आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन पाँच महाभूतों को ही पंचतत्त्व कहते हैं, इन्हीं पंचतत्वों के गुण रूप इस शरीरों में इन्द्रियों सहित इनके देवताओं और इनके विषयों सहित ज्ञान को ही तत्त्वज्ञान कहते हैं।
इस तत्त्वज्ञान के बिना प्रकृति-पुरुष व अपने स्वरूप तथा वेद-शास्त्रों का अर्थ यथार्थ रूप से समझना असम्भव है; इसीलिये भगवान् श्रीकृष्णजी अर्जुन को भी तत्त्वज्ञान समझने के लिये संकेत करते हुए कहते हैं-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान् श्रीकृष्णजी ने कई जगह संक्षेप में तत्त्वज्ञान का वर्णन किया है जैसे-
भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है, और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान।
इसी अपरा-परा को ही अविद्या-विद्या, जड़-चेतन और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ भी कहा गया है जैसे-
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस नाम से कहा जाता है; और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।
जैसे खेत में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोये हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसीलिये इसका नाम “क्षेत्र” ऐसा कहा है।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है, वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है।
इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है। जैसे विभाग रहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक्-पृथक् की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों में एकीरूप से स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक्-पृथक् की भाँति प्रतीत होता है, इसी से देह में स्थित जीवात्मा को भगवान् ने अपना ‘सनातन अंश’ कहा है।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है। दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत् माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान्, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझ कर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के सङ्ग का सर्वथा त्याग करके परमपुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको ‘तत्त्व से जानना’ है।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।
वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है, और जिस कारण से जो हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन !
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेद मन्त्रों द्वारा भी विभाग पूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्ति युक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।
पाँच महाभूत, अहङ्कार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- इन्हीं इन्द्रियों, देवताओं और विषयों को ही अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत कहा गया है तथा इन सबको जानने वाले अपने स्वरूप को ही अधियज्ञ कहा है, निम्न श्लोक से पहले श्लोक में अविनाशी आत्मा को ही ब्रह्म कहा है और इस शरीर सहित इन्द्रियों को ही ‘अध्यात्म’ नाम से कहा गया है-
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवम्।
अधियज्ञोहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सभी पदार्थ अर्थात् सभी प्रकार के विषय अधिभूत हैं, इन्द्रियों के देवताओं को ही अधिदैव कहा है और हे देह धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अर्थात् अविनाशी हमारा अपना आत्मा ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ कहा है, तथा
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति- इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया।
।। कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम् ।।
Sky, air, fire, water and earth – these five great elements are called Panchatattva, the qualities of these five elements in this body including senses, their deities and knowledge including their subjects is called Tattvajnan.
Without this philosophy, it is impossible to truly understand the nature-man and his form and the meaning of the Vedic scriptures; That is why Lord Krishna, pointing out to Arjuna to understand the knowledge of the truth, says:
Know that by bowing down, by inquiring, by serving. They will teach knowledge to the wise and the seers of the truth.
Understand that knowledge by going to the Tatvdarshi wise ones, by bowing down to them well, by serving them and leaving hypocrisy and asking simple questions, those wise Mahatmas who know the divine element very well will teach you that Tatvgyan.
In Srimad Bhagavad Gita, Lord Krishna has also briefly described Tattvajnana in several places such as-
Earth, water, fire, air, sky, mind and intellect. Ego is My nature, divided into eight parts.
This is the infinite, and know this to be another Nature of Mine, the Supreme. O mighty-armed one by whom this world is sustained by living beings.
Earth, water, fire, air, sky, mind, intelligence and ego – thus it is my nature divided into eight types. This is the placenta i.e. my root nature with eight types of distinctions, and O mighty-armed! Other than this, by which this whole world is sustained, know my living nature Para i.e. conscious nature.
This Apara-Para has also been called Avidya-Vidya, Jada-Chetan and Kshetra-Kshetragya like-
This body, O Kaunteya, is called the field. He who knows this is called the knower of the field by those who know it.
Hey Arjun! This body is called by this name ‘Kshetra’; And the one who knows this, is called ‘Kshetragya’ by the name of those who know its essence.
Just as the fruits of the seeds sown in the field appear in due course of time, in the same way, the results of the seeds of the rituals of the deeds sown in it appear on time, that is why it is called “Kshetra”.
And know Me as the knower of the field in all fields, O Bharatha. That knowledge of the field and the knower of the field is considered by Me to be knowledge.
Hey Arjun! You know Me as the Kshetragyaan in all fields, that is, the living soul, and the Kshetra-Kshetragyaan, that is, to know Prakriti and Purush from its essence, that is my opinion – this is my opinion.
This soul in this body is an eternal part of me. Just as the vast space appears to be separate in its parts even though it is situated without division, similarly the Supreme Soul appears to be separate in spite of being present in all the ghosts, this is why God has called the living soul in the body as his ‘Sanatan’. Where is Ansh?
Thus the man and the nature with the qualities which man knows from the essence. By understanding that the entire visible world is transient, perishable, rooted and impermanent because it is the work of Maya and that the soul is eternal, conscious, unchanging and indestructible and an eternal part of the pure enlightened, Sachchidananda-dense Supreme Self The name of being eternally situated in the Supreme Personality of Godhead is ‘knowing Him by essence’
That field and what it is like and what it is transforming and from what it is. Hear from me in brief what he is and what his powers are.
The field which is like and which has disorders, and due to which it has happened; And also that Kshetragyaan who has influence – hear all that from me in brief!
It has been sung in many ways by the sages in various verses separately. and by the words of the Brahma Sutras which are reasonable and determined.
This principle of Kshetra and Kshetragya has been told by the sages in many ways and has also been told in detail by various Veda mantras and also by the verses of Brahmasutra with well decided logic.
The great beings are ego, intellect and the unmanifest. The senses are eleven and the five perceivable by the senses.
Five Mahabhutas, ego, intelligence and basic nature as well as ten senses, one mind and objects of five senses i.e. sound, touch, form, taste and smell – these senses, deities and subjects are called Adhyatma, Adhidaiva and Adhibhuta and these The one who knows all has been called Adhiyagya, the imperishable soul itself has been called Brahman in the first verse, and the senses including this body have been called ‘spiritual’.
The supernatural is the perishable nature and the Purusha is the superdivine. I alone am the Adhi-yajna here in this body, O best of embodied beings.
All substances of the origin-destruction religion, that is, all types of subjects are overpowered, the deities of the senses are called Adhidaiva and O Arjuna, the best of body holders! In this body, I am Vasudev, that is, our own self, the imperishable, is called the Adhiyagya in the inner form, and
Desire, hate, pleasure, pain, aggregation, consciousness, patience. This field has been briefly described with its transformations.
Desire, aversion, pleasure, pain, mass of the gross body, consciousness and dhriti – thus this field with its disorders has been briefly stated.
।। I worship Krishna, the Guru of the universe.