्व तें न्यारी,
लगि गई हाथ लूट सुखरासी



भगवान के सभी नाम श्रेष्ठ हैं, सभी धाम पवित्र हैं, सभी स्वरूप ध्येय (ध्यान करने के लिए) हैं; फिर भी जो माधुर्य ब्रज-वृंदावन में है, वह वैकुण्ठ में नहीं है। माधुर्य की अधिकता के कारण ही ब्रज को वैकुण्ठ से श्रेष्ठ माना गया है। इससे सम्बधित एक लीला श्रीमद्भागवत और श्रीगर्ग संहिता में पढ़ने को मिलती है.. . एक बार नन्दबाबा ने एकादशी का व्रत किया और उसी दिन रात में द्वादशी लगने पर वह मध्य रात्रि में ही ग्वालों के साथ यमुना-स्नान के लिए चले गए। . नन्दबाबा को ज्ञात नहीं था कि यह असुरों की बेला है, इस समय स्नान के लिए यमुनाजल में प्रवेश नहीं करना चाहिए। (रात को दस बजे से प्रात: साढ़े तीन बजे तक स्नान का निषेध है।) . जल के देवता वरुण का एक सेवक उनको पकड़ कर वरुण लोक में ले गया। नन्दबाबा को डूबा हुआ जान कर ग्वाल-बालों में कोहराम मच गया। . सभी कहने लगे.. ‘कृष्ण ! तुम्हारा ही भरोसा है, तुम्हीं अपने पिता को वापिस ला सकते हो। सदा से ही तुमने हमारे सारे भय दूर किए हैं।’ . श्रीकृष्ण जानते थे कि ये वरुण के सेवक की लीला है। वे सबको सांत्वना देकर वरुण लोक गए। वहां उन्होंने वरुणपुरी के विशाल दुर्ग को जाते ही भस्म कर दिया। . भगवान श्रीकृष्ण को कुपित देख कर लोकपाल वरुण उनकी स्तुति करते हुए बोले.. . नम: श्रीकृष्णचन्द्राय परिपूर्णतमाय च। असंख्यब्रह्माण्डभृते गोलोकपतये नम:।। चतुर्व्यूहाय महसे नमस्ते सर्वतेजसे। नमस्ते सर्वभावाय परस्मै ब्रह्मणे नम:।। . अर्थात्.. श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है। परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डों का भरण-पोषण करने वाले गोलोकपति को नमस्कार है। चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट तेजोमय श्रीहरि को नमस्कार है। सर्वतेज:स्वरूप आप परमेश्वर को नमस्कार है। सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है। . वरुण देव ने कहा.. ‘मेरे किसी मूर्ख सेवक ने यह पहली बार आपकी गलती की है; उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए l।’ . लोकपाल वरुण की स्तुति सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गए और नन्दबाबा को जीवित लेकर ब्रजमण्डल में लौट आए। . नन्दबाबा ने वरुण लोक में देखा कि कैसे लोकपाल वरुण उनके पुत्र श्रीकृष्ण के चरणों में झुक-झुक कर प्रणाम कर रहे थे, उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। . अब नन्दबाबा गोप-गोपियों और अपने जाति-भाइयों को वरुण लोक में श्रीकृष्ण के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते.. ‘मैं वरुण लोक गया था, वहां वरुण देव ने कृष्ण को साक्षात् भगवान बताया। यह हमारा लाला नहीं है, ये तो साक्षात् भगवान है।’ . गोप-गोपियों ने जब यह सब सुना तो उनके मन में भी उत्सुकता जगी कि क्या भगवान श्रीकृष्ण हम लोगों को भी अपना वह मायातीत स्वधाम दिखलायेंगे ? . वे श्रीकृष्ण के पीछे पड़ गए कि.. ‘कन्हैया ! तुम यदि लोकपालों से पूजित साक्षात् भगवान हो तो हमें भी वैकुण्ठ लोक का दर्शन कराओ।’ . जिस जलाशय में भगवान श्रीकृष्ण ने अक्रूर को अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मह्रद में भगवान उन गोप-गोपियों को ले गए। . वहां उन लोगों ने उसमें डुबकी लगाई। श्रीकृष्ण ने कहा.. ‘अच्छा, तुम सब अब आंखें बंद करो।’ . अगले ही पल जैसे ही सबने अपनी आंखें खोलीं तो सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म लिए वनमाला से सुशोभित, असंख्य सूर्यों के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण शेषनाग की शय्या पर पौढ़े थे। ब्रह्मा आदि देवता उनकी सेवा कर रहे थे। . यह देखकर सीधे-सादे गोप-गोपियां आपस में कानाफूसी करने लगे.. ‘अरे, ये देखने में तो अपने कन्हैया से लगते हैं पर इनके चार हाथ हैं। . हमारे कन्हैया के पास तो शंख, चक्र, गदा, पद्म हैं नहीं, वह तो बांसुरी वाला है। हम सब उसके समीप ही खड़े हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके यह ऊंचे सिंहासन पर बैठ गया और हमसे एक क्षण के लिए बात तक नहीं करता।’ . वैकुण्ठ में ब्रज की तरह प्रेम की नहीं मर्यादा की प्रधानता है। गोप-गोपियों को इस तरह कानाफूसी करते देख कर भगवान के गदाधारी पार्षदों ने उनको डांटते हुए कहा.. . ‘अरे, वनचरो ! चुप हो जाओ। यहां भाषण न करो। क्या तुमने कभी श्रीहरि की सभा नहीं देखी है ? यहां सबके परमात्मा देवाधिदेव भगवान श्रीहरि विराजमान हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।’ . गोप-गोपियां तो गंवार ठहरे, आपस में कहने लगे.. ‘यहां तो बोलने की भी मनाही है, कन्हैया के पास भी ये पार्षद जाने नहीं देंगे। अरे भैया, हम को वैकुण्ठ में आकर बहुत पछताए। . यहां तो कन्हैया चार हाथों वाला हो गया है, और हमसे बहुत दूर बैठा है, हम उसके पास जा भी नहीं सकते हैं। . ब्रज से बढ़कर कोई दूसरा सुखदायक और श्रेष्ठ लोक नहीं है; क्योंकि ब्रज में तो कन्हैया हमारा सखा है, हमारे साथ गेंद खेलता, घोड़ा बनता। . यहां तो आफत ही आ गई, खड़े रहना भी मुश्किल है। वैकुण्ठ में आकर तो हम सच में बहुत पछता रहे हैं।’ . भगवान तो अंतर्यामी हैं। जब चतुर्भुज रूप श्रीकृष्ण ने देखा कि गोप-गोपियां दु:खी हो रहे हैं तो वे तुरंत उनके साथ ब्रज लौट आए। . ब्रज में आकर गोप-गोपियों ने भी चैन की सांस लेते हुए कहा.. वैकुण्ठ में जाकर हम क्या करेंगे ? वहां यमुना, गिरि गोवर्धन, वंशीवट, निकुंज, वृंदावन, नन्दबाबा-यशोदा और उनकी गायें.. कुछ भी तो नहीं हैं। . वहां ब्रज की मंद सुगंधित बयार भी नहीं बहती, न ही मोर-हंस कूजते हैं। वहां कन्हैया की वंशीधुन भी नहीं सुनाई देती। ब्रज और नन्दबाबा के पुत्र को छोड़कर हमारी बला ही वैकुण्ठ में बसे। . कहा करौं वैकुण्ठहि जाय। जहां नहिं वंशीवट यमुना गिरिगोवर्धन नन्द की गाय।। . जहाँ नहिं यह कुंज लताद्रुम मंद सुगंध बहत नहिं वाय। कोकिल हंस मोर नहीं कूजत ताको बसिवो काहि सुहाय।। . जहाँ नहिं धुन वंशी की बाजत कृष्ण न पुरवत अधर लगाय। प्रेम पुलक रोमांच न उपजत मन वच क्रम आवत नहिं धाय।। . जहाँ नहिं यह भूमि वृंदावन बाबा नन्द यशोमति माय। ‘गोविन्द’ प्रभु तजि नन्द सुवन को ब्रज तजि वहाँ मेरी बसै बलाय।। . वाह रे व्रज के भाग्य ! धन्य है व्रज, जिसने परमात्मा श्रीकृष्ण का सांनिध्य पाया, उसकी महत्ता का वर्णन कौन कर सकता है ? . ऐसा सुख व्रजवासियों के अलावा अन्य किसी देवता को नसीब नहीं है। सभी व्रजवासियों के प्रेम के केन्द्र श्रीकृष्ण थे और भगवान श्रीकृष्ण का भी जीवन, कार्य और लीलाएं अपने प्यारे व्रजवासियों को सुखी और कृतार्थ करने के लिए थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है.. . ब्रजवासी बल्लभ सदा मेरे जीवन प्रान। इन्हें न कबहूँ बिसारिहौं मोहि नंदबाबा की आन।। . सारा संसार जिसे ‘अविनाशी परब्रह्म’ कहता है, वह इस व्रज के घर-घर का खिलौना है। यह व्रज तो तीनों लोक से न्यारा है जिसके हाथ में श्रीकृष्णरूपी सुख की राशि लग गयी है.. . जो सुख लेत सदा ब्रजवासी। सो सुख सपने हू नहिं पावत, जे जन हैं बैकुंठ-निवासी।। ह्याँ घर घर ह्वै रह्यौ खिलौना, जगत कहत जाको अविनासी। नागरिदास विस्व तें न्यारी, लगि गई हाथ लूट सुखरासी

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