।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
उन्मादावस्था की अदभुत आकृति
अनुद्घाट्य द्वारत्रयमुरु च भित्तित्रयमहो
विलंघ्योच्चै: कालिंगिकसुरभिमध्ये निपतित:।
तनूद्यत्संकोचात् कमठ इव कृष्णोरुविरहा-
द्विराजन् गौरांगो हृदय उदयन्मां मदयति।।
महाप्रभु की दिव्योन्मादावस्था बडी ही अद्भुत थी। उन्हें शरीर का जब होश नहीं था, तब शरीर को स्वस्थ रखने की परवा तो रह ही कैसे सकती है? अपने को शरीर से एकदम पृथक समझकर सभी चेष्टाएं किया करते थे। उनकी हृदय को हिला देने वाली अपूर्व बातों को सुनकर ही हम शरीराध्यासियों के तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। क्या एक शरीरधारी प्राणी इस प्रकार की सुधि भुलाकर ऐसा भयंकर व्यापार कर सकता है, जिसके श्रवण से ही भय मालूम पड़ता हो, किन्तु चैतन्यदेव ने तो ये सभी चेष्टाएँ की थीं और श्री रघुनाथदास गोस्वामी ने प्रत्यक्ष अपनी आँखों से उन्हें देखा था। इतने पर भी कोई अविश्वास करे तो करता रहे। महाप्रभु की गम्भीरा की दशा वर्णन करते हुए कविराज गोस्वामी कहते हैं–
गम्भीरा-भितरे रात्रे नाहि निद्रा-लव,
भित्ते मुख-शिर घषे क्षत हय सब।
तीन द्वारे कपाट प्रभु यायेन बाहिरे,
कभू सिंहद्वारे पड़े, कभू सिन्धु नीरे।।
अर्थात ‘गम्भीरा मन्दिर के भीतर महाप्रभु एक क्षण के लिये भी नहीं सोते थे। कभी मुख और सिर को दीवारों से रगडने लगते। इस कारण रक्त की धारा बहने लगती और सम्पूर्ण मुख क्षत-विक्षत हो जाता। कभी द्वारों के बंद रहने पर भी बाहर आ जाते, कभी सिंहद्वार पर जाकर पडे रहते तो कभी समुद्र के जल में कूद पडते।’ कैसा दिल को दहला देने वाला हृदयविदारक वर्णन है।
कभी-कभी बड़े ही करुण स्वर में जोरों से रुदन करने लगते, उस करुणाक्रन्दन को सनुकर पत्थर भी पसीजने लगते और वृक्ष भी रोते हुए से दिखायी पड़ते। वे बडे ही करुणापूर्ण शब्दों में रोते-रोते कहते–
कहाँ मोर प्राणनाथ मुरलीवदन
काहाँ करों काहाँ पाओं व्रजेन्द्रनन्दन।
काहारे कहिब केवा जाने मोर दु-ख,
ब्रजेन्द्रनन्दन बिना फाटे मोर बुक।।
‘हाय ! मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं ? जिनके मुख पर मनोहर मुरली विराजमान है ऐसे मेरे मनमोहन मुरलीधर कहाँ हैं ? अरी, मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ? मैं अपने प्यारे व्रजेन्द्रनन्दन को कहाँ पा सकूँगा ? मैं अपनी विरह-वेदन को किससे कहूँ? कहूँ भी तो मेरे दु:ख को जानेगा ही कौन? परायी पीर को समझने की सामर्थ्य ही किसमें है? उन प्यारे व्रजेन्द्रनन्दन प्राणधन के बिना मेरा हृदय फटा जा रहा है।’ इस प्रकार वे सदा तडपते-से रहते। मछली जैसे कीचड़ में छटपटाती है, सिर कटने पर बकरे का सिर जिस प्रकार थोड़ी देर तक इधर-उधर छटपटाता-सा रहता है उसी प्रकार वे दिन-रात छटपटाते रहते। रात्रि में उनकी विरह-वेदना और भी अधिक बढ़ जाती। उसी वेदना में वे स्थान को छोड़कर इधर-उधर भाग जाते और जहाँ भी बेहोश होकर गिर पड़ते वहीं पड़े रहते। एक दिन की एक अद्भुत घटना सुनिये–
नियमानुसार स्वरूप गोस्वामी और राय रामानन्द जी प्रभु को कृष्ण-कथा और विरह के पद सुनाते रहे। सुनाते-सुनाते अर्धरात्रि हो गयी। राय महाशय अपने घर चले गये, स्वरूप गोस्वामी अपनी कुटिया में पड़े रहे।
यह तो हम पहले ही बता चुके हैं कि गोविन्द का महाप्रभु के प्रति वात्सल्यभाव था। उसे प्रभु की ऐसी दयनीय दशा असह्य थी। जिस प्रकार वृद्धा माता अपने एकमात्र पुत्र को पागल देखकर सदा उसके शोक में उद्विग्न सी रहती है–उसी प्रकार गोविन्द सदा उद्विग्न बना रहता। प्रभु कृष्ण विरह में दु:खी रहते और गोविन्द प्रभु की विरहावस्था के कारण सदा खिन्न-सा बना रहता। वह प्रभु को छोड़कर पलभर भी इधर-उधर नहीं जाता। प्रभु को भीतर सुलाकर आप गम्भीरा के दरवाजे पर सोता। हमारे पाठकों में से बहुतों को अनुभव होगा कि किसी यंत्र का इंजिन सदा धक्-धक् शब्द करता रहता है। सदा उसके पास रहने वाले लोगों के कान में वह शब्द भर जाता है, फिर सोते-जागते में वह शब्द बाधा नहीं पहुँचाता, उसकी ओर ध्यान नहीं जाता, उसके इतने भारी कोलाहल में भी नींद आ जाती है।
रात्रि में सहसा वह बंद हो जाय तो झट उसी समय नींद खुल जाती है और अपने चारों ओर देखकर उस शब्द के बंद होने की जिज्ञासा करने लगते हैं। गोविन्द का भी यही हाल था। महाप्रभु रात्रिभर जोरों से करुणा के साथ पुकारते रहते–
श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
ये शब्द गोविन्द के कानों में भर गये थे, इसलिये जब भी ये बंद हो जाते तभी उसकी नींद खुल जाती और वह प्रभु की खोज करने लगता। स्वरूप गोस्वामी और राय महाशय के चले जाने पर प्रभु जोरों से रोते-रोते श्रीकृष्ण के नामों का कीर्तन करते रहे। गोविन्द द्वार पर ही सो रहा था। रात्रि में सहसा उसकी आँखे अपने-आप ही खुल गयीं। गोविन्द शंकित तो सदा बना ही रहता था, वह जल्दी से उठकर बैठ गया। उसे प्रभु की आवाज नहीं सुनायी दी। घबडाया-सा काँपाता हुआ वह गम्भीरा के भीतर गया। जल्दी से चकमक जलाकर उसने दीपक को जलाया। वहाँ उसने जो कुछ देखा, उसे देखकर वह सन्न रह गया। महाप्रभु का बिस्तरा ज्यों-का-त्यों ही पड़ा है, महाप्रभु वहाँ नहीं हैं। गोविन्द को मानो लाखों बिच्छुओं ने एक साथ काट लिया हो। उसने जोरों से स्वरूप गोस्वामी को आवाज दी। गुसाईं-गुसाईं ! प्रलय हो गया, हाय, मेरा भाग्य फूट गया। गुसाईं ! जल्दी दौडो। महाप्रभु का कुछ पता नहीं।’
गोविन्द के करुणाक्रन्दन को सुनकर स्वरूप गोस्वामी जल्दी से उतरकर नीचे आये। दोनों के हाथ कांप रहे थे। काँपते हुए हाथों से उन्होंने उस विशाल भवन के कोने-कोने में प्रभु को ढूँढा। प्रभु का कुछ पता नहीं। उस किले के समान भवन के तीन परकोटा थे, उनके तीनों दरवाजे ज्यों के त्यों ही बन्द थे। अब भक्तों को आश्चर्य इस बात का हुआ कि प्रभु गये किधर से। आकाश में उड़कर तो कहीं चले नहीं गये। सम्भव है यहीं कहीं पड़े हों। घबडाया हुआ आदमी पागल ही हो जाता है। बावला गोविन्द सुई की तरह जमीन में हाथ से टटोल-टटोलकर प्रभु को ढूँढने लगा। स्वरूप गोस्वामी ने कुछ प्रेम की भर्त्सना के साथ कहा– ‘गोविन्द ! क्या तू भी पागल हो गया ? अरे ! महाप्रभु कोई सुई तो हो ही नहीं गये जो इस तरह हाथ से टटोल रहा है, जल्दी से मशाल जला। समुद्रतट पर चलें, सम्भव है वहीं पडे होंगे। इस विचार को छोड़ दे कि किवाड़ें बंद होने पर वे बाहर कैसे गये। कैसे भी गये हों, बाहर ही होंगे’। कांपते-कांपते गोविन्द ने जल्दी से मशाल में तेल डाला, उसे दीपक से जलाकर वह स्वरूप गोस्वामी के साथ जाने को तैयार हुआ।
जगदानन्द, वक्रेश्वर पण्डित, रघुनाथदास आदि सभी भक्त मिलकर प्रभु को खोजने चले। सबसे पहले मन्दिर में ही भक्त खोजते थे। इसलिये सिंहद्वार की ही ओर सब चले। वहाँ उन्होंने बहुत सी मोटी-मोटी तैलंगी गौओं को खड़े देखा। पगला गोविन्द जोरों से से चिल्ला उठा– ‘यहीं होंगे।’ किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। भला गौओं के बीच में प्रभु कहां, सब आगे बढ़ने लगे। किन्तु विक्षिप्त गोविन्द गौओं के भीतर घुसकर देखने लगा। वहाँ उसने जो कुछ देखा उसे देखकर वह डर गया। जोरों से चिल्ला उठा– ‘गुसाईं ! यहाँ आओ देखो, यह क्या पडा है, गौएं उसे बडे ही स्नेह से चाट रही हैं। गोविन्द मशाल को उसके समीप ले गया और जोरों से चिल्ला उठा–‘महाप्रभु हैं।’ भक्तों ने भी ध्यान से देखा सचमुच महाप्रभु ही हैं। उस समय उनकी आकृति कैसी बन गयी थी उसे कविराज गोस्वामी के शब्दों में सुनिये–
पेटेर भितर हस्त–पाद कूर्मेर आकार।
मुखे फेन, पुलकांग नेत्रे अश्रुधार।।
अचेतन पड़िया छेन येन कूष्माण्डफल।
बाहिरे जड़िमा अन्तरे आनन्दविह्वल।।
गाभि सब चौदिके शुके प्रभुर श्रीअंग।
दूर कैले नाहि छाड़े प्रभुर अंग संग।।
अर्थात ‘महाप्रभु के हाथ-पैर पेट के भीतर धँसे हुए थे। उनकी आकृति कछुए की सी बन गयी थी। मुख से निरन्तर फेन निकल रहा था, सम्पूर्ण अंग के रोम खड़े हुए थे। दोनों नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। वे कूष्माण्ड-फल की भाँति अचेतन पड़े हुए थे। बाहर से तो जडता प्रतीत होती थी, किन्तु भीतर ही भीतर वे आनन्द में विह्वल हो रहे थे। गौएं चारों ओर खडी होकर प्रभु के श्रीअंग को सूँघ रही थीं। उन्हें बार-बार हटाते थे, किन्तु वे प्रभु के अंग के संग को छोडना ही नहीं चाहती थीं। फिर वहीं आ जाती थीं।’
अस्तु, भक्तों ने मिलकर संकीर्तन किया। कानों में जोरों से हरिनाम सुनाया, जल छिड़का, वायु की तथा और भी भाँति-भाँति के उपाय किये, किन्तु प्रभु को चेतना नहीं हुई। तब विवश होकर भक्तवृन्द उन्हें उसी दशा में उठाकर निवास स्थान की ओर ले चले। वहाँ पहुँचने पर प्रभु को कुछ-कुछ होश होने लगा। उनके हाथ पैर धीरे-धीरे पेट में से निकलकर सीधे होने लगे। शरीर में कुछ-कुछ रक्त का संचार सा होता हुआ प्रतीत होने लगा। थोड़ी ही देर में अर्धबाह्य दशा में आकर इधर-उधर देखते हुए जोरों के साथ क्रन्दन करते हुए कहने लगे– ‘हाय, हाय ! मुझे यहाँ कौन ले आया ? मेरा वह मनमोहन श्याम कहाँ चला गया? मैं उसकी मुरली की मनोहर तान को सुनकर ही गोपियों के साथ उधर चली गयी। श्याम ने अपने संकेत के समय वही मनोहारिणी मुरली बजायी। उस मुरली-रव में ऐसा आकर्षण था कि सखियों की पांचों इन्द्रियां उसी ओर आकर्षित हो गयीं।
ठकुरानी राधारानी भी गोपियों को साथ लेकर संकेत के शब्द को सुनकर उसी ओर चल पडीं। अहा ! उस कुंज-कानन में वह कदम्ब विटप के निकट ललित त्रिभंगीगति से खडा बांसुरी में सुर भर रहा था। वह भाग्यवती मुरली उसकी अधरामृत पान से उन्मत्त सी होकर शब्द कर रही थी। उस शब्द में कितनी करुणा थी, कैसी मधुरिमा थी, कितना आकर्षण था, कितनी मादकता, मोहकता, प्रवीणता, पटुता, प्रगल्भता और परवशता थी। उसी शब्द में बावली बनी मैं उसी ओर निहारने लगी। वह छिछोरा मेरी ओर देखकर हँस रहा था।’ फिर चौंककर कहने लगे– ‘स्वरूप ! मैं कहाँ हूँ ? मैं कौन हूँ ? मुझे यहाँ क्यो ले आये ? अभी-अभी तो मैं वृन्दावन में था। यहाँ कहाँ?’ प्रभु की ऐसी दशा देखकर स्वरूप गोस्वामी श्रीमद्भागवत के उसी प्रसंग के श्लोकों को बोलने लगे। उनके श्रवणमात्र से ही प्रभु की उन्मादावस्था फिर ज्यों की त्यों हो गयी। वे बार-बार स्वरूप गोस्वामी से कहते– ‘हां सुनाओ, ठीक है वाह-वाह, सचमुच हाँ यही तो है, इसी का नाम तो अनुराग है’। ऐसा कहते-कहते वे स्वयं ही श्लोक की व्याख्या करने लगते। फिर स्वयं भी बड़े करुणस्वर में श्लोक बोलने लगते–
प्रेमच्छेदरुजोऽवगच्छति हरिर्नायं न च प्रेम वा
स्थानास्थानमवैति नापि मदनो जानाति नो दुर्बला:।
अन्यो वेद न चान्यदु:खमखिलं नो जीवनं वाश्रवं
द्वित्रीण्येव दिनानि यौवनमिदं हा हा विधे: का गति:।।[1]
इस श्लोक की फिर आप ही व्याख्या करते-करते कहने लगे– ‘हाय ! दु:ख भी कितना असह्य है, यह प्रेम भी कैसा निर्दयी है। मदन हमारे ऊपर दया नहीं करता। कितनी बेकली है, कैसी विवशता है, कोई मन की बात को क्या जाने। अपने दु:ख का आप ही अनुभव हो सकता है। अपने पास तो कोई प्यारे को रिझाने की वस्तु नहीं ! मान लें वह हमारे नवयौवन के सौन्दर्य से मुग्ध होकर हमें प्यार करने लगेगा, सो यह यौवन भी तो स्थायी नहीं। जल के बुद्बुदों के समान यह भी तो क्षणभंगुर है। दो-चार दिनों में फिर अँधेरा-ही-अँधेरा है। हा ! विधाता की गति कैसी वाम है ! यह इतना अपार दु:ख हम अबलाओं के ही भाग्य में क्यों लिख दिया ? हम एक तो वैसे ही अबला कही जाती हैं, रहे-सहे बल को यह विरहकूकर खा गया। अब दुर्बलातिदुर्बल होकर हम किस प्रकार इस असह्य दु:ख को सहन कर सकें।’
इस प्रकार प्रभु अनेक श्लोकों की व्याख्या करने लगे। विरह के वेग के कारण आप से आप ही उनके मुख से विरहसम्बन्धी ही श्लोक निकल रहे थे और स्वयं उनकी व्याख्या भी करते जाते थे। इस प्रकार व्याख्या करते-करते जोरों से रुदन करते-करते फिर उसी प्रकार श्रीकृष्ण के विरह में उन्मत्त से होकर करुणकण्ठ से प्रार्थना करने लगे –
हा हा कृष्ण प्राणधन, हा हा पद्मलोचन !
हा हा दिव्यु सद्गुण-सागर !
हा श्यामसुन्दर, हा हा पीताम्बर-धर !
हा हा रासविलास-नागर !
काहां गेलेतोमा पाई, तुमि कह, ताहां याई !
एत कहि चलिला धाय्या !
हे कृष्ण ! हा प्राणनाथ ! हा पद्मलोचन ! ओ दिव्य सद्गुणों के सागर ! ओ श्यामसुन्दर ! प्यारे, पीताम्बरधर ! ओ रासविलासनागर ! कहाँ जाने से तुम्हें पा सकूँगा ? तुम कहो वहीं जा सकता हूँ। इतना कहते-कहते प्रभु फिर उठकर बाहर की ओर दौड़ने लगे। तब स्वरूप गोस्वामी ने उन्हें पकड़कर बिठाया। फिर आप अचेतन हो गये। होश में आने पर स्वरूप गोस्वामी से कुछ गाने को कहा। स्वरूपगोस्वामी अपनी उसी सुरीली तान से गीत गोविन्द के सुन्दर-सुन्दर पद गाने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [168]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram The wonderful figure of insanity
Oh, the three doors and the three walls without opening them He fell down in the midst of the fragrance of Kalingika The separation of Krishna’s thighs like a lotus from the thinning shrinkage- O king of the twins, Gauranga’s heart rises and intoxicates me.
Mahaprabhu’s divine state was very wonderful. When he was not aware of the body, then how can he care about keeping the body healthy? He used to do all his efforts considering himself completely separate from the body. We body practitioners get goosebumps just listening to their heart-wrenching stories. Can a living being forget such thoughts and do such a terrible business, which is feared only by hearing, but Chaitanyadev had made all these efforts and Shri Raghunathdas Goswami had seen them with his own eyes. Even if someone disbelieves in this much, he continues to do so. Describing the serious condition of Mahaprabhu, Kaviraj Goswami says-
Gambhira-bhitare ratre nahi nidra-lav, They were all wounded by the rubbing of their faces and heads on the wall. Three doors of the door Lord Yayen out, Sometimes they lie at the lion’s gate, sometimes in the waters of the sea.
Means ‘ Mahaprabhu did not sleep even for a moment inside the Gambhira temple. Sometimes they used to rub their face and head against the walls. Because of this, the stream of blood would start flowing and the whole face would get damaged. Sometimes they would come out even when the doors were closed, sometimes they would lie down at the lion’s gate and sometimes they would jump into the sea water.’ What a heart-wrenching description.
Sometimes they used to cry loudly in a very compassionate voice, listening to that compassionate cry, even the stones would start sweating and even the trees would be seen crying. He used to cry in very compassionate words and say-
Kahan Mor Prannath Muralivadan Where to do, where to get Vrajendranandan. Kahare kahib keva jaane more sorrow, Brijendranandan bina phate more book.
‘Oh ! Where is my Prannath? Where is my Manmohan Murlidhar, who has a beautiful Murli on his face? Hey what do I do? Where do I go ? Where can I find my dear Vrajendranandan? To whom shall I tell my heartache? Even if I tell, who will know my sorrow? Who has the ability to understand a stranger’s peer? My heart is bursting without that dear Vrajendranandan Prandhan.’ In this way he always used to suffer. Like a fish floundering in the mud, the way a goat’s head floundered here and there for a while when its head was cut off, in the same way they kept floundering day and night. His separation pain would have increased even more in the night. In the same agony, they would leave the place and run here and there and would remain lying wherever they fell unconscious. Listen to a wonderful incident of a day-
As per the rules, Swaroop Goswami and Rai Ramanand ji kept narrating Krishna-Katha and verses of separation to the Lord. It was midnight while reciting. Rai Mahasaya went to his house, Swaroop Goswami remained lying in his hut.
We have already told that Govind had great affection for Mahaprabhu. Such a pitiable condition of the Lord was unbearable for him. Just as an old mother seeing her only son mad is always worried about his grief – in the same way Govind would always be worried. Lord Krishna used to be sad in separation and Govind always remained sad because of Lord’s separation. He does not go here and there even for a moment leaving the Lord. You used to sleep at Gambheera’s door after putting the Lord to sleep inside. Many of our readers would have experienced that the engine of a machine is always humming. That word fills the ears of the people who are always near him, then that word does not disturb him while sleeping or waking up, he does not pay attention to it, he falls asleep even in such a loud noise.
If it stops suddenly in the night, then sleep opens at the same time and looking around you start inquiring about the closure of that word. Same was the condition of Govind. Mahaprabhu used to call loudly with compassion all night long-
Sri Krishna! Govind! Hare! Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!
These words filled Govind’s ears, so whenever they stopped, he used to wake up and start searching for the Lord. When Swarup Goswami and Rai Mahasaya left, the Lord kept on chanting the names of Shri Krishna while crying loudly. Govind was sleeping at the door itself. In the night, suddenly his eyes opened on their own. Govind always remained suspicious, he quickly got up and sat down. He could not hear the voice of the Lord. Trembling in panic, he went inside Gambheera. Quickly lighting the flint, he lit the lamp. He was stunned by what he saw there. Mahaprabhu’s bed is lying as it is, Mahaprabhu is not there. It was as if millions of scorpions had bitten Govind at once. He loudly called Swaroop Goswami. Gusaiin-Gusaiin! Disaster has happened, alas, my fate has burst. Angry! run fast Nothing is known of Mahaprabhu.
Svarupa Goswami hurriedly got down after listening to Govind’s Karunakrandan. Both their hands were trembling. With trembling hands, they searched for the Lord in every nook and corner of that huge building. God doesn’t know anything. The building had three walls like a fort, all their three doors were closed as they were. Now the devotees wondered from where the Lord had gone. They did not go anywhere after flying in the sky. It is possible that he is lying here somewhere. A confused man becomes mad. Crazy Govind started searching for the Lord by groping his hand like a needle in the ground. Swaroop Goswami said with some condemnation of love- ‘Govind! Have you gone mad too? Hey ! Mahaprabhu has not become a needle, who is groping with his hand like this, light the torch quickly. Let’s go to the beach, it is possible that he would be lying there. Leave the thought of how they went out when the doors were closed. No matter how you have gone, you must be outside. Trembling Govinda quickly poured oil into the torch, lit it with a lamp and prepared to go with Svarupa Goswami.
Jagadanand, Vakreshwar Pandit, Raghunathdas etc. all the devotees together went to find the Lord. First of all, they used to search for devotees in the temple itself. That’s why everyone went towards Singhdwar. There he saw many fat oil-fed cows standing. Crazy Govind shouted loudly – ’He will be here.’ No one paid attention to his words. Where is the Lord in the midst of the cows, everyone started moving forward. But the deranged Govind started looking inside the cows. He was horrified by what he saw there. Shouted loudly – ‘Gusai! Come here and see, what is it, the cows are licking it with great affection. Govind took the torch near him and shouted loudly – ’He is Mahaprabhu.’ Listen to the words of Kaviraj Goswami how his figure had become at that time-
peter bhitar hand-foot kurmer size. Mukhe Fen, Pulkang Netre Aashrudhar. Unconscious Padia Chen Yen Kushmandaphal. Bahire Jadima Antare Anandvihwal. Gabhi sab chowdike shuke Prabhur Shreeang. Prabhur Ang Sang.
Means ‘ Mahaprabhu’s hands and feet were sunk inside the stomach. His shape had become like that of a tortoise. Foam was continuously coming out of the mouth, the hairs of the whole body stood up. Tears were flowing from both the eyes. They were lying unconscious like a nectarine. From outside it seemed to be inert, but inside they were getting overwhelmed with joy. The cows were standing around and smelling the Lord’s body. They were removed again and again, but they did not want to leave the company of Lord’s body. Then she used to come there.
Astu, the devotees performed sankirtan together. Harinam was recited loudly in the ears, water was sprinkled, air and various other measures were taken, but the Lord did not regain consciousness. Then being compelled, the devotees picked him up in that condition and took him to the abode. On reaching there, the Lord started feeling something. His hands and feet gradually started to straighten out from the stomach. There seemed to be some circulation of blood in the body. Within a short time, after coming in semi-conscious state, looking here and there, crying out loudly, they started saying- ‘Woe, woe! who brought me here Where has that Manmohan Shyam of mine gone? I went there with the gopis only after listening to the melodious tone of his murli. Shyam played the same melodious Murli at the time of his signal. There was such an attraction in that Murli-Rav that all the five senses of the friends got attracted towards it.
Thakurani Radharani also took the Gopis along with her and started walking in the same direction after listening to the word of Sanket. Aha! In that grove, near Kadamba Vitap, he was filling notes in the flute standing in fine tribhangigati. That Bhagyavati Murli was reciting words like a maniac from his half-sweet paan. There was so much compassion, so much sweetness in that word, so much attraction, so much intoxicating, attractiveness, proficiency, cleverness, precociousness and dependence in that word. At the same word, I became crazy and started looking in the same direction. That Chhichhora was laughing looking at me.’ Then startled and said – ‘Swaroop! where am I ? Who am I ? Why did you bring me here? Just recently I was in Vrindavan. Where is here?’ Seeing such a condition of the Lord, Svarupa Goswami started reciting the verses of the same episode of Srimad Bhagavatam. Lord’s ecstatic state returned to normal just by listening to him. He would repeatedly say to Swaroop Goswami- ‘Yes tell me, okay wah-wah, really yes it is him, his name is Anurag’. Saying this, he himself used to explain the verse. Then he himself started reciting verses in a very compassionate voice-
The disease of love understands neither Hari nor love We are weak and Madana does not know our places No one else knows and no one else knows the suffering of our whole life or hearing This youth is only two days old, alas, alas, what is the fate of the law?
While explaining this verse, you yourself started saying- ‘Hi! How unbearable is sorrow, how cruel is this love. Madan does not show mercy on us. What a helplessness, what a helplessness, how can one know what is in one’s mind. Only you can experience your sorrow. You don’t have anything to please your beloved! Suppose he will fall in love with us after being mesmerized by the beauty of our youth, so even this youth is not permanent. It is also fleeting like the bubbles of water. In two-four days it is dark again. Ha! How left is the speed of the Creator! Why has this immense sorrow been written in the fate of us weak ones only? We are called weak in the same way, this separation has eaten away the strength. Now how can we bear this unbearable sorrow by being weak and weak.
In this way the Lord started explaining many verses. Due to the speed of separation from you, only verses related to separation were coming out of his mouth and he used to explain them himself. While explaining in this way, while crying loudly, then in the same way, in the separation of Shri Krishna, he started praying to Karunkanth –
Ha Ha Krishna Prandhan, Ha Ha Padmalochan! Ha ha divine ocean of virtues! Ha Shyamsundar, Ha Ha Pitambar-Dhar! Ha ha Rasvilas-Nagar! Where did you get Geletoma, you say, I went there! Let’s go here!
Hey Krishna! Hey Prannath! Oh Padmalochan! O ocean of divine virtues! O Shyamsundar! Dear Pitambardhar! O Rasvilasnagar! Where can I find you by going? You say I can go there. Saying this, the Lord again got up and started running outside. Then Swarup Goswami held him and made him sit. Then you became unconscious. On regaining consciousness asked Swarup Goswami to sing something. Swaroopgoswami started singing the beautiful verses of Geet Govind in the same melodious tone.
respectively next post [168] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]