[109]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
दक्षिण के शेष तीर्थों में भ्रमण

महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम।
नि:श्रेयसाय भगवन कल्‍पते नान्‍यथा क्‍वचित।।

दक्षिण मथुरा से चलकर महाप्रभु पाण्‍डुदेश में ताम्रपर्णीं, नयत्रिपदी, चिवड़तला, तिलकांची, गजेन्‍द्रमोक्षण, पानागड़ि, चामतापुर, श्रीवैकुण्‍ठ, मलयपर्वत, धनुस्‍तीर्थ, कन्‍याकुमारी आदि तीर्थों में होते हुए और अपने अमोघ दर्शनों से लोगों को कृतार्थ करते हुए मल्‍लारदेश में पहुँचे। उधर भट्टथारी नाम से साधुवेषधारी लोगों का एक दल होता है। वे लोग एक स्थान पर नहीं रहते हैं। उसका वेष साधुओं का-सा होता है, किंतु उसका व्यवहार अच्छा नहीं होता है।

जिस प्रकार भूमरिया या बंजारे अपने डेरा-तम्‍बू लादकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार वे लोग भी एक स्‍थान से दूसरे स्‍थानों में घूमा करते हैं। उनमें से बहुत से तो रात्रि में चोरी भी कर लेते हैं। भूली भटकी स्त्रियों को वे बहकाकर अपने साथ रख लेते हैं। इस प्रकार वे अपने दल को बढ़ाया करते हैं। महाप्रभु रात्रि में उनके समीप ही ठहरे थे। उन लोगों ने महाप्रभु के सेवक कृष्‍णदास को बहका दिया। उसे सुन्‍दर स्‍त्री और धन का लोभ दिया। उन्‍होंने उसे भाँति-भाँति से समझाया– ‘तू इस विरक्‍त साधु के पीछे पीछे क्‍यों मारा मारा फिरता हैं, न भोजन का ठीकाना और न रहने की ही सुविधा। हमारा चेला बन जा। हमारे यहाँ अनेकों सुंदर-सुंदर स्त्रियाँ है, जिसे चाहे रखना, खाने पीने की हमारे यहाँ कमी ही नहीं। रोज हलुआ, मोहनभोग घुटता हैं। बेचारा अनपढ़ सीधा सादा गरीब ब्राह्मण उनकी बातों में आ गया। वह महाप्रभु को छोड़कर धीरे से उठकर उन लोगों के साथ चला गया।

जब महाप्रभु को यह बात मालूम हुई तो वे उन लोगों के पास गये और उनसे सरलतापूर्वक कहने लगे- ‘भाइयो ! आपने यह अच्‍छा काम नहीं किया है। मेरे साथी को आपने बहकाकर अपने यहाँ रख लिया है, ऐसा करना आप लोगों के लिये उचित नहीं है, आप भी संन्‍यासी हैं और मैं भी संन्‍यासी हूँ। आपके साथ बहुत-से आदमी हैं, मेरे पास तो यह अकेला ही है, इसलिये मेरे आदमी को कृपा करके आप दे दें नहीं तो इसका परिणाम अच्‍छा न होगा।’

महाप्रभु की ऐसी बात सुनकर वे वेषधारी संन्‍यासी प्रभु के ऊपर प्रहार करने को उद्यत हो गये, किन्‍तु प्रभु के प्रभाव से प्रभावान्वित होकर वे भाग गये और महाप्रभु कृष्‍णदास को उन लोगों से छुड़ाकर आगे के लिये चले। वहाँ से चलकर महाप्रभु पयस्विनी नामक नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ उन्‍हें प्राचीन लिखी हुई ब्रह्मसंहिता मिल गयी, उस अदभुत ग्रन्‍थ को लेकर प्रभु श्रृंगेरीमठ में पहुँचे। यह भगवान शंकराचार्य का दक्षिण दिशा का प्रधान मठ है। भगवान शंकराचार्य ने वेद शास्‍त्रों की रक्षा और धर्म प्रसार के निमित्त भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठ स्‍थापित किये। उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम के समीप जोशीमठ, पूर्व में जगन्‍नाथपुरी में गोवर्धनमठ, द्वारिकापुरी में शारदामठ और दक्षि‍णपुरी में श्रंगेरीमठ। इनमें से जोशी मठ को छोड़कर शेष तीनों मठों के मठाधीश आज तक शंकराचार्य के ही नाम से पुकारे जाते हैं। महाप्रभु का सम्‍बन्‍ध भी दशनामी सम्‍प्रदाय के संन्‍यासियों से ही था।

श्रृंगेरीमठ से चलकर महाप्रभु मत्‍स्‍यतीर्थ होते हुए उडूपी नामक स्‍थान में मध्‍वाचार्य के मठपर पहुँचे और वहाँ गोपाल भगवान के दर्शन किये। वहाँ के तत्त्ववादियों के साथ प्रभु शास्‍त्रविचार करते हुए दो तीन दिन तक रहे। वहाँ से फाल्‍गुतीर्थ, त्रिकूप, पम्‍पापुर, सुर्पारक, कोल्‍हापुर आदि तीर्थ-स्‍थानों में होते हुए पण्‍ढरपुर में आये। यहाँ पर एक ब्राह्मण ने महाप्रभु का निमन्‍त्रण किया। महाप्रभु उसका निमन्‍त्रण स्‍वीकार करके उसके यहाँ भि‍क्षा करने गये। उसने बड़ी श्रद्धाभक्ति से प्रभु को भिक्षा करायी। बातों ही बातों में उसने कहा- ‘यहाँ पर एक बड़े ही योग्‍य और भगवदभक्त महात्‍मा ठहरे हुए हैं।

सम्‍भवतया आपने श्रीमन्‍माधवेन्‍द्रपुरी महाराज का नाम तो सुना ही होगा, वे महात्‍मा उन्‍हीं के शिष्‍य हैं, उनका नाम श्रीरंगपुरी है। इतना सुनते ही प्रभु प्रेम में विभोर हो गये। उन्‍होंने जल्‍दी से कहा –‘विप्रवर! आप मुझे से श्रीरंगपुरी महाराज के समीप ले चलें।’

प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके वह ब्राह्मण प्रभु को साथ लेकर रंगपुरी महाराज के समीप पहुँचा। प्रभु ने दूर से ही पुरी महाराज को देखकर उनके चरणों में साष्‍टांग प्रणाम किया। पुरी महाराज ने प्रणत हुए प्रभु को उठाकर गले से लगाया और उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगा- ‘आपकी आकृति से ही प्रतीत हो रहा है कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। संन्‍यासी होकर भी इतनी नम्रता, यह तो महान आश्‍चर्य की बात है। इतनी सरलता, इतनी भक्ति और ऐसे प्रेम के सात्त्विक विकार मेरे गुरुदेव के कृपापात्र संन्‍यासियों को छोड़कर और किसी संन्‍यास में नहीं पाये जाते। आप अपना परिचय मुझे दीजिये।’

प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही विनीत भाव से कहा- ‘संन्‍यासियों में भक्तिभाव के प्रवर्तक भगवान माधवेन्‍द्रपुरी के प्रधान शिष्‍य श्रीमत ईश्‍वरपुरी महाराज मेरे मन्‍त्र-दीक्षा-गुरु हैं। संन्‍यास के गुरु मेरे श्रीमत केशवभारती महाराज हैं।’

श्रीरंगपुरी महाराज ने पूछा- ‘आपकी पूर्वाश्रम की जन्‍मभूमि कहाँ है?’

प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘इस शरीर का जन्‍म गौड़देश में भगवती भागीरथी के तट पर नवद्वीप नामके नगर में हुआ है।

प्रसन्‍नता प्रकट करते हुए पुरी महाराज कहने लगे- ‘ओहो ! तब तो आप अपने बड़े ही निकट सम्‍बन्‍धी हैं। श्रीअद्वैताचार्य को तो आप जानते ही होंगे, मैं अपने गुरुदेव के साथ पहले नवद्वीप गया था। वहाँ पर जगन्‍नाथ मिश्र नामके एक बड़े श्रद्धालु ब्राह्मण हैं, उनकी पत्‍नी तो साक्षात अन्‍नपूर्णादेवी ही हैं। मैंने एक दिन उनके घर भिक्षा की थी। उस ब्राह्मणी ने मुझे बड़े ही प्रसन्‍नता के सहित भिक्षा करायी थी। उनका एक सर्वगुणसम्‍पन्‍न पुत्र संन्‍यासी हो गया था। वह तो बड़ा ही होनहार था। किन्‍तु दैव की गति बड़ी विचित्र होती है, संन्‍यास लेने के दो वर्ष बाद, उसने यहीं पर शरीर त्‍याग दिया। उसका संन्‍यास का नाम शंकरारण्‍य था।’

इस बात को सुनकर प्रभु कुछ विस्मित से हो गये। उनके दोनों स्‍वच्‍छ और बड़े बड़े कमल के समान नेत्रों में आप से आप ही जल भर आया। रुँधे हुए कण्‍ठ से उन्‍होंने कहा- ‘भगवन ! वे महाभाग शंकरारण्‍य स्‍वामी मेरे पूर्वाश्रम के अग्रज थे।’

इस बात को सुनते ही पुरी महाराज ने प्रभु का फिर आलिंगन किया और कहने लगे- ‘क्‍या आप सब के सब संन्‍यासी ही हो गये या घर पर कोई और भी भाई है?’

प्रभु ने नीचे को सिर करके धीरे से कहा- ‘घर पर तो वे ही श्रीहरि हैं, जिनका आपने पहले नाम लिया। मेरे पूर्वाश्रम के पिता तो परलोकवासी हो गये। हम दो ही भाई थे, सो दोनों ही आपके चरणों की शरण में आ गये। अब घर पर वृद्धा माता ही है।’

पुरी ने कहा- ‘भाई आपका ही कुल धन्‍य हैं, आपके ही माता पिता का पुत्र उत्‍पन्न करना सार्थक हुआ।’

इस प्रकार दोनों में और भी परमार्थ सम्‍बन्‍धी बहुत सी बातें होती रहीं। दो तीन दिन तक दोनों ही साथ साथ रहे। अन्‍त में पुरी महाराज तो द्वारिका के लिये चले गये और महाप्रभु श्री विठ्टलनाथ जी के दर्शन करके आगे बढ़े।’

पण्‍ढरपुर में भीमा नदी में स्‍नान करके महाप्रभु कृष्‍णवीणा नदी के किनारे आये। वहाँ ब्राह्मणों के समीप से प्रभु ने श्रीविल्‍वमंगलकृत ‘कृष्‍णकर्णामृत’ नामक अपूर्व रसमय ग्रन्‍थ का संग्रह किया। ब्रह्मसंहिता और कृष्‍णकर्णामृत इन दोनों पुस्‍तकों को यत्‍नपूर्वक साथ लिये हुए प्रभु ताप्‍ती नदी के निकट आये। वहाँ पुण्‍यतोया ताप्‍तीनदी में स्‍नान करके महिष्‍मतीपुर होते हुए वे नर्मदा जी के किनारे आये, वहाँ ऋष्‍यमूक पर्वत को देखते हुए, दण्‍डकारण्‍य के समस्‍त तीर्थों को पावन करते हुए सप्‍तलाल तीर्थ का उद्धार किया। महाप्रभु ने नीलगिरी प्रदेश में भ्रमण करते समय असंख्‍य लोगों को श्रीकृष्‍ण प्रेम में उन्‍मत्त बनाया। इसी प्रकार भ्रमण करते हुए गुर्जरी नगर में आकर उपस्थित हुए। यहाँ पर एक अर्जुन नाम के शुष्‍क वेदान्‍ती पण्डित को प्रभु ने श्रीकृष्‍ण तत्त्व समझाया और उसे प्रेम प्रदान किया।

गुर्जरी नगर में महाप्रभु बीजापुर के पार्वत्‍य प्रदेश में भ्रमण करते हुए और अनेक पुण्‍य तीर्थों में दर्शन, स्‍नान, मार्जन और आचमन करते हुए पूर्ण नगर में पहुँचे। वहाँ एक सरोवर के निकट प्रभु ने वास किया। वह नगर बड़ा ही समृद्धशाली था, उसमें संस्‍कृत के बहुत से विद्वान पण्डित थे और अनेक पाठशालाएँ थीं। महाप्रभु को उन दिनों श्रीकृष्‍ण विरह का अत्‍यन्‍त ही प्राबल्‍य था, वे सरोवर के तीर पर बैठ हुए जोरों से रोते हुए चिल्‍ला रहे थे ‘हाँ प्राणनाथ! हा हृदयेश्‍वर! तुम कहाँ हो, दर्शन दो। प्राणवल्‍लभ! शीघ्र आओ, तुम कहाँ छिपे हो।’ प्रभु के करुण क्रन्‍दन को सुनकर बहुत से नर नारी एकत्रित हो गये। उनमें कुछ अपने को तत्त्वज्ञानी मानने वाले शुष्‍क तार्किक भी थे। प्रभु अत्‍यन्‍त ही दीनभाव से उनसे पूछने लगे- ‘आप कृपा करके मेरे प्राणनाथ का पता जानते हों तो बताइये। वे कहाँ है, मुझे छोड़कर वे कहाँ छिपे गये?’

उन पण्डितों में से एक अत्‍यन्‍त ही शुष्‍क हृदयवाला पण्डित बोल उठा- ‘तेरे कृष्‍ण इस जल में छिपे हैं।’ बस, इतना सुनना था कि महाप्रभु उसी क्षण छलाँग मारकर जल में कूद पड़े। लोगों के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा। सर्वत्र हाहाकार मच गया। बहुत से पुरुष उसी क्षण सरोवर में कूद पड़े और प्रभु को जल से बाहर निकाला। इस पर सभी लोग उस पण्डित को धिक्‍कार देने लगे। वह भी अपना सा मुँह लेकर मारे शर्म के उसी क्षण चला गया।’

यहाँ से चलकर प्रभु भोलेश्‍वर होते हुए जिजूरी नगर में पहुँचे। यहाँ पर खाण्‍डवादेव का बड़ा भारी मन्दिर है। यहाँ एक बड़ी ही बुरी प्रथा है। जिस कन्‍या का विवाह नहीं होता उसे माता-पिता देवता के अर्पण कर देते हैं और उसे देव दासी कहते हैं। उनमें अधिकांश दुश्‍चरित्रा और व्‍याभिचारिणी होती हैं।

महाप्रभु ने जब यह बात सुनी तब वे स्‍वयं इन अभागी पतिता नारियों को देखने के लिये खाण्‍डवादेव के मन्दिर में गये। प्रभु ने अपनी आँखों से उन अभागिनियों की दुर्दशा देखी। उनकी दयनीय दशा देखकर दयामय श्रीचैतन्‍य उनसे बोले- ‘देवियो ! तुम धन्‍य हो, तुम्‍हारा ही जीवन सार्थक है, अन्‍य स्त्रियों के पति तो हाड़-मांस के पुतले नश्‍वर शरीर वाले मनुष्‍य होते हैं, किन्‍तु तुम्‍हारे पति तो साक्षात श्रीहरि हैं। गोपियों ने श्रीहरि को पति बनाने के लिये असंख्‍यों वर्ष तप किया था। असल में सच्‍चे पति तो वे ही नन्‍दनन्‍दन हैं, इसलिये तुम सब प्रकार से मन लगाकर श्रीकृष्‍ण नाम का ही की‍र्तन किया करो। श्रीहरि के ही नाम का सदा स्‍मरण किया करो। उनका नाम पतितपावन है, सच्‍चे हृदय से जो एक बार भी यह कह देता है कि मैं तुम्‍हारी शरण हूँ, तो वे सभी पापों को क्षमा कर देते हैं।

श्रीभगवन्‍नाम-संकीर्तन में अनन्‍त शक्ति है।’ यह कहकर महाप्रभु स्‍वयं अपने दोनों बाहुओं को उठाकर उच्‍च स्‍वर से हरि-नाम-संकीर्तन करने लगे। उस समय प्रेम के भावावेश में उनके दोनों नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, शरीर के रोम खड़े हुए थे, रोमकूपों में से पसीना फब्‍बारे की तरह निकल रहा था। उनकी ऐसी दशा देखकर सभी देव दासियाँ अपने नारी-सुलभ कमनीय कण्‍ठ से-

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्‍ण हरे कृष्‍ण कृष्‍ण कृष्‍ण हरे हरे।।

इस महामन्‍त्र का उच्‍च स्‍वर में कीर्तन करने लगीं। सम्‍पूर्ण देवालय महामन्‍त्र की ध्‍वनि से गूँजने लगा। उस संकीर्तन की बा़ढ़ में उन देव दासियों के समस्‍त पाप धुलकर बह गये, वे भगवन्‍नाम के प्रभाव से निष्‍पाप बन गयीं। उनमें से जो प्रधान देव-दासी थी, उसका नाम इन्दिरा था, वह आकर प्रभु के चरणों में गिर पड़ी और अत्‍यन्‍त ही दीनभाव से कहने लगीं- ‘प्रभो! व्‍यभिचार करते करते मेरी यह अवस्‍था हो गयी। अब ऐसी कृपा कीजिये कि श्रीहरि के चरणों में भक्ति हो।’ प्रभु ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा-‘देवि ! श्रीकृष्‍ण दयामय हैं, वे दीनों पर अत्‍यन्‍त ही शीघ्र कृपा करते हैं। तुम उनका ही भजन करो, उन्‍हीं के शरण में जाओ, तुम्‍हारा कल्‍याण होगा।’

प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके उसने अपना सर्वस्‍व दीन-हीन गरीबों को बाँट दिया और स्‍वयं भिखारिणी का वेष बनाकर मन्दिर के द्वार पर भिक्षान्‍न से निर्वाह करती हुई, अहर्निश श्रीकृष्‍ण-कीर्तन में मग्‍न रहने लगी। और भी कई देव दासियों ने उसके पथ का अनुसरण किया।

क्रमशः अगला पोस्ट [110]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Visits to the remaining shrines in the South

It is a great deviation for the depressed minds of householders O Lord, nothing else is conceivable for the ultimate good.

Moving from South Mathura, Mahaprabhu reached Mallardesh after visiting the pilgrimages of Tamraparni, Nayatripadi, Chivadtala, Tilakanchi, Gajendramokshan, Panagari, Chamtapur, Srivaikunth, Malayparvat, Dhanustirtha, Kanyakumari etc. in Pandudesh and making people happy with his unfailing visions. On the other hand, there is a group of people dressed as saints by the name of Bhattathari. They do not live in one place. His dress is like that of saints, but his behavior is not good.

Just as the Bhumarias or the Banjaras move around carrying their tents, in the same way they also move from one place to another. Many of them even commit thefts at night. They seduce the forgotten women and keep them with them. In this way they increase their team. Mahaprabhu stayed near him in the night. They misled Krishnadas, the servant of Mahaprabhu. Gave him the greed of beautiful women and money. They explained to him in various ways- ‘Why do you keep running behind this disinterested monk, neither the facility of food nor the facility of living. Become our disciple. We have many beautiful women here, whomever you want to keep, there is no shortage of food and drink here. Everyday Halua, Mohanbhog gets choked. The poor illiterate simple poor Brahmin came to his words. He got up slowly leaving Mahaprabhu and went with those people.

When Mahaprabhu came to know about this, he went to those people and simply said to them – ‘Brothers! You have not done this well. You have seduced my friend and kept him at your place, it is not proper for you to do this, you are also a sannyasin and I am also a sannyasin. There are many men with you, I have only this one, so please give it to my man otherwise the result will not be good.’

Hearing such words of Mahaprabhu, those dressed ascetics were ready to attack Prabhu, but being influenced by the influence of Prabhu, they ran away and released Mahaprabhu Krishnadas from those people and went ahead. Walking from there, Mahaprabhu reached the banks of the river named Payaswini. There he found the ancient written Brahma Samhita, with that wonderful book the Lord reached Sringeri Math. This is the main math of Lord Shankaracharya in the south direction. Lord Shankaracharya established four monasteries in the four directions of India for the protection of Veda Shastras and propagation of religion. Joshimath near Badrikashram in the north, Govardhanmath in Jagannathpuri in the east, Shardamath in Dwarkapuri and Shringerimath in Dakshinpuri. Of these, except Joshi Math, the Mathadhish of the remaining three Maths are still called by the name of Shankaracharya. Mahaprabhu was also associated with the sannyasins of the Dashanami sect.

Walking from Sringeri Math, Mahaprabhu reached Madhwacharya’s monastery in Udupi via Matsyatirtha and saw Lord Gopal there. Prabhu stayed with the philosophers there for two-three days while discussing the scriptures. From there he came to Pandharpur after passing through pilgrimage centers like Phalgutirtha, Trikup, Pampapur, Surpark, Kolhapur etc. Here a Brahmin invited Mahaprabhu. Mahaprabhu accepted his invitation and went to his place for alms. He offered alms to the Lord with great devotion. In words, he said- ‘A very qualified and Bhagavad devotee Mahatma is staying here.

Probably you must have heard the name of Shrimanmadhavendrapuri Maharaj, that Mahatma is his disciple, his name is Shrirangpuri. On hearing this, the Lord became engrossed in love. He quickly said – ‘ Vipravar! You take me near Shrirangpuri Maharaj.’

Obeying the Lord’s orders, that Brahmin reached near Rangpuri Maharaj taking the Lord along with him. Seeing Puri Maharaj from a distance, the Lord prostrated at his feet. Puri Maharaj picked up the prostrated Lord and hugged him and while praising him said – ‘ It seems from your appearance that you are not an ordinary man. Such humility even after being a monk, it is a matter of great surprise. Such simplicity, such devotion and such sattvic disorders of love are not found in any sannyasin except in sannyasins who are blessed by my Gurudev. You introduce yourself to me.

The Lord said in a very humble manner- ‘Shrimat Ishwarpuri Maharaj, the chief disciple of Lord Madhavendrapuri, the originator of devotion among the sannyasins, is my mantra-diksha-guru. The guru of sannyas is my Shrimat Keshavbharti Maharaj.

Shrirangpuri Maharaj asked – ‘Where is the birthplace of your Purvashram?’

The Lord said with simplicity – ‘This body was born in the city of Navadvipa on the banks of Bhagwati Bhagirathi in Gaudesh.

Expressing happiness, Puri Maharaj started saying – ‘Oh! Then you are very close to yourself. You must know Shri Advaitacharya, I had gone to Navadweep earlier with my Gurudev. There is a very devoted Brahmin named Jagannath Mishra, his wife is actually Annapurna Devi. One day I begged at his house. That Brahmin had made me do alms with great pleasure. One of his all-rounded sons had become a monk. He was very promising. But the speed of the gods is very strange, two years after taking sannyas, he left his body here. His sannyasa name was Shankaranya.

Hearing this, the Lord was somewhat surprised. Both of his clean and big lotus like eyes were filled with water from you. He said with a choked voice – ‘ God! That Mahabhag Shankaranya Swami was the head of my Purvashram.

On hearing this, Puri Maharaj again embraced the Lord and said- ‘Have all of you become sanyasis or is there any other brother at home?’

Prabhu bowed his head down and said softly – ‘ At home he is the only Sri Hari, whose name you took earlier. The father of my former ashram has passed away. We were only two brothers, so both came under the shelter of your feet. Now only the old mother is at home.

Puri said- ‘Brother, your family is blessed, it was meaningful to have a son of your own parents.’

In this way, many other things related to charity continued to happen in both of them. Both stayed together for two or three days. In the end, Puri Maharaj left for Dwarka and went ahead after seeing Mahaprabhu Shri Vittalnath ji.

Mahaprabhu came to the banks of the Krishnaveena river after taking a bath in the Bhima river at Pandharpur. There, from the presence of the brahmins, the Lord collected the unique Rasamaya Granth named Srivilvamangalkrit ‘Krishnakarnamrit’. The Lord came near the river Tapti carrying both the books Brahmasamhita and Krishnakarnamrit with great care. After bathing in the holy Taptin river there, he came to the banks of the Narmada ji via Mahishmatipur, seeing the Rishyamuk mountain there, sanctifying all the pilgrimages of Dandakaranya and saved the Saptalal pilgrimage. While traveling in the Nilgiri region, Mahaprabhu made innumerable people fall in love with Krishna. In the same way, while visiting Gurjari came and appeared in Nagar. Here the Lord explained the essence of Shri Krishna to a dry Vedanti scholar named Arjuna and gave him love.

In Gurjari Nagar, Mahaprabhu reached Purna Nagar while traveling in the mountain region of Bijapur and having darshan, bathing, washing and aachaman in many holy pilgrimages. There the Lord resided near a lake. That city was very prosperous, there were many learned scholars of Sanskrit and there were many schools. In those days Mahaprabhu was very strong of separation from Shri Krishna, he was sitting on the bank of the lake crying loudly and crying ‘Yes Prannath! Ha Hridayeshwar! Where are you, show me Pranvallabh! Come quickly, where are you hiding.’ Many men and women gathered on hearing the compassionate cry of the Lord. Some of them were dry logicians who considered themselves philosophers. The Lord started asking him very humbly – ‘ If you know the address of my Prannath, please tell me. Where are they, where did they hide leaving me?’

One of those pundits, a very dry-hearted pundit, said – ‘Your Krishna is hidden in this water.’ Just wanted to hear that Mahaprabhu jumped into the water at that very moment. People’s astonishment knew no bounds. There was hue and cry everywhere. Many men immediately jumped into the lake and pulled the Lord out of the water. On this everyone started cursing that pundit. He also went away at the same moment of shame with a face like his own.

Walking from here, Lord reached Jijuri Nagar via Bholeshwar. There is a huge temple of Khandwadev here. There is a very bad practice here. The girl who does not get married is offered to the deity by her parents and she is called Dev Dasi. Most of them are vicious and adulterous.

When Mahaprabhu heard this, he himself went to Khandvadev’s temple to see these unfortunate patita women. The Lord saw the plight of those unfortunates with his own eyes. Seeing their pitiable condition, the merciful Sri Chaitanya said to them – ‘Ladies! You are blessed, your life is meaningful, other women’s husbands are humans with mortal bodies, but your husband is Sri Hari. The gopis had done penance for countless years to make Sri Hari their husband. In fact, he is the real husband, Nandanandan, so you should chant the name of Shri Krishna with all your heart. Always remember the name of Sri Hari. His name is Patitpaavan, who with a true heart says even once that I am your refuge, he forgives all sins.

There is infinite power in the chanting of the Lord’s name.’ Saying this, Mahaprabhu himself raised both his arms and started chanting Hari-nama-sankirtan in a loud voice. At that time tears were flowing from both his eyes in the emotion of love, the hairs of the body stood erect, sweat was coming out of the pores like a fountain. Seeing his condition like this, all the female deities, with their feminine voice,

Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.

She started chanting this Mahamantra in a loud voice. The whole temple started echoing with the sound of Mahamantra. In the flood of that Sankirtan, all the sins of those Devmaids were washed away, they became sinless by the influence of the name of the Lord. The main Dev-dasi among them, her name was Indira, she came and fell at the feet of the Lord and started saying very humbly- ‘Lord! I got into this condition while committing adultery. Now do such a favor that there is devotion at the feet of Sri Hari.’ Lord tying her patience said – ‘Devi! Shri Krishna is merciful, he is very quick to bless the poor. You worship him only, go to his shelter, you will be well.

Obeying the command of the Lord, she distributed her everything to the poor and downtrodden, and disguised herself as a beggar, living on alms at the door of the temple, Aharnish became engrossed in Shri Krishna-Kirtan. Many more Devdasis followed his path.

respectively next post [110] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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