[160]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
जगदानन्द जी की एकनिष्ठा

अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः।।

शास्त्रों में भक्तों के उत्तम, मध्यम और प्राकृत रूप से तीन भेद बताये गये हैं। जो भक्त अपने इष्ट देव को सर्वव्यापक समझकर प्राणिमात्र के प्रति श्रद्धा के भाव रखता है और सभी वस्तुओं में इष्टबुद्धि रखकर उनका आदर करता है, वह सर्वोत्तम भक्त है। जो अपने इष्ट में प्रीति रखता है और अपने ही समान इष्ट बन्धुओं के प्रति श्रद्धा का भाव, असाधकों के प्रति कृपा के भाव, विद्वेषियों और भिन्न मत वालों के प्रति उपेक्षा के भाव रखता है, वह मध्यम भक्त है और जो अपने इष्ट के विग्रह में ही श्रद्धा के साथ उन श्री हरि की पूजा करता तथा भगवत भक्तों की तथा अन्य पुरुषों से एकदम उदासीन रहता है, वह प्राकृत भक्त है। प्राकृत भक्त बुरा नहीं है, सच पूछिये तो भक्ति का सच्चा श्री गणेश तो यहीं से होता है, जो पहले प्राकृत भक्त नहीं बना वह उत्तम तथा मध्यम भक्त बन ही कैसे सकता है। नीचे की सीढ़ियों को छोड़कर सबसे ऊँची पर बिना योगेश्वरेश्वर कृपा से कोई भी नहीं जा सकता।

पण्डित जगदानन्द जी सरल प्रकृति के भक्त थे, वे प्रभु के शरीर सुख के पीछे सब कुछ भूल जाते थे। प्रभु के अतिरिक्त उनके लिये कोई पूजनीय संन्यासी नहीं था, प्रभु के सभी काम लीला हैं, यही उनकी भावना थी। महाप्रभु भी उनके ऊपर परम कृपा रचाते थे। इनके क्षण क्षण में रूठने और क्रुद्ध होने के स्वभाव से वे पूर्णरीत्या परीचित थे, इसीलिये इनसे कुछ भय भी करते थे। साधु-संन्यासी के लिये जिस प्रकार स्त्री स्पर्श पाप है, उसी प्रकार रूई भरे हुए गुदगुदे वस्त्र का उपयोग करना पाप है। इसीलिये महाप्रभु सदा केले के पत्तों पर सोया करते थे। वे दिन रात्रि श्रीकृष्ण विरह में छटपटाते रहते थे। आहार भी उन्होंने बहुत ही कम कर दिया था। इसी कारण उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था। उस क्षीण शरीर को केले के पत्तों पर पड़ा देखकर सभी भक्तों को अपार दुःख होता था, किन्तु प्रभु के सम्मुख कुछ कहने की हिम्मत ही किसकी थी? सब मन मसोसकर इस दारुण दुःख को सहते और विधाता को धिक्कारते रहते कि ऐसा सुकुमार सुन्दर स्वरूप देकर फिर इस प्रकार का जीवन प्रभु को प्रदान किया, यह उस निर्दयी दैव का क्रूर कर्म है।

जगदानन्द जी प्रभु की इस कठोरता से सदा असन्तुष्ट रहते और अपने भोले स्वभाव के कारण उनसे कभी-कभी इस प्रकार के हठों को त्यागने का आग्रह भी किया करते, किन्तु प्रभु मो धीर थे, वे भला किसी के कहने सूनने से न्यायमार्ग का कब परित्याग करने लगे। इसीलिये जगदानन्द जी के सभी प्रयत्न असफल ही होते, फिर भी वे अपने सीधे स्वभाव के कारण सदा प्रभु को सुखी रखने करने की चेष्टा किया करते। उन्होंने जब देखा कि प्रभु शरीर को केले के पत्तों पर कष्ट होता है तो वे बाजार से एक सुन्दर सा वस्त्र खरीद लाये। उसे गेरुए रंग में रँगकर उसके तोशक-तकिये बनाये। स्वयं सेमर की रूई लाकर उन्होंने गद्दे, तकिये में भरी और उन्हें गोविन्द को ले जाकर दे दिया।

गोविन्द से उन्होंने कह दिया- ‘इसे प्रभु के नीचे बिछा देना और ऊपर से उनका वस्त्र डाल देना।’ गोविन्द ने जगदानन्द जी की आज्ञा से डरते डरते ऐसा ही किया। महाप्रभु ने जब बिस्तर पर पैर रखा तभी उन्हें कुछ गुदगुदा सा प्रतीत हुआ। वस्त्र को हटाकर देखा तो उसके नीचे गद्दा बिछा है और एक रंगीन तकिया लगा हुआ है। गद्दे तकिये को देखकर प्रभु को क्रोध आ गया। उन्होंने उसी समय जोर से गोविन्द को आवाज दी। गोविन्द का दिल धड़कने लगा। वह सब कुछ समझ गया कि प्रभु ने गद्दे-तकिये को देख लिया और अब न जाने मुझे क्या क्या कहेंगे। गोविन्द डरते-डरते धीरे-धीरे किवाड़ की आड़ में जाकर खड़ा हो गया। प्रभु ने फिर आवाज दी- ‘गोविन्द ! कहाँ चला गया, सुनता नहीं।’

धीरे-धीरे काँपती आवाज में गोविन्द ने कहा- ‘प्रभो ! मैं उपस्थ्सित हूँ, क्या आज्ञा है?’

प्रभु ने अत्यन्त स्नेह से सने हुए शब्दों में प्रेमयुक्त रोष के साथ कहा- ‘तुम सब मिलकर मुझे धर्म भ्रष्ट करने पर तुले हुए हो। मैंने अपना शरीर तुम लोगों के अधीन कर रखा है, किन्तु तुम चाहते हो कि मैं विषय भोगों में आसक्त रहूँ। विषयों के उपभोग के लिये ही तो मैंने घर बार छोड़कर संन्यास लिया है, घर पर मैं विषय नहीं भोग सकता था। क्यों ठीक हैं न?’

गोविन्द ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, वह चुपचाप नीचा सिर किये हुए खड़ा रहा। स्वरूपगोस्वामी एक ओर चुपचाप बैठे हुए प्रभु को पद सुनाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे भी चुप ही बैठे रहे। प्रभु फिर कहने लगे- ‘पता नहीं, ये लोग भजन-ध्यान सब शरीर सुख के ही लिये करते हैं क्या? दिन रात्रि मेरे शरीर की ही चिन्ता! भाई चैतन्य तो इस शरीर से पृथक हैं, वह तो नित्य सुखमय, आनन्दमय, और प्रेममय है। उसे ये संसारी पदार्थ भला क्या सुख पहुँचा सकते हैं। जिसे चैतन्य समझकर तुम सुखी बनना चाहते हो, वह तो अचैतन्य है, नश्वर है, क्षणभंगुर है, विनाशी और सदा बदलते रहने वाला है, इसी को सुखी बनाने को प्रयत्न करना महामूर्खता है।’

स्वरूप गोस्वामी चुपचाप सुनते रहे। प्रभु ने फिर उसी प्रकार रोष के स्वर में कहा- ‘क्यों रे गोविन्द ! तुझे यह सूझी क्या? तैंने क्या सोचा कि मैं गद्दा-तकिया लगाकर विषयी पुरुषों की भाँति सोऊँगा? तू ठीक ठीक बता तुझे पैसे कहाँ मिले? यह वस्त्र किससे माँगा? सिलाई के दाम कहाँ से आये?’

गोविन्द ने धीरे से सिर नीचा किये ही उत्तर दिया- ‘प्रभो ! जगदानन्द पण्डित मुझे इन्हें दे गये हैं और उन्हीं की आज्ञा से मैंने इस बिछा दिया है।’

जगदानन्द जी का नाम सुनकर प्रभु कुछ सहम गये। उन्हें इसके उपयोग न करने का प्रत्यक्ष परिणाम आँखों के सामने दीखने लगा। उनकी दृष्टि में जगदानन्द जी की रोष भरी दृष्टि साकार होकर नृत्य करने लगी। महाप्रभु फिर कुछ भी न कह सके। वे सोचने लगे कि अब क्या कहूँ, उनका रोष कपूर की तरह एकदम न जाने कहाँ उड़ गया। हृदय के भावों के प्रवीण पारखी स्वरूप गोस्वामी महाप्रभु के मनोभाव को ताड़ गये। इसीलिये धीरे से कहने लगे- ‘प्रभो ! हानि ही क्या है, जगदानन्द जी को कष्ट होगा, इन्होंने प्रेमपूर्वक बड़े परिश्रम से इसे स्वयं बनाया है। सेमल की रूई है, फिर आपका शरीर भी तो अत्यंत ही निर्बल है, मुझे स्वयं इसे केले के पत्तों पर पड़ा हुआ देखकर कष्ट होता है। अस्वस्थावस्था में गद्दे का उपयोग करने मे तो मुझे कोई हानि प्रतीत नहीं होती। रुग्णावस्था को ही आपत्तिकाल कहते हैं और आपत्तिकाल में नियमों का पालन न हो सके तो कोई हानि भी नहीं। कहा भी है, ‘आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति।’

प्रभु ने धीरे-धीरे प्रेम के स्वर मेें स्वरूप गोस्वामी को समझाते हुए कहा- ‘स्वरूप ! तुम स्वयं समझदार हो। तुम स्वयं सब कुछ सीखे हुए हो, तुम्हें कोई सिखा ही क्या सकता है। तुम सोचो तो सही, यदि संन्यासी इसी प्रकार अपने मन को समझाकर विषयों में प्रवृत्त हो जाय तो अन्त में वह धीरे धीरे महाविषयी बनकर पतित हो जायेगा। विषयों का कहीं अन्त ही नहीं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा उत्पन्न होती जाती है। जहाँ एक बार नियम से भ्रष्ट हुए वहाँ फिर नीचे की ओर पतन ही होता जाता है।

पानी का प्रवाह ऊपर से एक बार छूटना चाहिये, बस फिर वह नीचे की ही ओर चलेगा। जिसके खूब साफ-सुधरे वस्त्र होते हैं, वही धूलि, मिट्टी और गन्दी जगह में न बैठने की परवा करता है, जहाँ एक बार वस्त्र मैले हुए कि फिर कहीं भी बैठने में संकोच नहीं होता। फिर वह वस्त्रों की रही सही पवित्रता की भी परवा नहीं करता। इसलिये तुम मुझसे गद्दे पर सोने का आग्रह मत करो। आज गद्दा है तो कल पलंग भी चाहिये। परसों एक पैर दबाने वाले नौकर के रखने की आवश्यकता प्रतीत होगी। क्या इसीलिये मैंने संन्यास लिया है कि ये ही सब कुछ भोगता रहूँ।’
प्रभु के इस मार्मिक उपदेश को सुनकर स्वरूप गोस्वामी फिर कुछ भी नहीं बोले। उन्होंने गोविन्द से गद्दे तकिये को उठाने का संकेत किया। गोविन्द ने संकेत पाते ही वे मुलायम वस्त्र उठाकर एक ओर रख दिये। प्रभु उन्हीं पड़े हुए पत्तों पर लेट गये।

दूसरे दिन स्वरूप गोस्वामी बहुत से केलों के खोपले उठा लाये और उन्हें अपने नखों से बहुत ही महीन चीर-चीर कर प्रभु के एक पुराने वस्त्र में भर दिया। बहुत कहने सुनने पर प्रभु ने उस गद्दे को बिछाना स्वीकार कर लिया।

जगदानन्द जी ने गोविन्द के द्वारा जब सब समाचार सुना तब तो उन्हें अत्यन्त ही क्षोभ हुआ, किन्तु उन्होंने अपना क्षोभ प्रभु के सम्मुख प्रकट नहीं होने दिया, प्रभु भी सब कुछ समझ गये, इसलिये उन्होंने गद्दे तकिये वाली बात फिर छेड़ी ही नहीं। जगदानन्द जी की बहु दिनों से वृन्दावन जाने की इच्छा थी। उन्होंने प्रभु पर अपनी इच्छा प्रकट भी की थी, किन्तु प्रभु ने इन्हें वृन्दावन जाने की आज्ञा नहीं दी। महाप्रभु जानते थे, ये सरल हैं, सीधे हैं, भोले हैं और संसारी बातों से एकदम अनभिज्ञ हैं। इन्हें देश, काल तथा पात्र देखकर बर्ताव करना नहीं आता। यों ही जो मन में आता है कह देते हैं। सब लोग क्या जानें कि इनके हृदय में द्वेष नहीं है, वे तो इनके क्रोधयुक्त वचनों को सुनकर इन्हें बुरा भला ही कहेंगे। ऐसे सरल मनुष्य को रास्ते में अत्यन्त ही क्लेश होगा। यही सब समझ सोचकर प्रभु इन्हें गौड़ भेज देते थे; क्योंकि वहाँ के सभी भक्त इनके स्वभाव से परिचित थे, किन्तु वृन्दावन जाने की आज्ञा नहीं देते थे। अब जगदानन्द जी ने फिर निश्चय किया कि ‘प्रभु आज्ञा दे दें तो अवश्य व्रजमण्डल की यात्रा कर आवें। यह सोचकर उन्होंने एक दिन एकान्त में स्वरूप गोस्वामी से सलाह करके प्रभु से वृन्दावन जाने की आज्ञा माँगी।’

प्रभु ने कहा- ‘वैसे तो मैं आपको जाने के लिये अनुमति दे भी देता, किन्तु अब तो कभी अनुमति न दूँगा। मुझसे क्रुद्ध होकर जायँगे तो मेरा मन सदा उदास बना रहेगा।’

जगदानन्द जी ने प्रेमयुक्त मधुर वाणी से कहा- ‘प्रभो ! आप पर भला कोई क्रोध कर सकता है। फिर मैं तो आपका सेवक हूँ। मैं सच्चे हृदय से कह रहा हूँ, क्रोध करके मैं नहीं जाता हूँ। मेरी तो बहुत दिनों से इच्छा थी। उसे आपके सम्मुख भी कई बार प्रकट कर चुका हूँ।’

इस पर बात का समर्थन करते हुए स्वरूप दामोदर जी कहने लगे- ‘हाँ प्रभो ! इनकी बहुत दिनों की इच्छा है। भला, ये आप पद कभी क्रुद्ध हो सकते हैं। गसैड़ भी तो ये प्रतिवर्ष जाया ही करते हैं, इसी प्रकार इन्हें व्रज जाने की आज्ञा दे दीजिये।’

जगदानन्द जी बोले- ‘हाँ प्रभो ! वृन्दावन की पावन धूलि को मस्तक पर चढ़ाने की मेरी उत्कृष्ट इच्छा है, आपकी आज्ञा के बिना जा नहीं सकता।’

प्रभु ने कहा- ‘अच्छी बात है, आपकी उत्कृष्ट इच्छा है जो जाइये, किन्तु इतना ध्यान रखना कभी किसी से विशेष बातें न करना। यहाँ से काशी जी तक तो कोई भय नहीं। आगे डाकू मिलते हैं, वे बंगाली समझकर आपको मार ही डालेंगे। इसलिये वहाँ से किसी धर्मात्मा क्षत्रिय के साथ जाना। वृन्दावन में सदा सनातन के साथ ही रहना। उन्हीं के साथ तीर्थ और वनों की यात्रा करना। साधु महात्माओं को दूर से ही प्रणाम करना। उनसे बहुत अधिक सम्पर्क न रखना और न उनके साथ अधिक दिन ठहरना ही। व्रज की यात्रा करके शीघ्र ही लौट आना। सनातन से कह देना, मैं भी व्रज आऊँगा, मेरे लिये कोई स्थान ठीक कर लें। इस प्रकार उन्हें भाँति-भाँति से समझा बुझाकर वृन्दावन के लिये विदा किया।

जगदानन्द जी सभी गौर भक्तों की वन्दना करके और महाप्रभु की चरणरज सिर पर चढ़ाकर झाड़ीखण्ड के रास्ते से वृन्दावन की ओर चलने लगे। भिक्षा माँगते-खाते वे काशी, प्रयाग होते हुए वृन्दावन पहुँचे। वहाँ रूप सनातन दोनों भाइयों ने इनका बड़ा सत्कार किया। ये सदा सनातन गोस्वामी के साथ ही रहते थे। उन्हीं को साथ लेकर इन्होंने व्रजमण्डल के बारहों वनों की यात्रा की। सनातन जी घर-घर से भिक्षा माँग लोते थे और इन्हें लाकर दे देते थे और और ये अपना बना लेते थे। सनातन जी तो स्वयं व्रजवासियों के घरों से टुकड़े माँगकर ले आते थे और उन्हीं पर निर्वाह करते थे। कभी जगदानन्द जी के समीप भी प्रसाद पा लेते थे।

सब वनों के दर्शन करते हुए ये महावन होते हुए गोकुल में आये। गोकुल में ये दोनों यमुना जी के तट पर एक गुफा में ठहरे। रहते तो दोनों गुफा में थे किन्तु भोजन के लिये जगदानन्द जी तो एक मन्दिर में जाते थे और वहाँ अपना भोजन अपने हाथ ये बनाकर पाते थे। सनातन जी महावन में से जाकर मधुकरी कर लाते थे। तब तक गोकुल इतना बड़ा गाँव नहीं बना था। गोस्वामियों की ही दो तीन बैठकें तथा मन्दिर थे। इसीलिये भिक्षा के लिये इन्हें डेढ़ दो मील रोज जाना पड़ता था।

एक दिन जगदानन्द जी ने सनातन जी का निमन्त्रण किया। सनातन जी तो समान दृष्टि रचाने वाले उच्च कोटि के भक्त थे। वे संन्यासी मात्र को चैतन्य का ही विग्रह समझकर उनके प्रति उदार भाव रखते थे। वे अपने गुरु में और श्रीकृष्ण में कोई भेदभाव नहीं मानते थे, इसलिये उन्होंने श्री चैतन्य देव को श्रीकृष्ण या अवतारी सिद्ध न करके श्रीकृष्ण लीलाओं का ही वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में श्रीकृष्ण और चैतन्य में कोई भेदभाव होता तब तो वे सिद्ध करने की चेष्टा करते।

मुकन्द सरस्वती नाम के एक संन्यासी थे, उन्होंने सनातन गोस्वामी को एक अपने ओढ़ने का गेरुए रंग का वस्त्र दिया था। सनातन जी तो एक गुदड़ी के सिवा कुछ रखते नहीं थे, उसे महात्मा की प्रसादी समझकर उन्होंने रख छोड़ा। उस दिन जगदानन्द जी के निमन्त्रण में उसी वस्त्र को सिर से बाँधकर गये। सनातन जी के सिर पर गेरुए रंग का वस्त्र देखकर जगदानन्द जी ने समझा कि यह प्रभु का प्रसादी वस्त्र है, अतः बड़े ही स्नेह के साथ पूछने लगे- ‘सनातन जी ! आपने यह प्रभु का प्रसादी वस्त्र कहाँ पाया?

सनातन जी ने सरलता से कहा- ‘यह प्रभु की प्रसादी नहीं है। मुकुन्द सरस्वती नामक एक बड़े अच्छे संन्यासी हैं, उन्होंने ही यह वस्त्र मुझे दिया है।’ इतना सुनते ही जगदानन्द जी का क्रोध उमड़ पड़ा। वे भला इस बात को कब सहन कर सकते थे कि गौर भक्त होकर दूसरे संन्यासी के वस्त्र को सिर पर चढ़ावे। उनका आदर केवल चैतन्य देव के ही वस्त्र में सीमित था। जो कोई उसका आदर छोड़कर और का आदर करता है, उनकी दृष्टि में वह बुरा काम करता है। इसीलिये क्रोध मेें वे चूल्हे की हाँडी को उठाकर सनातन जी को मारने दौड़े। सनातन जी उनके ऐसे व्यवहार को देखकर लज्जित से हो गये। जगदानन्द जी ने भी हाँडी को चूल्हे पर रख दिया और अपनी बात के समर्थन में कहने लगे- ‘आप महाप्रभु के प्रधान पार्षदों में से हैं। भला, इस बात को कौन गौर भक्त सहन कर सकेगा कि आप किसी दूसरे संन्यासी के वस्त्र को सिर पर चढ़ावें।’

इस बात को सुनकर हँसते हुए सनातन जी कहने लगे- ‘मैं दूर से ही आपकी एकनिष्ठा की बातें सुना करता था, किन्तु आज प्रत्यक्ष आपकी निष्ठा का परिचय प्राप्त हुआ। श्रीचैतन्य चरणों में आपका इतना दृढ़ अनुराग है उसका लेशमात्र भी मुझमें नहीं है। आपकी एकनिष्ठा को धन्य है। मैंने तो वैसे ही आपको के लिये इसे पहन लिया था कि आप क्या कहेंगे? वैसे तो मैं गरुए वस्त्र का अधिकारी भी नहीं हूँ। वैष्णव को गेरुए वस्त्र का आग्रह ही नहीं होता।’ इस प्रकार इन्हें समझा बुझाकर शान्त किया। जगदानन्द जी की यह निष्ठा बुरी नहीं थी। किन्तु यही साध्य नहीं है। साध्य तो यही है कि वे गेरुए वस्त्र मात्र में चैतन्य के वस्त्र का अनुभव करते, उसमें शंका का स्थान ही न रह जाता। यदि कहें कि पतिव्रता स्त्री की भाँति पर पुरुष का मुख देखना जिस प्रकार पाप है उसी प्रकार मधु रस के उपासकों की अपने इष्टदेव के प्रति निष्ठा ही सर्वोत्तम कही जाती है, सो ठीक नहीं है। कारण कि पतिव्रता की दृष्टि में तो पति के सिवा संसार में कोई है ही नहीं। उसके लिये तो पति ही सर्वस्व है। पति को छोड़कर दूसरा कोई तीर्थ उसके लिये है ही नहीं। परकीया भाव में ऐसी निष्ठा प्रायः देखी जाती किन्तु उसमें भी संकीर्णता नहीं। वह भी संसार के सम्पूर्ण सौन्दर्य में अपने स्वामी के सौन्दर्य का ही मान करती है। जैसे श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो ताने पर गोपियों ने लता पत्ता और जीव जन्तुओं में श्रीकृष्णस्पर्शजन्य आनन्द का ही अनुभव किया। अस्तु, हमारा मतलब इतना ही है कि हमारी दृष्टि में यह प्राकृत निष्ठा है। उत्तम निष्ठा इससे दूर है, किन्तु इसके द्वारा उसकी प्राप्ति हो सकती है।

जगदानन्द जी कुछ काल व्रज में रहकर महाप्रभु के समीप पुरी में जाने की तैयारियाँ करने लगे। प्रभु के लिये सनातन जी के रासलीला-स्थली की रज, गोवर्धन पर्वत की शिला, गुंजाओं की माला और पके हुए सूखे पीलू ये चीजें प्रसाद के लिये दीं। इन अकिंचन, त्यागी, भिक्षुक भक्तों की ये ही चीजें सर्वस्व थीं। टैंटी और पीलू व्रज में अधिक होते हैं। बंगाल में तो लोग इन्हें पहचानते ही नहीं। पीलू बहुत कड़वा होता है और टैंटी उससे भी अधिक कड़वी। टैंटी का अचार ठीक पड़ता है। पकी टैंटी को व्रज में पैंचू बोलते हैं। देखने में वह लाल-लाल बड़ी ही सुन्दर मालूम पड़ती है, किन्तु खाने में ठीक आती है।

व्रज की गौ चराने वाले ग्वाल पैंचू और पके पीलू खाया करते हैं। उनमें बीज ही बीज भरे रहते हैं। रस तो बहुत थोड़ा बीज में लगा हुआ होता है। बीजों में के रस को चूसकर ‘शरीफे’ के बीजों की भाँति उन्हें थूक देते हैं। ये ही व्रज के मेवा हैं। श्रीकृष्ण भगवान को ये ही बहुत प्रिय थे। क्यों प्रिय थे, इसका क्या पता ? इसी से जो खीजकर किसी भक्त ने कहा है-

काबुल में मेवा करी, ब्रज में टैंटी खायँ।
कहूँ कहूँ गोपाल का, भूलि सिटल्ली जायँ।।

अस्तु, जगदानन्द जी सनातन जी के दिये हुए प्रसाद को लेकर, उनसे विदा होकर पुरी आये। प्रभु इन्हें सकुशल लौटा हुआ देखकर परम प्रसन्न हुए। इन्होंने सनातन जी की दी हुई सभी चीजें प्रभु के अर्पण कीं। प्रभु ने सभी को श्रद्धापूर्वक सिर पर चढ़ाया। सब चीजें तो प्रभु ने रख लीं, पीलुओं को उन्होंने भक्तों में बाँट दिया। भक्तों ने ‘वृन्दावन के फल’ समझकर उन्हें बड़े आदर से ग्रहण किया। एक तो वृन्दावन के फल फिर महाप्रभु के हाथ से दिये हुए सभी भक्त बड़े चाव से खाने लगे। जो पहले वृन्दावन हो आये थे वे तो जानते थे कि ये अमृतफल किस प्रकार खाये जाते हैं, इसलिये वे तो मुँह में डालकर उनकी गुठलियों को धीरे-धीरे चुसने लगे। जो नहीं जानते थे वे जल्दी में मुँह में डालकर चबाने लगे। चबाते ही मुँह जहर कड़वा हो गया, नेत्रों में पानी आ गया। सभी सी-सी करते हुए इधर-उधर दौड़ने लगे। न तो खाते बनता था। न थूकते ही। वृन्दावन के प्रभुदत्त प्रसाद को भला थूकें कैसे और खाते हैं तो प्राणों पर बीतती है। खैर, जैसे-तैसे जल के साथ भक्त उन्हें निगल गये। प्रभु हँसते-हँसते कह रहे थे- ‘व्रज का प्रसाद पाना कोई सरल नहीं है। जो विषय भोगों को ही सर्वस्व समझ बैठे हैं, उनको न तो व्रज की भूमि में वास करने का अधिकार है और न व्रज के महाप्रसाद को पाने का ही। व्रजवासी बनने का सौभाग्य तो उसे ही प्राप्त हो सकेगा जिसकी सभी वासनाएँ दूर हो गयी होंगी।’

इस प्रकार जगदानन्द जी के आने से सभी भक्तों को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे उसी प्रकार सुखपूर्वक फिर प्रभु के पास रहने लगे। जगदानन्द जी का हृदय शुद्ध था, उनका प्रभु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था। वे प्रभु के शरीर से ही अत्यधिक प्रेम करते थे। यह ठीक भी है। जिस कागज पर चित्र बना हुआ है उस कागज को यदि कोई प्यार करता है तो वह एक-न-एक दिन उस पर खिंचे हुए चित्र के सौन्दर्य से भी प्यार करने लगेगा। जो सौन्दर्य को ही सर्वस्व समझकर कागज को व्यर्थ समझकर फेंक देता है तो कागज तो उसके हाथ से चला ही जाता है, साथ ही उसपर खिंचा हुआ चित्र और उसमें का सौन्दर्य भी उसे फिर कभी नहीं मिल सकता। यह हो नहीं सकता कि हम घृत से तो प्रेम करें और जिस पात्र में घृत रखा है उसकी उपेक्षा कर दें। पात्र के साथ घृत का आधाराधेय भाव का सम्बन्ध है। आधेय से प्रेम करने पर आधार से अपने-आप ही प्रेम हो जाता है। आधार का प्रेम ही आधेय के प्रेम को प्राप्त करा सकता है। यही सर्वशास्त्रों का सिद्धान्त है।

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Jagadanand ji’s integrity

He who strives with faith to worship Hari in the worship itself. That devotee is not regarded as ordinary among His devotees nor among others.

In the scriptures, three differences have been told about the best, medium and natural form of the devotees. The devotee who considers his favorite God to be all-pervading and has feelings of reverence for all living beings and respects him by keeping his ishtabuddhi in all things, he is the best devotee. The one who has love for his favorite and has a sense of reverence towards the favorite friends like himself, kindness towards the non-devotees, hatred towards the haters and those of different opinion, he is a moderate devotee and the one who worships his favorite One who worships that Sri Hari with devotion and remains completely indifferent to Bhagavat devotees and other men, he is a natural devotee. Prakrit devotee is not bad, if you ask the truth, the real Shri Ganesh of devotion is from here itself, how can one who did not become a Prakrit devotee earlier become a perfect and medium devotee. Leaving the lower stairs, no one can go to the highest without the grace of Yogeshwareshwar.

Pandit Jagdanand ji was a devotee of simple nature, he used to forget everything behind the pleasure of God’s body. Apart from the Lord, there was no monk to be worshiped for him, all the works of the Lord are pastimes, this was his feeling. Mahaprabhu also showered supreme blessings on him. He was fully familiar with his nature of getting upset and angry every moment, that’s why he was somewhat afraid of him. Just as touching a woman is a sin for a hermit-sanyasi, in the same way it is a sin to use cotton stuffed cloth. That’s why Mahaprabhu always used to sleep on banana leaves. Day and night they used to wander in separation from Shri Krishna. He had reduced his diet too much. Because of this his body had become very emaciated. Seeing that emaciated body lying on the banana leaves, all the devotees felt immense sorrow, but who had the courage to say anything in front of the Lord? Everyone bore this great sorrow with heart and kept cursing the creator that by giving such a delicate and beautiful form, then gave this kind of life to God, this is the cruel deed of that merciless god.

Jagadanand ji was always dissatisfied with this harshness of the Lord and due to his naïve nature, sometimes he used to urge him to give up such obstinacy, but the Lord was patient, when would he leave the path of justice by listening to someone? Engaged. That’s why all the efforts of Jagadanand ji would have been unsuccessful, yet due to his straight nature he always tried to keep the Lord happy. When he saw that the Lord’s body was suffering on banana leaves, he bought a beautiful cloth from the market. Paint it in ocher and make its toshak-pillows. He himself brought Semar’s cotton, filled it in the mattress, pillow and took it to Govind.

He told Govind- ‘Lay it under the Lord and put his clothes on top.’ Govind did the same fearing the orders of Jagadanand ji. When Mahaprabhu put his foot on the bed, he felt something tickle. Removed the cloth and saw that a mattress was spread under it and a colored pillow was attached. The Lord got angry after seeing the mattress and pillow. At the same time he called loudly to Govind. Govind’s heart started beating. He understood everything that the Lord has seen the mattress and pillow and now he does not know what he will say to me. Fearfully, Govind slowly went and stood behind the door. The Lord again called – ‘Govind! Where has he gone, does not listen.

Slowly Govind said in a trembling voice – ‘ Lord! I am present, what is the command?’

The Lord said with loving fury in words tinged with utmost affection- ‘You all together are bent on corrupting me. I have put my body under your control, but you want me to be attached to sensual pleasures. I have taken sannyas by leaving home only for the enjoyment of subjects, I could not enjoy subjects at home. Why are you fine?’

Govind did not answer anything, he stood silently with his head down. Swaroop Goswami was sitting quietly on one side waiting for the Lord to recite the verse. They too remained silent. The Lord again started saying- ‘I don’t know, do these people do bhajan-meditation only for the pleasure of the body? Worrying about my body day and night! Brother Chaitanya is separate from this body, he is eternally happy, blissful, and loving. What happiness can these worldly things bring to him. The one whom you want to be happy considering as consciousness, is unconscious, mortal, transitory, perishable and ever-changing, it is foolish to try to make him happy.’

Swaroop Goswami kept listening silently. The Lord again said in the same voice of anger – ‘Why O Govind! Did you understand this? What did you think that I would sleep like a sensual man with a mattress and pillow? You tell me exactly where did you get the money? From whom did you ask for this cloth? Where did the sewing prices come from?’

Govind slowly lowered his head and replied – ‘ Lord! Jagadanand Pandit has given it to me and I have laid it on his orders.

Hearing the name of Jagdanand ji, the Lord got a bit scared. He started seeing the direct result of not using it in front of his eyes. Jagadanand ji’s angry vision came true in his eyes and started dancing. Mahaprabhu could not say anything again. They started thinking what to say now, their fury just like camphor flew away, don’t know where. Swaroop Goswami, an expert connoisseur of the feelings of the heart, understood the feelings of Mahaprabhu. That’s why started saying slowly – ‘Lord! What is the loss, Jagadanand ji will be in pain, he himself made it with great effort and love. Semal’s cotton is, then your body is also very weak, I myself feel pained to see it lying on banana leaves. I don’t see any harm in using a mattress when unwell. Illness itself is called emergency and if the rules are not followed during emergency then there is no harm. It has also been said, ‘Aaptikkale maryada nasti’.

Prabhu slowly explained to Swaroop Goswami in the voice of love and said- ‘Swaroop! You yourself are wise. You yourself have learned everything, what can anyone teach you. If you think it right, if a sannyasin engages in subjects by explaining his mind in this way, then in the end he will slowly degenerate by becoming a great subject. There is no end to the subjects. One desire after another arises. Where once you have been corrupted by the rules, then there is only a downfall.

The flow of water should be released once from the top, only then it will move towards the bottom. The one who has very clean clothes, he does not care about sitting in dusty, dirty and dirty places, where once the clothes are dirty, then he does not hesitate to sit anywhere. Then he doesn’t even care about the correct purity of the clothes. That’s why you don’t insist me to sleep on the mattress. Today if there is a mattress, tomorrow a bed is also needed. The day after tomorrow there would seem to be a need to have a foot-pressing servant. Is that why I have taken sannyas, so that I may continue to suffer all this?’ Swaroop Goswami did not say anything again after listening to this poignant sermon of the Lord. He signaled Govind to lift the mattress and pillow. As soon as Govind got the signal, he picked up the soft cloth and put it aside. The Lord lay down on those same leaves.

On the second day, Swaroop Goswami brought many banana peels and after tearing them very finely with his fingernails, stuffed them in an old cloth of the Lord. After listening to many sayings, the Lord accepted to spread that mattress.

When Jagadanand ji heard all the news through Govind, he was very angry, but he did not allow his anger to appear in front of the Lord, the Lord also understood everything, so he did not touch the matter of mattress and pillow again. Jagadanand ji had a desire to go to Vrindavan for many days. He had also expressed his wish to the Lord, but the Lord did not allow him to go to Vrindavan. Mahaprabhu knew, he is simple, straight, innocent and completely ignorant of worldly matters. They do not know how to behave after seeing the country, time and characters. Just say whatever comes to mind. How can everyone know that there is no malice in his heart, they will say bad things to him after listening to his angry words. Such a simple person will have a lot of trouble on the way. Understanding all this, the Lord used to send them to Gaur; Because all the devotees there were familiar with his nature, but did not allow him to go to Vrindavan. Now Jagadanand ji has again decided that ‘if God allows, then he must visit Vrajmandal. Thinking of this, one day in solitude, after consulting Swaroop Goswami, he asked the Lord for permission to go to Vrindavan.

The Lord said – ‘I would have given you permission to go anyway, but now I will never give permission. If you leave angry with me, my mind will always remain sad.’

Jagdanand ji said in a sweet voice with love – ‘ Lord! Anyone can get angry on you. Then I am your servant. I am saying this with a true heart, I do not leave in anger. It was my wish for a long time. I have revealed it to you many times as well.

Supporting the point on this, Swaroop Damodar ji started saying – ‘ Yes ​​Lord! He has a desire for many days. Well, you can be angry at this post. Even the Gasaids go every year, similarly allow them to go to Vraj.’

Jagdanand ji said – ‘ Yes ​​Lord! I have a great desire to put the holy dust of Vrindavan on my head, I cannot go without your permission.’

The Lord said- ‘It is a good thing, you have an excellent desire to go, but take care that never talk special to anyone. There is no fear from here till Kashi ji. If you meet dacoits ahead, they will kill you thinking you are Bengali. That’s why go from there with a pious Kshatriya. Always stay with Sanatan in Vrindavan. Traveling to pilgrimage and forests with them only. Saluting the saints and sages from a distance. Don’t keep too much contact with them and don’t stay with them for long. Return soon after traveling to Vraj. Tell Sanatan, I will also come to Vraj, fix a place for me. Thus pacifying them in various ways, sent them off to Vrindavan.

Jagadanand ji started walking towards Vrindavan by way of bushland after worshiping all the Gaur devotees and offering Mahaprabhu’s feet on his head. Begging and eating, he reached Vrindavan via Kashi, Prayag. There both Roop Sanatan brothers felicitated him. He always lived with Sanatan Goswami. Taking them with him, he traveled to the twelve forests of Vrajmandal. Sanatan ji used to beg from house to house and used to bring them and give them and make them his own. Sanatan ji himself used to collect pieces from the houses of Vraj residents and used to live on them only. Sometimes he used to get prasad even near Jagadanand ji.

Visiting all the forests, he came to Gokul after becoming Mahavan. In Gokul, both of them stayed in a cave on the banks of Yamuna ji. Both used to live in a cave, but Jagadanand ji used to go to a temple for food and there he used to get his food prepared with his own hands. Sanatan ji used to go from Mahavan and bring Madhukari. Till then Gokul had not become such a big village. Only Goswamis had two or three meetings and temples. That’s why he had to go one and a half to two miles daily for alms.

One day Jagdanand ji invited Sanatan ji. Sanatan ji was a high class devotee who created equal vision. He used to have a generous attitude towards the sannyasins, considering them to be mere idols of Chaitanya. He did not believe in any discrimination between his Guru and Sri Krishna, that is why he has described Sri Krishna’s pastimes without proving Sri Chaitanya Dev to be Sri Krishna or an incarnation. In his view, if there was any difference between Sri Krishna and Chaitanya, then he would have tried to prove it.

There was a hermit named Mukanda Saraswati, who had given Sanatana Goswami one of his saffron colored clothes to wear. Sanatan ji didn’t keep anything except a doll, he left it thinking it as the prasadi of the Mahatma. That day, at the invitation of Jagadanand ji, he went with the same cloth tied around his head. Seeing the saffron colored cloth on Sanatan ji’s head, Jagadanand ji understood that it is the Prasadi cloth of the Lord, so he started asking with great affection – ‘Sanatan ji! Where did you find this prasadi cloth of the Lord?

Sanatan ji said simply – ‘ This is not the Prasadi of the Lord. There is a very good sannyasin named Mukund Saraswati, he has given me this cloth.’ On hearing this, Jagadanand ji got angry. When could he tolerate this thing that being a Gaur devotee, he would put the clothes of another sannyasin on his head. His respect was limited only to the clothes of Lord Chaitanya. Whoever respects others instead of respecting him, he does a bad thing in their eyes. That’s why in anger they ran to kill Sanatan ji by lifting the pot of the stove. Sanatan ji was ashamed to see such behavior of him. Jagdanand ji also put the pot on the stove and started saying in support of his point – ‘ You are one of the chief councilors of Mahaprabhu. Well, which devout devotee would be able to bear the fact that you put the clothes of another sannyasin on your head.’

Hearing this, Sanatan ji started laughing and said – ‘I used to hear about your loyalty from a distance, but today I got to know about your loyalty directly. You have such a strong affection for Shri Chaitanya’s feet, I don’t even have a trace of it in me. Bless you for your integrity. I just wore it for you, what would you say? By the way, I am not even entitled to garu cloth. Vaishnav does not have any urge to wear saffron clothes.’ In this way he was pacified by understanding them. This loyalty of Jagadanand ji was not bad. But this is not feasible. The only achievement is that they would experience the consciousness of consciousness in saffron clothes only, there would be no room for doubt in it. If it is said that just as it is a sin to look at the face of a man like a chaste woman, in the same way, the worshipers of Madhu Ras are said to have the highest loyalty towards their presiding deity, then it is not right. The reason is that in the eyes of chastity there is no one in the world except the husband. Husband is everything for her. There is no other pilgrimage for her except her husband. Such loyalty is often seen in the attitude of a stranger, but there is no narrow-mindedness in that too. She also respects the beauty of her master in all the beauty of the world. Just as the gopis experienced the joy of Shri Krishna’s touch in the creeper leaves and animals on being taunted by Shri Krishna. Well, we just mean that in our view it is natural loyalty. Perfect loyalty is far from it, but it can be achieved by it.

Jagdanand ji stayed in Vraj for some time and started making preparations to go to Puri near Mahaprabhu. Gave these things for Prasad, the secret of Sanatan ji’s Rasleela-place, the rock of Govardhan Parvat, the garland of Gunjas and the ripe dried Peelu for the Lord. These things were everything for these akinchan, renunciate, mendicant devotees. Tanti and Peelu are more in Vraj. In Bengal, people do not recognize him at all. Peelu is very bitter and Tanti is even more bitter. Tanti’s pickle is fine. Paki Tanti is called Panchu in Vraj. It looks very beautiful to see, but it is fine to eat.

The cowherds of Vraj eat panchu and ripe peelu. They are filled with only seeds. Very little juice is absorbed in the seed. Sucking the juice in the seeds, they spit them out like the seeds of ‘Sharif’. These are the fruits of Vraj. He was very dear to Lord Krishna. Why were you dear, what is known about this? Due to this, a devotee said with irritation-

Dry fruit curry in Kabul, eat tanti in Braj. Where should I say about Gopal, go to the forgotten city.

Astu, taking the prasad given by Jagdanand ji Sanatan ji, left him and came to Puri. The Lord was extremely pleased to see him return safely. He offered all the things given by Sanatan ji to the Lord. The Lord worshiped everyone on the head. Everything was kept by the Lord, He distributed the Peelus among the devotees. The devotees accepted him with great respect, thinking of them as the ‘fruits of Vrindavan’. Firstly, all the devotees started eating the fruits of Vrindavan given by Mahaprabhu with great enthusiasm. Those who had come to Vrindavan earlier knew how these nectarine fruits are eaten, so they started sucking their kernels slowly after putting them in their mouth. Those who did not know, put it in their mouth in a hurry and started chewing it. The poison became bitter as soon as I chewed it, my eyes watered. Everyone started running here and there while doing C-C. Neither used to eat. Do not spit Prabhudutt Prasad of Vrindavan, how can you spit and if you eat it, it will cost your life. Well, somehow the devotees swallowed them along with the water. The Lord was laughingly saying- ‘It is not easy to get the prasad of Vraj. Those who have considered sense enjoyments as everything, they neither have the right to reside in the land of Vraj nor to get the Mahaprasad of Vraj. Only he can get the good fortune of becoming a resident of Vraj, whose all desires would have gone away.

In this way, all the devotees were very happy with the arrival of Jagadanand ji, they started living happily again with the Lord. Jagadanand ji’s heart was pure, he had intense love for the Lord. He loved the body of the Lord very much. That’s fine too. If someone loves the paper on which the picture is drawn, then one day he will also start loving the beauty of the picture drawn on it. The one who thinks beauty as everything and throws away the paper thinking it as useless, then the paper goes out of his hands, along with it, the picture drawn on it and the beauty in it can never be found again. It cannot happen that we love ghee and neglect the vessel in which it is kept. Ghrit has a fundamental relation with the pot. When you love Aadhaya, you automatically fall in love with Aadhaar. Only the love of base can get the love of half. This is the principle of all scriptures.

respectively next post [161] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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