[08]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।*                

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

*वंश-परिचय*

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।

सचमुच में माता होना तो उसी का सार्थक कहा जा सकता है, जिसके गर्भ से भगवत्-भक्त पुत्र का जन्म हुआ हो। जन्म और मृत्यु ही जिसका स्वरूप है ऐसे इस परिवर्तनशील संसार में गर्भधारण तो प्रायः सभी योनि की माताएँ करती हैं, किन्तु सार्थक गर्भ उसी का कहा जा सकता है, जिसके गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र के ऊपर हरि-भक्तों की मण्डली में हर्ष-ध्वनि होने लगे। जिसके दर्शनमात्र से भक्तों के शरीर में स्तम्भ, स्वेद, रोमांच और स्वरभंग आदि सात्त्विक भावों का उदय आप-से-आप होने लगे अथवा जिसके ऊपर विद्वान अथवा शूर-वीरों की सभा में सभी लोगों की समान-भाव से उसी के ऊपर दृष्टि पड़े। परस्पर में लोग उसी के सम्बन्ध में काना-फूँसी करें, असल में वही पुत्र कहलाने के योग्य है ओर उसे गर्भ में धारण करने वाली माता ही सच्ची माता है। वैसे तो शूकरी अथवा कूकरी भी साल में दस-दस, बीस-बीस बच्चे पैदा करती हैं, किन्तु उनका गर्भ धारण करना केवल मात्र अपनी वासनाओं की पूर्ति का विकारमात्र ही है। इसी भाव को लेकर कोई कवि बड़ी ही मार्मिक भाषा में माता को उपदेश करता हुआ कहता है-

जननी जने तो भक्त जनि, या दाता या शूर।

नाहिं तो जननी बाँझ रह, क्यों खोवे है नूर।।

भाग्यवती शची माता ने ही यथार्थ में माता-शब्द को सार्थक बनाया, जिसके गर्भ से विश्वरूप और श्रीकृष्ण चैतन्य-जैसे दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए। श्रीकृष्णचैतन्य अथवा महाप्रभु को पैदा करके तो वे जगन्माता ही बन गयीं। गौरांग-जैसे महापुरुष को जिन्होंने गर्भ में धारण किया हो उन्हें जगन्माता का प्रसिद्ध पद प्राप्त होना ही चाहिये।

महाप्रभु गौरांगदेव के पूर्वज श्रीहट्ट (हिलहट) निवासी थे। यह नगर आसाम प्रान्त में है और बंगाल से सटा हुआ ही है, वर्तमानकाल में यह आसाम प्रान्त का एक सुप्रसिद्ध जिला है। इसी श्रीहट्ट-नगर में भारद्वाजवंशीय परम धार्मिक और विद्वान उपेन्द्र मिश्र नाम के एक तेजस्वी और कुलीन ब्राह्मण निवास करते थे। धर्मनिष्ठ और स्वकर्मपरायण होने के कारण उपेन्द्र मिश्र के घर खाने-पीने की कमी नहीं थी। उनकी गुजर साधारणतया भलीभाँति हो जाती थी। उन भाग्यशाली ब्राह्मण के सात पुत्र थे। उनके नाम कंसारि, परमानन्द, पद्मनाभ, सर्वेश्वर, जगन्नाथ, जनार्दन और त्रैलोक्यनाथ थे। इनमें से पण्डित जगन्नाथ मिश्र को ही गौरांग के पूज्य पिता होने का जग-दुर्लभ सुयश प्राप्त हो सका।

पण्डित जगन्नाथ मिश्र अपने पिता की अनुमति से संस्कृत विद्या पढ़ने के लिये सिलहट से नवद्वीप में आये और पण्डित गंगादास जी की पाठशाला में अध्ययन करने लगे। इनकी बुद्धि कुशाग्र थी, पढ़ने-लिखने में ये तेज थे इसलिये अल्पकाल में ही, इन्होंने काव्यशास्त्रों का विधिवत अध्ययन करके पाठशाला से ‘पुरन्तर’ की पदवी प्राप्त कर ली।

इनके रूप-लावण्य तथा विद्या-बुद्धि से प्रसन्न होकर नवद्वीप के प्रसिद्ध पण्डित श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती ने अपनी ज्येष्ठा कन्या शची देवी का इनके साथ विवाह कर दिया। पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती भी नवद्वीप निवासी नहीं थे। इनका आदिस्थान फरीदपुर के जिले में मग्डोवा नामक एक छोटे-से ग्राम में था। ये भी विद्याध्ययन के निमित्त नवद्वीप आये थे और पढ़-लिखकर फिर यहीं रह गये। इनका घर ‘बेलपुकुरिया’ में काजीपाड़ा के समीप था। इनके यज्ञेश्वर और हिरण्य दो पुत्र और दो कन्याएँ थीं। छोटी कन्या का विवाह श्री चन्द्रशेखर आचार्यरत्न के साथ हुआ था और बड़ी कन्या जगन्माता शची देवी का पण्डित जगन्नाथ मिश्र के साथ। रूपवती और कुलवती पत्नी को पाकर पुरन्दर महाशय परम सन्तुष्ट हुए और फिर सिलहट न जाकर वहीं मायापुर में घर बनाकर रहने लगे। मायापुर में और भी बहुत-से सिलहटनिवासी ब्राह्मण रहते थे।

पण्डित जगन्नाथ मिश्र भी वहीं रहने लगे। मायापुर नवद्वीप का ही एक मुहल्ला है। आजकल जो नगर नवद्वीप के नाम से प्रसिद्ध है, वह तो उस समय ‘कुलिया’ नामक ग्राम था। पुराना नवद्वीप तो कुलिया के सामने गंगा जी के उस पार पूर्व किनारों पर अवस्थित था, जो आजकल बामनपूकर नाम से पुकारा जाता है। कहा जाता है कि प्राचीन नवद्वीप की परिधि 16 कोस की थी, उसमें अन्तःद्वीप, सीमन्तद्वीप, गोद्रुमद्वीप, मध्यद्वीप, कोलद्वीप, ऋतुद्वीप, जन्हूद्वीप, मोदद्रुमद्वीप और रुद्रद्वीप ये 9 द्वीप थे। इन नवों को मिलाकर ही नवद्वीप कहते थे। मायापुर जहाँ पर पण्डित जगन्नाथ मिश्र रहते थे, वह मध्यद्वीप के अन्तर्गत था, अब उस स्थान का पता भी नहीं है कि कहाँ गया। भगवती भागीरथी के गर्भ में वे सभी प्राचीन स्थान विलीन हो गये, केवल महाप्रभु की कीर्ति के साथ उनके नाममात्र ही शेष रह गये हैं। पण्डित जगन्नाथ मिश्र अपनी सर्वगुणसम्पन्ना पत्नी के साथ सुखपूर्वक नवद्वीप में रहने लगे।

शची देवी के गर्भ से एक-एक करके 8 कन्याओं का जन्म हुआ और वे अकाल में ही कालकवलित बन गयीं। इससे मिश्र-दम्पति का गार्हस्थ्य-जीवन कुछ चिन्तामय और दुःखमय बना हुआ था। गृहस्थी के लिये सन्तानहीन होना जितना कष्टप्रद है, उससे भी अधिक कष्टप्रद सन्तान होकर उसका जीवित न रहना है, किन्तु इस धर्मप्राण-दम्पति का यह दुख और अधिक कालतक न रह सका। थोडे़ ही दिनों के अनन्तर शची देवी के गर्भ से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ, जिसका नाम मिश्र जी ने विश्वरूप रखा। विश्वरूप सचमुच में ही विश्वरूप थे। माता-पिता को इस अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त पुत्र को पाकर परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। चन्द्रमा की कलाओं के समान विश्वरूप धीरे-धीरे बड़े होने लगे। इसप्रकार विश्वरूप की अवस्था नव दस वर्ष की हुई होगी कि तभी माघ-मास में शची देवी के फिर गर्भ रहा। बस, इसी गर्भ से महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रादुर्भाव हुआ।

*क्रमशः अगला पोस्ट*  [09]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक *



, Srihari:..*

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

* Genealogy *

The family is sacred, the mother is satisfied and the earth is holy because of him.

In fact, being a mother can be said to be meaningful only for that person, from whose womb a son who is a devotee of God is born. In this ever-changing world, whose form is birth and death, pregnancies are done by mothers of almost all sexes, but only that one can be said to have a meaningful pregnancy, the son born from whose womb causes a sound of rejoicing in the gathering of Hari-devotees. Engaged. The very sight of whom, in the body of the devotees, sattvik feelings such as stambh, sweating, excitement and dissonance etc. start rising automatically or on whom all the people in the assembly of scholars or brave-heroes look upon him with equal intent. People whisper to each other about him, in fact he is worthy of being called a son and the mother who carries him in her womb is the true mother. By the way, sows or kukri also give birth to ten, twenty-twenty children in a year, but their conception is just a disorder to fulfill their desires. Regarding this sentiment, a poet exhorting the mother in a very poignant language says-

If the mother is known then the devotee is the mother, or the giver or the brave.

Otherwise, the mother remains barren, why should she lose her light.

Bhagyavati Sachi Mata only really made the word mother meaningful, from whose womb two sons like Vishwaroop and Shri Krishna Chaitanya were born. By giving birth to Shri Krishna Chaitanya or Mahaprabhu, she became the mother of the world. Those who have conceived a great man like Gauranga must get the famous post of Jaganmata.

The ancestors of Mahaprabhu Gaurangdev were residents of Srihatt (Hilhat). This city is in Assam province and is adjacent to Bengal, at present it is a famous district of Assam province. In this Srihatta-nagar, a brilliant and noble Brahmin named Upendra Mishra, the most religious and scholar of Bhardwaj dynasty, used to reside. There was no dearth of food and drink at Upendra Mishra’s house because of being pious and self-oriented. His passing usually went well. That fortunate Brahmin had seven sons. Their names were Kansari, Paramananda, Padmanabha, Sarvesvara, Jagannath, Janardana and Trailokyanath. Out of these only Pandit Jagannath Mishra could get the rare fortune of being the revered father of Gauranga.

Pandit Jagannath Mishra came to Navadweep from Sylhet to study Sanskrit with the permission of his father and started studying in the school of Pandit Gangadas ji. His intelligence was sharp, he was sharp in reading and writing, so in a short time, he studied poetic literature and got the title of ‘Purantar’ from the school.

Pleased with his beauty and learning, the famous Pandit Shrinilambar Chakraborty of Navadweep married his eldest daughter Sachi Devi to him. Pandit Nilambar Chakraborty was also not a resident of Navadweep. His origin was in a small village named Magdova in the district of Faridpur. They had also come to Navadvipa for their studies and remained here after completing their studies. His house was near Kazipada in ‘Belpukuria’. He had two sons and two daughters, Yajneshwar and Hiranya. The younger daughter was married to Shri Chandrashekhar Acharyaratna and the elder daughter Jaganmata Sachi Devi was married to Pandit Jagannath Mishra. Purandar Mahasaya was extremely satisfied after getting Rupvati and Kulvati wife and then instead of going to Sylhet, he started living there in Mayapur. Many other Brahmins from Sylhet also lived in Mayapur.

Pandit Jagannath Mishra also started living there. Mayapur is a locality of Navadweep. The city which is now famous as Navadweep was a village named ‘Kuliya’ at that time. The old Navadweep was situated on the other side of Ganga ji in front of Kulia, which is nowadays called by the name of Bamanpukar. It is said that the circumference of the ancient Navadweep was 16 kos, in which there were 9 islands Anta-Dweep, Simant-Dweep, Godrum-Dweep, Madhya-Dweep, Kol-Dweep, Ritudweep, Janhu-Dweep, Moddrum-Dweep and Rudradweep. Together these Navas were called Navadweep. Mayapur, where Pandit Jagannath Mishra used to live, was under Madhyadeep, now it is not even known where he went. All those ancient places have disappeared in the womb of Bhagwati Bhagirathi, only their names are left with the fame of Mahaprabhu. Pandit Jagannath Mishra started living happily in Navadweep with his all-rounded wife.

One by one 8 girls were born from the womb of Shachi Devi and they became Kalakavalit in famine itself. Due to this, the domestic life of the mixed couple became somewhat anxious and sad. As much as it is painful for a householder to be childless, it is even more painful for him not to survive having children, but this sorrow of this pious couple could not last for long. After a few days, a son was born from the womb of Sachi Devi, whom Mishra ji named Vishwaroop. Vishwaroop was really Vishwaroop. The parents were overjoyed to have this unique handsome son. Like the phases of the moon, the world forms started increasing gradually. In this way, the state of Vishwaroop must have been ten years old when Shachi Devi got pregnant again in the month of Magh. Simply, Mahaprabhu Chaitanyadev emerged from this womb.

*Next post respectively* [09]

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[Book by Shri Prabhudatta Brahmachari published by Geetapress, Gorakhpur *

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