हम मानते हैं कि दुनिया में जो कुछ बाहर है वही सही है, लेकिन सच्चाई यह है कि जो अंतर्यात्र कर लेता है वही बाहर के असत्य को जान लेता है। आदमी सवाल करता है कि मैं कौन हूं? इसकेजवाब के लिए वह कहां-कहां नहीं भटकता, कितनी किताबें नहीं पढ़ता, लेकिन फिर भी उसे सही उत्तर नहीं मिल पाता है। आखिर क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि उसे यह आभास होता है कि मेरा शरीर मैं ही हूं और मेरे सिवाय किसी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं। ऐसे में वह धोखा खा जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह अपने शरीर के वाह्य आवरण को निहारने में ही अपनी सारी उम्र बिता देता है और फिर शिकायत करता है कि परमात्मा ने उसके साथ छल किया है। वह अपने शरीर के अंतर को समझने की कोशिश ही नहीं करता है, जबकि सच्चाई यह है कि परमपिता उसके हृदय में बैठे-बैठे मुस्करा रहे होते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि हमने स्वयं को जाना नहीं। हथौड़े ने चाबी से कहा, तुम्हारी तुलना में मैं अत्यधिक शक्तिमान हूं, फिर भी तुम इतनी आसानी से ताले को कैसे खोल लेते हो। चाबी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, तुम ताले के बाहरी सतह को स्पर्श करते हो, जबकि मैं उसके हृदय को छूती हूं। बात इतनी-सी है कि जो भीतर की यात्रा कर लेता है वही बाहर के असत्य को जान पाता है और यही साधना है।
पूरी साधना यात्र में देखना ही साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब हम अंतर्मन में देखते हैं, तब सोचते नहीं हैं और जब हमारा दिमाग सोचना बंद कर देता है तभी हमारा साक्षात्कार सत्य से होता है। जब आप सत्य का अनुभव कर लेते हैं तो साधना सिद्ध हो जाती है। अंधकार से लड़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि यह समझने की जरूरत है कि प्रकाश का अभाव ही अंधकार है। शांति के अभाव के कारण अशांति है, तो प्रेम के अभाव में द्वेष है। असल समस्या वैराग्य की है। भगवान बुद्ध ने जैसे ही बीमार, वृद्ध और मृतक को देखा तो उन्हें अपने जीवन से वैराग्य हो गया। क्या आपके साथ ऐसा होता है? शायद नहीं, क्योंकि आपको अपने जीवन से अथाह प्रेम है और आप हर हाल में सालों-साल तक जीते रहना चाहते हैं। साधना यात्र स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, अज्ञान से ज्ञान की ओर है। साधना का अर्थ है, आत्मा द्वारा आत्मा को देखना।