।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
व्रत-बन्ध
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।
वेदपाठी भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः।।
संस्कार ही जीवन-पथ के परिचायक चिह्न हैं। जैसे संस्कार होंगे उन्हीं के अनुसार जीवन आगे बढ़ेगा। संयम और नियम ही उन्नति के साधन हैं। पूज्यपाद महर्षियों ने संयम के ही सिद्धान्तों पर वर्णाश्रम-धर्म का प्रसार किया और उनके लिये पृथक-पृथक विधान बनाये। द्विजातियों के लिये 16 संस्कारों की आज्ञा दी। गर्भाधान से लेकर मृत्यु अथवा संन्यास-पर्यन्त सभी संस्कारों की एक विशेष विधि का निर्माण किया। जिनसे चित्त पर प्रभाव पड़े और भविष्य-जीवन उज्ज्वल बन सके। द्विजातियों का वेदारम्भ और उपवीत-संस्कार यही प्रधान संस्कार समझा जाता है।
असल में यज्ञोपवीत-संस्कार होने पर ही बालक के ऊपर वैदिक कर्म लागू होते हैं, इसीलिये इसे व्रत-बन्ध-संस्कार भी कहते हैं। पूर्वकाल में बच्चा जब पढ़ने के योग्य हो जाता था, तो उसे सद्गुरु के आश्रम में ले जाते थे, गुरु उसे ग्रहण करके शौच, आचार और वेद की शिक्षा देते थे। बस, इसी को उपनयन-संस्कार कहते थे। विद्या समाप्त होने पर गुरु की आज्ञा से शिष्य जब घर को लौटता था, तो उसे समावर्तन-संस्कार कहते थे। ये तीनों संस्कार आज भी नाममात्र को होते तो हैं, किन्तु इन तीनों का अभिनय एक ही दिन में करा दिया जाता है। यह विकृत संस्कार आज भी हमारी महत्ता का स्मरण दिलाता है। आज निमाई का यज्ञोपवीत-संस्कार होगा। घर में विवाह-शादी की तरह तैयारियाँ हो रही हैं, मिश्र जी ने अपनी शक्ति के अनुसार इस संस्कार को खूब धूमधाम से करने का निश्चय किया है। घर के आँगन में एक मण्डप बनाया गया है। उसमें एक ओर विद्वान ब्राह्मण बैठे हुए हैं, उनके पीछे मिश्र जी के सम्बन्धी और स्नेही बैठे हैं। सामने स्त्रियाँ बैठी हैं, जो भाँति-भाँति के मंगलगीत गा रही हैं। द्वार पर बाजे बज रहे हैं, चारों ओर खूब चहल-पहल दिखायी पड़ती है।
ग्रहपूजा और हवनादि का कार्य कराने के निमित्त आचार्य सुदर्शन और विष्णु पण्डित प्रभृति विद्वान मिश्रजी के पास मण्डप में बैठे हुए हैं। यथासमय क्षौर कराकर निमाई मण्डप में बुलाये गये। उनका सिर घुटा हुआ था, आचार्य ने उन्हें अपने हाथों से ब्रह्मचारियों के- से पीत वस्त्र पहनाये। पीले वस्त्र की लंगोटी पहनायी, ओढ़ने को मृगचर्म दिया और हाथ में बड़ा-सा एक पलास का दण्ड दिया। अब निमाई पूरे ब्रह्मचारी बन गये। गौर वर्ण के उज्ज्वल शरीर पर पीत वस्त्र बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। पिता के पास बैठकर इन्होंने समिधाधान किया, अग्नि में आहुति दी और यज्ञोपवीत धारण किया।
मिश्र जी ने एक वस्त्र की आड़ करके इनके कान में वेदमाता सावित्री अथवा गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। मन्त्र के श्रवण मात्र से ये भाव में निमग्न हो गये। मन्त्र सुनते ही इन्होंने एक बड़े जोर की हुंकार मारी और साथ ही अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। हाथ का दण्ड एक ओर पड़ा था और ये अचेत होकर पृथ्वी पर दूसरी ओर पड़े थे। दोनों नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, प्राणवायु बहुत धीरे-धीरे चल रहा था। यज्ञ के धूम्र लगने से लाल-लाल आँखें आधी खुली हुई थीं और ये संज्ञा शून्य हुए चुपचाप पृथ्वी पर पड़े थे। इनकी ऐसी अवस्था देखकर सभी घबड़ा गये। मिश्र जी ने इनके मुँह में जल डाला। कई आदमी पंखे से हवा करने लगे। धीरे-धीरे इनकी मूर्च्छा भंग हुई और ये कुछ काल में सचेत हो गये। सभी को इनकी इस अवस्था से महान आश्चर्य हुआ। सचेत होने पर इन्होंने पिता जी से कहा- ‘पिता जी! अब मुझे क्या करना चाहिये?’
ब्रह्मचर्य-व्रत लेने पर छात्र को गुरु-गृह में रहकर भिक्षा पर ही निर्वाह करना होता था, यज्ञोपवीत के समय आज भी एक दिन के लिये भिक्षा का अभिनय कराया जाता है। इसीलिये अब निमाई को भिक्षा माँगने के लिये झोली दी गयी। निमाई के हृदय पर उस संस्कार का बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा था। इन कृत्यों के कारण इनकी कायापलट-सी हो गयी। मुख पर एक अपूर्व ज्योति दृष्टिगोचर होने लगी। मुँड़ा हुआ माथा सूर्य के प्रकाश में दमकने लगा। एक हाथ में दण्ड लिये और दूसरे में झोली लटकाये ब्रह्मचारी के वेश में निमाई बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। मानो वामन भगवान अपने भक्त बलि से भिक्षा माँगने जा रहे हों। ये पहले अपनी माता के पास भिक्षा माँगने गये, फिर बारी-बारी से सभी के पास भिक्षा माँगने लगे।
आचार्य ने इन्हें भिक्षा माँगने का प्रकार बता दिया था। उसी प्रकार ये सबके सामने जाते और- ‘भवति भिक्षां देहि’ कहकर झोली सामने कर देते। स्त्रियाँ इनके रूप-लावण्य को देखकर मुग्ध हो गयीं, माता मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थीं, उनके हृदय में पुत्र-स्नेह की हिलोरें निरन्तर उठ रही थीं। वे निमाई की शोभा को देखते-देखते तृप्त ही न होती थीं। अतृप्त दृष्टि से वे नीचा सिर किये हुए धीरे-धीरे निमाई की ओर निहार रही थीं। स्त्रियाँ इन्हें भाँति-भाँति की वस्तुएँ भेंट में देतीं। कोई फल देती, कोई मिठाई का थाल और कोई-कोई इनकी झोली में द्रव्य डाल देतीं। ये सभी के पास जाकर खड़े हो जाते, जिसके भी सामने खडे़ होते उसी की इच्छा होती कि इसे सर्वस्व समर्पण कर दें। इस प्रकार ये भिक्षा माँगते हुए इधर-से-उधर घूमने लगे।
इसी बीच में एक वृद्ध ब्राह्मण लाठी टेकते-टेकते संस्कारमण्डप में आया। उसने निमाई को इशारे से अपने पास बुलाया, ये जल्दी से उसके समीप चले गये। उसने अपने काँपते हुए हाथों से एक सुपारी इनकी झोली में डाल दी। इन्होंने उस सुपारी को जल्दी से झोली में से निकालकर अपने मुँह में डाल लिया। सुपारी के खाते ही इनकी विचित्र दशा हो गयी। ये किसी भारी भावावेश में मग्न हो गये और उसी भावावेश में माता से गम्भीर स्वर में बोले- ‘माँ! आज से एकादशी के दिन अन्न कभी न खाया करना, माता भी भावावेश में अपने को भूल गयी। वह समझ न सकी कि निमाई ही मुझसे उक्त बात कह रहा है। उसे प्रतीत हुआ मानो कोई दिव्य पुरुष मुझे आदेश कर रहे हैं। इसीलिये उसने विनय के साथ उत्तर दिया- ‘जो आज्ञा, आज से हरिवासर के दिवस अन्न ग्रहण न करूँगी।’ थोड़ी देर में इन्होंने कहा- ‘अच्छा, अब हम जाते हैं, अपने पुत्र की रक्षा करना।’ इतना कहकर ये फिर अचेत होकर गिर पड़े और थोड़ी देर बाद चारों ओर अपनी बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखों को फाड़-फाड़कर देखने लगे, मानो व्रत-बन्ध कोई नींद से जागा हुआ आदमी आश्चर्य के साथ अपने पास के अपूर्व कार्यों को देख रहा हो। इनके प्रकृतिस्थ होने पर मिश्र जी ने पूछा- ‘बेटा! क्या बात थी, तुम क्या कह रहे थे’
इन्होंने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘नहीं तो पिता जी! मैंने तो कोई बात नहीं कही। मुझे कुछ भी पता नहीं, जाने क्या हुआ। मुझे कुछ निद्रा-सी प्रतीत होने लगी थी।’ इस बात को सुनकर सभी इस भावावेश के सम्बन्ध में भाँति-भाँति के तर्क-वितर्क करने लगे। किसी ने कहा- ‘किसी भूत-प्रेत का आवेश है’, किसी ने कहा- ‘किसी दिव्यात्मा का आवेश है।’ भक्तों ने कहा- ‘नहीं, यह साक्षात हरिभगवान का आवेश है।’ उसी दिन यज्ञोपवीत के समय इनका नाम ‘गौरहरि’ हुआ। स्त्रियों को यह नाम बहुत ही प्रिय था। अबसे वे निमाई को प्रायः ‘गौर’ या ‘गौरहरि’ ही कहकर पुकारने लगीं। यज्ञोपवीत-संस्कार के समाप्त होने पर गौर का समावर्तन-संस्कार किया गया। उनके वस्त्र बदल दिये गये। माता ने बड़ी-बड़ी आँखों में काजल लगा दिया। नूतन वस्त्र पहनकर गौर बाहर आये। उन्होंने सबसे पहले पिता के चरणों को स्पर्श करके प्रणाम किया, फिर क्रमशः सभी वृद्ध ब्राह्मणों की चरण-वन्दना की। ब्राह्मणों ने इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद दिये। इस प्रकार बड़े ही आनन्द के साथ इनका व्रत-बन्ध-संस्कार समाप्त हुआ।
यज्ञोपवीत हो जाने के अनन्तर ये आचार्य सुदर्शन और विष्णु पण्डित के समीप पढ़ने के लिये जाने लगे। इनकी मेधाशक्ति बाल्यकाल से ही बड़ी तीक्ष्ण थी। अध्यापक एक बार जो इन्हें पढ़ा देते, फिर दूसरी बार इन्हें पूछने की आवश्यकता नहीं होती थी। इसीलिये अध्यापक इनसे बहुत ही प्रसन्न रहने लगे।
थोड़े दिनों के पश्चात् मिश्र जी ने इन्हें मायापुर के निकटवर्ती गंगानगर की पाठशाला में पढ़ने के लिये भेजा। उस समय उस पाठशाला के प्रधानाध्यापक पण्डित गंगादास जी थे। पण्डित गंगादास जी व्याकरण के अद्वितीय विद्वान थे। व्याकरण में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी, बड़े-बड़े़ योग्य छात्र उनकी पाठशाला में अध्ययन करते थे। उस समय व्याकरण की वही पाठशाला मुख्य थी। निमाई भी अन्य छात्रों के साथ पण्डित गंगादास जी के समीप व्याकरण का अध्ययन करने लगी।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
fasting
A Sudra is born by birth and a Brahmin by ritual.
A brāhmaṇa who reads the Vedas and knows the Absolute Truth should become a Brahmin.
Rituals are the hallmarks of the path of life. Life will move forward according to the manners one has. Restraint and rules are the means of progress. Pujyapad Maharishi spread Varnashram-Dharma on the principles of restraint and made separate laws for them. Ordered 16 sacraments for the two castes. Created a special method for all the sacraments from conception to death or retirement. By which the mind can be affected and the future life can become bright. Vedarambh and Upaveet-sanskar of two castes are considered to be the main rituals.
In fact, Vedic rituals are applicable on the child only after the Yagyopaveet Sanskar, that is why it is also called Vrat-Bandha-Sanskar. In the past, when the child was able to read, he was taken to Sadguru’s ashram, the Guru used to receive him and teach him toilet, conduct and Vedas. Simply, this was called Upanayana-sanskar. When the disciple used to return home with the permission of the Guru after the end of the education, it was called Samavartan-sanskar. Even today these three rites are performed to a lesser extent, but all three are performed in a single day. This distorted culture reminds us of our importance even today. Today there will be a sacrificial ceremony of Nimai. Preparations are being made in the house like a wedding, Mishra ji has decided to perform this ritual with great pomp according to his power. A pavilion has been built in the courtyard of the house. Another scholar Brahmin is sitting in it, behind him are the relatives and friends of Mishra ji. Women are sitting in front, who are singing different auspicious songs. Instruments are playing at the door, a lot of activity is visible all around.
Acharya Sudarshan and Vishnu Pandit Prabhriti are sitting in the mandap near scholar Mishraji for the work of Grahapuja and Havanadi. They were called to the Nimai Mandap after getting Kshaur done on time. His head was covered, Acharya with his own hands dressed him in the yellow clothes of Brahmacharis. Dressed in a loincloth of yellow cloth, gave deer skin to cover it and put a big palas stick in hand. Now Nimai has become a complete celibate. Yellow clothes looked very good on the bright body of Gaur Varna. Sitting near his father, he did samidhadhan, offered oblations in the fire and wore Yagyopaveet.
Under the guise of a cloth, Mishra ji preached Vedmata Savitri or Gayatri-Mantra in his ear. He got engrossed in emotion just by listening to the mantra. As soon as he heard the mantra, he shouted loudly and at the same time fell unconscious on the earth. The stick of the hand was lying on one side and he was lying unconscious on the earth on the other side. Streams of tears were flowing from both the eyes, Pranavayu was moving very slowly. Red-red eyes were half-open due to the smoke of the yagya and these nouns were silently lying on the earth. Seeing his condition like this, everyone got scared. Mishra ji poured water in his mouth. Many men started fanning the air. Gradually his unconsciousness got dissolved and he became conscious in some time. Everyone was very surprised by his condition. On becoming conscious, he said to his father- ‘Father! What should I do now?’
After taking the vow of celibacy, the student had to stay in the Guru’s home and live on alms, at the time of Yagyopaveet, even today, alms is performed for one day. That’s why now Nimai was given a bag to beg. That ritual had a deep impact on Nimai’s heart. Due to these acts, their metamorphosis took place. An amazing light started appearing on his face. The shaved forehead started shining in the sunlight. Carrying a stick in one hand and a bag hanging in the other, Nimai looked very good in the guise of a celibate. As if Lord Vamana is going to beg for alms from his devotee Bali. He first went to his mother to beg, then in turn started begging to everyone.
Acharya had told him the way of begging. In the same way, he used to go in front of everyone and by saying ‘Bhavati Bhikshan Dehi’, he would have put his bag in front of them. The women were mesmerized by seeing his beauty, the mother was happy in her heart, the love of her son was continuously rising in her heart. She was never satisfied seeing the beauty of Nimai. With unsatisfied eyes, she was looking slowly towards Nimai with her head lowered. Women used to gift them various things. Some would give fruits, some a plate of sweets and some would put liquid in their bag. He would go and stand near everyone, in front of whomever he would stand, he would have the desire to surrender everything to him. In this way, he started roaming here and there begging.
Meanwhile, an old Brahmin came to the Sanskar Mandap, leaning on a stick. He beckoned Nimai to him, who quickly went near him. He put a betel nut in his bag with his trembling hands. He quickly took out that betel nut from his bag and put it in his mouth. His condition became strange after eating betel nut. He got engrossed in some heavy emotion and in the same emotion said to his mother in a serious voice – ‘Mother! Never eat food on the day of Ekadashi from today, mother also forgot herself in emotion. She could not understand that it was Nimai who was saying the above thing to me. It appeared to him as if some divine man was ordering me. That’s why he replied with humility- ‘As per the order, I will not take food from today on the day of Harivasar.’ After a while he said- ‘Okay, now we go to protect our son.’ After saying this, he fainted again. Fell down and after a while started looking around with his big red-red eyes tearing apart, as if a man awakened from a fasted sleep is looking with wonder at the wonderful works around him. When he became natural, Mishra ji asked – ‘ Son! What was the matter, what were you saying?
He replied simply – ‘No, father! I didn’t say anything. I don’t know what happened. I was beginning to feel somewhat sleepy.’ Hearing this, everyone started arguing in various ways regarding this emotion. Some said- ‘It is possessed by some ghost’, some said- ‘It is possessed by some divine soul.’ Devotees said- ‘No, it is possessed by Lord Hari.’ ‘ Happened. This name was very dear to women. From now on, she often started calling Nimai as ‘Gaur’ or ‘Gaurhari’. At the end of the sacrificial ceremony, Samavartan-sanskar of Gaur was performed. His clothes were changed. Mother applied kajal in her big eyes. Gaur came out wearing new clothes. He first bowed down by touching his father’s feet, then he worshiped the feet of all the old Brahmins respectively. Brahmins gave them various blessings. In this way, with great joy, their fast-bondage-rituals ended.
After becoming Yagyopaveet, he started going to study near Acharya Sudarshan and Vishnu Pandit. His intelligence was very sharp since childhood. Once the teacher taught them, then there was no need to ask them for the second time. That’s why the teachers were very happy with him.
After a few days, Mishra ji sent him to study in the school of Ganganagar near Mayapur. At that time, the headmaster of that school was Pandit Gangadas ji. Pandit Gangadas ji was a unique scholar of grammar. His fame in grammar had spread far and wide, great able students used to study in his school. At that time the same school of grammar was the main one. Nimai also started studying grammar with other students near Pandit Gangadas ji.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]