[22]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

विद्याव्यासंगी निमाई

अन्या जगद्धितमयी मनसः प्रवृत्ति-

रन्यैव कापि रचना वचनावलीनाम्।

लोकोत्तरा च कृतिराकृतिरंगहृद्या

विद्यावतां सकलमेव गिरां दवीयः।।

प्रायः मेधावी बालक गम्भीर होते हैं। उनके गाम्भीर्य में उनका पाण्डित्य प्रस्फुटित नहीं होता, वे लोगों के सम्मान-भाजन तो अवश्य बन जाते हैं, किन्तु सभी साथी उनसे खुलकर बातें नहीं कर सकते। उनके साथ संलाप करने में कुछ संकोच और भय-सा हुआ करता है। यदि प्रखर बुद्धिवाला छात्र मेधावी होने के साथ ही चंचल, हँसमुख और मिलनसार भी हो तब तो उसका कहना ही क्या? सुहागा मिले सोने में मानो सुगन्ध भी विद्यमान है। ऐसा छात्र छोटे-बड़े सभी छात्रों तथा अध्यापकों का प्रीति-भाजन बन जाता है। निमाई ऐसे ही विद्यार्थी थे। ये आवश्यकता से अधिक चंचल थे ओर वैसे ही अद्वितीय मेधावी। हँसी का तो मानो मुख से सदा फुव्वारा ही छूटता रहता। ये बात-बात पर खूब जोरों से खिलखिलाकर हँसते और दूसरों को भी अपने मनोहर विनोदों से हँसाते रहते। इनके पास मुँह लटकाये कोई बैठ ही नहीं सकता था, ये रोते को हँसाने वाले थे। पं. गंगादास जी की पाठशाला में बहुत बडे़-बड़े विद्यार्थी अध्ययन करते थे, जो इनसे विद्यावृद्ध होने के साथ ही वयोवृद्ध भी थे। 30-30, 40-40 वर्ष के छात्र पाठशाला में थे।

इनकी अवस्था अभी 13-14 ही वर्ष की थी, फिर भी ये बड़े छात्रों से सदा छेड़खानी करते रहते। उन छात्रों में बहुत-से तो बड़े ही मेधावी और प्रत्युत्पन्नमति थे, जो आगे चलकर लोक-प्रसिद्ध पण्डित हुए। प्रसिद्ध कवि मुरारी गुप्त, कमलाकान्त, तन्त्र शास्त्र के सर्वमान्य आचार्य कृष्णानन्द उन दिनों उसी पाठशाला में पढ़ते थे। निमाई छोटे-बड़े किसी से भी संकोच नहीं करते थे, ये सभी से भिड़ जाते और उनसे वाद-विवाद करने लगते। विशेषकर ये वैष्णव-विद्यार्थियों को खूब चिढ़ाया करते थे। उनकी भाँति-भाँति से मीठी-मीठी चुटकियाँ लेते और उन्हें लज्जित करके ही छोड़ते थे। मुरारी गुप्त इनसे अवस्था में बड़े थे, किन्तु ये उन्हें सदा चिढ़ाया करते। मुरारी पहले तो बालक समझकर सदा इनकी उपेक्षा करते रहते। जब उन्हें इनकी विलक्षण बुद्धि का परिचय प्राप्त हुआ, तब तो वे इनके साथ खूब बातें करने लगे। ये कहते- ‘मुरारी! अमुक प्रयोग को सिद्ध करो।’ मुरारी उसे ठीक-ठीक सिद्ध करते। ये उसमें बीसों दोष निकालते, उसका कई प्रकार से खण्डन करते।

मुरारी इनकी तर्कशैली को सुनकर आश्चर्य प्रकट करने लगते, तब आप एक-एक शंका का समाधान करते हुए मुरारी के ही मत को स्थापित करते। फिर हँसकर कहते- ‘गुप्त महाशय! यह तो पण्डितों का काम है, आप ठहरे वैद्यराज! जड़ी-बूटी घोंट-पीसकर गोली बनाना सीख ली! नाड़ी देख ली, फिर चाहे रोगी मरे या जीये, तुम्हें अपने टके से काम। ‘वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर। यमस्तु हरते प्राणान् त्वं तु प्राणान् धनानि च।।’ तुम तो यमराज के सहोदर हो। तुम्हें नमस्कार है।’ मुरारी इनकी ये बातें सुनते और मन-ही-मन लज्जित होते, ऊपर से इनके साथ हँसने लगते, इस प्रकार ये मुरारी के साथ सदा ही विनोद करते रहते। कभी-कभी मुरारी अत्यन्त चिढ़ाने से खिन्न भी हो जाते, तब ये अपना कोमल कर कमल उनकी देहर पर फेरने लगते। इनके स्पर्शमात्र से ही वे सब बातें भूल जाते और इनके प्रति अत्यन्त स्नेह प्रकट करने लगते। मुरारी से इनकी खूब पटती थी और मुरारी भी इनसे हार्दिक स्नेह करते थे।

वाद-विवाद करने में ये अद्वितीय थे। जो भी छात्र मिल जाता उसी से भिड़ पड़ते और वह चाहे उल्टा कहे या सीधा, सभी का खण्डन करते और उसे परास्त करके ही छोड़ते। अपने-आप ही पहले किसी विषय का खण्डन कर देते, फिर युक्तियों द्वारा स्वयं ही उसका मण्डन भी करने लगते। विद्यार्थी इनकी ऐसी विलक्षण बुद्धि की बारम्बार बड़ाई करते और इनकी वाक्पटुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते। किसी भी पाठशाला के छात्र को गंगा तट पर या कहीं अन्यत्र रास्ते में पाते वहीं उसे पकड़ लेते और उससे संस्कृत में पूछते- ‘तुम्हारे गुरु का क्या नाम है? क्या पढ़ते हो?’ जब वह कहता अमुक पाठशाला में व्याकरण पढ़ता हूँ, तब झट आप उससे प्रयोग पूछने लगते। बेचारा विद्यार्थी इनसे जिस किसी भाँति अपना पीछा छुड़ाकर भागता।

शाम के समय सभी पाठशालाओं के छात्र दल बना-बनाकर गंगा जी के किनारे आते और परस्पर में शास्त्रालाप किया करते। ये उन सबमें प्रधान रहते। कभी किसी पाठशाला के छात्रों के साथ शास्त्रार्थ कर रहे हैं, कभी किसी पाठशाला के छात्रों को परास्त कर रहे हैं, यही इनका नित्यप्रति का कार्य था। दस-दस, बीस-बीस छात्र मिलकर इनसे शंका करने लगते। ये बारी-बारी से सबका उत्तर देते। इनकी पाठशाला वाले इनका पक्ष लेते। कभी-कभी बातों-ही-बातों में वितण्डा भी होने लगता और मार-पीट तक की नौबत आ जाती। इस बात में भी ये किसी से कम नहीं थे। इस प्रकार ये सभी पाठशालाओं के छात्रों में प्रसिद्ध हो गये। विद्यार्थी इनकी सूरत से घबड़ाते थे।

उन दिनों आजकल की भाँति व्याकरण के टीकाग्रन्थों का प्रचार नहीं था, छापेखाने नहीं थे, इसलिये पुस्तकें हाथ से ही लिखनी पड़ती थीं और मूल के साथ ही टीका को भी कण्ठस्थ करना पड़ता था। अध्यापक टीकाओं के ऊपर जो टिप्पणियाँ बताते उन्हें छात्र भूल जाते थे। इसलिये कई छात्र परस्पर मिलकर पाठ को विचार न लें तब तक पाठ लगता ही नहीं था। अब भी पाठशालाओं में बुद्धिमान छात्र अपने साथियों को पाठ विचरवया करते हैं। निमाई भी अपने साथियों को पाठ विचरवाते, इसलिये सभी छात्र इनका गुरु की भाँति आदर करते थे। ये विषय को इस ढंग से समझाते थे कि मूर्ख-से-मूर्ख भी छात्र सहज ही में पढे़ हुए पाठ को समझ जाता था।

उन दिनों गौरांग व्याकरण के ‘पंचीटीका’ नामक ग्रन्थ को समाप्त कर चुके थे, इन्होंने उसके ऊपर एक सरल टिप्पणी भी लिखी। इनकी की हुई टीका के ऊपर टिप्पणी विद्यार्थियों के बड़े ही काम की थी, बहुत शीघ्र ही विद्यार्थियों में इनकी टिप्पणी का प्रचार हो गया और बड़े-बड़े विद्वानों ने इनकी पाण्डित्यपूर्ण टिप्पणी की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। यहीं तक नहीं, उस टिप्पणी का नवद्वीप से बाहर अन्य देशों के छात्रों में भी प्रचार हुआ और सभी ने इनके पाण्डित्य की सराहना की। इस प्रकार इनकी प्रशंसा दूर-दूर तक फैल गयी। व्याकरण के साथ ही ये अलंकार के भी पाठ सुनते अैर उन्हें सुनते-सुनते ही हृदयंगम करते जाते थे। इस प्रकार ये थोड़े ही समय में व्याकरण तथा अलंकार में प्रवीण हो गये। उन दिनों नवद्वीप में जो न्याय का बोलबाला था। पण्डित व्याकरण पढ़कर न्याय नहीं जानता, उसका विशेष सम्मान नहीं होता था। न्याय में उन दिनों पं. वासुदेव सार्वभौम नदिया के राजा समझे जाते थे। न्याय में उन्हीं की पाठशाला सर्वश्रेष्ठ समझी जाती थी और उसमें सैकड़ों छात्र पढ़ते थे।

उस पाठशाला के पढे़ हुए छात्र आज संसारप्रसिद्ध पण्डित माने जाते हैं। नव्यन्याय की जो टीका ‘जागदीशी’ के नाम से न्याय का ही परिचय देती है उसी के प्रणेता पं. जगदीश के भी गुरु भवानन्द इसी पाठशाला के छात्र थे। ‘दीधिति’ नामक जगत्प्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रणेता पं. रघुनाथ जी भी उन दिनों इसी पाठशाला में पढ़ते थे। इस प्रकार वह पाठशाला न्याय का एक भारी केन्द्र बनी हुई थी। निमाई भी पाठशाला में जाकर न्याय का पाठ सुनने लगे। ऐसी पाठशालाओं में प्रत्येक छात्रों के पृथक पाठ नहीं चलते हैं। दस-पाँच पाठ होते हैं, अपनी जैसी योग्यता हो, उसी पाठ को जाकर सुनते रहो, बस, यही पढ़ाई थी। सैकड़ों छात्र और पण्डित पाठ सुनने आते हैं।

अध्यापक उनमें से बहुतों का नाम-पता भी नहीं जानते। वे पाठ सुनकर चले जाते हैं। आज भी काशी आदि बड़े-बड़े स्थानों की प्राचीन ढंग की पाठशालाओं में ऐसा ही रिवाज है। निमाई भी पाठशाला में जाकर पाठ सुन आते। सार्वभौम महाशय का उन दिनों इनके साथ कोई विशेष परिचय नहीं हुआ, किन्तु इनकी चंचलता, चपलता, वाक्पटुता और लोकोत्तर मेधा के कारण मुख्य-मुख्य छात्र इनसे बहुत स्नेह करने लगे। वे यह भी जानने लगे कि न्याय-जैसे गम्भीर विषय को निमाई भलीभाँति समझता है। वह अन्य बहुत-से छात्रों की भाँति केवल सुनकर ही नहीं चला जाता। पीछे जिनका हम उल्लेख कर चुके हैं वे ही ‘दीधिति’ महाग्रन्थ के रचयिता पण्डित रघुनाथ उन दिनों सभी छात्रों में सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। उन्हें स्वयं भी अपनी तर्कशक्ति और विलक्षण बुद्धि का भरोसा था। उनकी उस समय से ही यह प्रबल वासना थी कि मैं भारतवर्ष में एक प्रसिद्ध नैयायिक बनूँ। सम्पूर्ण देश में मेरी विलक्षण बुद्धि की ख्याति हो जाय। जो जैसे होनहार होते हैं, उनकी पहले से ही वैसी भावना होती है।

रघुनाथ की भी सर्वमान्य बनने की पहले से ही वासना थी। रघुनाथ के साथ निमाई का परिचय पहले से ही हो चुका था। उनके साथ इनकी गाढ़ी मैत्री भी हो चुकी थी। निमाई कभी-कभी रघुनाथ के निवासस्थान पर भी जाया करते और उनसे न्याय सम्बन्धी बातें किया भी करते थे। इनकी बातचीत से ही रघुनाथ समझ गये कि यह भी कोई होनहार नैयायिक हैं। वे समझते थे कि मुझसे न्याय में स्पर्धा रखने वाला नवद्वीप में दूसरा कोई छात्र नहीं है। निमाई से बातचीत करते-करते कभी उन्हें खटकने लगता कि यदि यह इसी प्रकार परिश्रम करता रहा, तो सम्भवतया मुझसे बढ़ सकता है। किन्तु उन्हें अपनी बुद्धि पर पूरा भरोसा था, इसलिये इस विचार को वे अपने हृदय में जमने नहीं देते थे।

एक दिन रघुनाथ को गुरु ने कोई ‘पंक्ति’ लगाने को दी। वह ‘पंक्ति’ रघुनाथ की समझ में ही नहीं आयी। वे दिनभर चुपचाप बैठे हुए उसी पंक्ति को सोचते रहे। तीसरे पहर जाकर वह पंक्ति रघुनाथ की समझ में आयी, उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। गुरु को बताकर वे अपने स्थान पर भोजन बनाने चले गये। निमाई का स्वभाव तो चंचल था ही, रघुनाथ को पाठशाला में न देखकर आप उनके निवासस्थान पर पहुँचे। वहाँ जाकर देखा रघुनाथ भोजन बना रहे हैं। लकड़ी गीली है। रघुनाथ बार-बार फूँकते हैं, अग्नि जलती ही नहीं। धुएँ के कारण उनकी आँखें लाल पड़ गयी हैं और उनमें से पानी निकल रहा है। हँसते हुए निमाई ने रघुनाथ के चैके में प्रवेश किया। प्रेम के साथ हँसते हुए बोले- ‘पण्डित महाशय! आज असमय में रन्धन क्यों हो रहा है।’

अग्नि में फूँक देते हुए रघुनाथ ने कहा- ‘क्या बताऊँ भाई! गुरु जी ने एक ‘पंक्ति’ लगाने के लिये दी थी, वह मेरी समझ में ही नहीं आयी। दिनभर सोचते रहने पर अब समझ में आयी, उसे अभी गुरुजी को सुनाकर आया हूँ, इसीलिये भोजन बनाने में देर हो गयी।’

जल्दी से निमाई ने कहा- ‘जरा हम भी तो उस पंक्ति को सुनें। पंक्ति क्या थी आफत थी, जो आप-जैसे पण्डित की समझ में इतनी देर में आयी। जरूर कोई बहुत ही कठिन होगी। मैं भी उसे एक बार सुनना चाहता हूँ।’

रघुनाथ ने वह पंक्ति सुना दी। थोड़ी देर सोचने के अनन्तर निमाई हँस पड़े और बोले- ‘बस, इसी छोटी-सी ‘पंक्ति’ को इतनी देर सोचते रहे, इसमें है ही क्या?’ जरा आवेश के साथ रघुनाथ जी ने कहा- ‘अच्छा, कुछ भी नहीं है तो तुम्हीं लगाकर बताओ।’

इतना सुनते ही निमाई ने बड़ी ही सरलता के साथ पंक्ति के पूर्वपक्ष की स्थापना की। फिर यथावत एक-एक शंका का समाधान करते हुए उसे बिलकुल ठीक लगा दिया।

निमाई के मुख से उस इतनी कठिन पंक्ति को खिलवाड़ की भाँति हँसते-हँसते लगाते देख रघुनाथ के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन्हें जो शंका थी, वह प्रत्यक्ष आ उपस्थित हुई। उनकी सभी आशा पर पानी फिर गया। भोजन बनाना भूल गये। निमाई उनके मनोभाव को ताड़ गये कि रघुनाथ कुछ लज्जित हो गये हैं, इसलिये यह कहते हुए कि ‘अच्छा आप भोजन बनावें फिर मिलेंगे।’ पाठशाला की ओर चले गये। रघुनाथ ने जैसे-तैसे भात तो बनाया, किन्तु उनके हृदय में निमाई की बुद्धि के प्रति डाह होने के कारण उन्हें भोजन में आनन्द नहीं आया, जैसे-तैसे भोजन करके वे पाठशाला में आये। अब निमाई की अवस्था सोलह वर्ष की हो चुकी थी, उनके घुँघराले लम्बे-लम्बे बाल, तेजस्वी चेहरा, सुगठित शरीर, बड़ी-बड़ी सुहावनी आँखें, मिष्ट-भाषण और मन्द-मन्द मुस्कान देखने वाले को स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। वे सभी से दिल खोलकर मिलते और खूब घुल-घुलकर बातें करते। उनके मिलने वाले परस्पर में सभी यही समझते कि निमाई जितना अधिक स्नेह हमसे करता है, उतना किसी दूसरे से शायद ही करता हो। इसका कारण यह था कि उनके हृदय में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं था। जिसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति सम्मान है, उसे सभी अपना सगा-सम्बन्धी समझने लगते हैं। इसीलिये निमाई के बहुत अधिक स्नेही थे।

व्याकरण पढ़ने के अनन्तर ये न्याय का अभ्यास करने लगे और उसी बीच न्याय के ऊपर भी एक टिप्पणी लिखने लगे। इनके सहपाठी और स्नेही पं. रघुनाथ जी उसी समय अपने जगत प्रसिद्ध ‘दीधिति’ ग्रन्थ को लिख रहे थे। वे समझते थे, मेरा यह ग्रन्थ अर्वाचीन-न्याय के ग्रन्थों में अद्वितीय होगा। जब उन्होंने सुना कि निमाई भी एक न्याय का ग्रन्थ लिख रहे हैं, तब तो इनको भय मालूम पड़ने लगा और इनकी प्रबल इच्छा हुई कि उस ग्रन्थ को देखना चाहिये। यह सोचकर एक दिन उन्होंने निमाई से कहा- ‘भाई! हमने सुना है, न्याय के ऊपर तुम कोई ग्रन्थ लिख रहे हो? हमारी बड़ी इच्छा है, किसी दिन अपने ग्रन्थ को हमें भी दिखाओ’।

इन्होंने जोरों से हँसते हुए कहा- ‘अजी! आप भी कैसी बात कर रहे हैं। भला, हम न्याय-जैसे जटिल विषय पर लिख ही क्या सकते हैं? यह तो आप-जैसे पण्डितों का काम है। हम तो वैसे ही मनोविनोद के लिये खिलवाड़-सा करने लगे हैं। आपसे किसने कह दी?’ रघुनाथ ने आग्रह के साथ कहा- ‘कुछ भी हो, मेरी बड़ी प्रबल इच्छा है, यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो अपने ग्रन्थ को मुझे जरूर दिखाओ।’ इन्होंने जल्दी से कहा- ‘भला, इसमें आपत्ति की बात ही क्या हो सकती है? यह तो हमारा सौभाग्य है कि आप-जैसे विद्वान हमारी कृति को देखने की जिज्ञासा करते हैं। मैं कल जरूर उसे लेता आऊँगा।’ दूसरे दिन निमाई अपने ग्रन्थ को साथ लेते आये। पाठशाला से लौटते समय वे नाव पर बैठकर रघुनाथ को अपने ग्रन्थ को सुनाने लगे। रघुनाथ ज्यों-ज्यों उस ग्रन्थ को सुनते थे, त्यों-ही-त्यों उनकी मनोवेदना बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि वे ग्रन्थ को सुनते-सुनते फूट-फूटकर रोने लगे। निमाई अपनी धुनि में सुनाते ही जा रहे थे, उन्हें पता भी नहीं था कि रघुनाथ की ग्रन्थ के सुनने से क्या दशा हो रही है। सुनाते-सुनतो एक बार इन्होंने दृष्टि उठाकर रघुनाथ की ओर देखा। इनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

आश्चर्य प्रकट करते हुए निमाई ने पूछा- ‘भैया! तुम रो क्यों रहे हो?’ आँसू पोंछते हुए रुद्धकण्ठ से उन्होंने कहा- ‘निमाई! तुमसे मैं अपने मनोगत भावों को छिपाकर एक नया दूसरा पाप न करूँगा। सत्य बात तो यह है कि मैं इस अभिलाषा से एक ग्रन्थ लिख रहा था कि वह सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ होगा। किन्तु तुम्हारे इस ग्रन्थ को देखकर मेरी चिराभिलषित आशा पर पानी फिर गया। भला, तुम्हारे इस ग्रन्थ के सामने मेरे ग्रन्थ को कौन पूछेगा?’ इसी मनोवेदना के कारण मैं अपने आँसुओं को रोकने में असमर्थ हो गया हूँ।’

यह सुनकर निमाई बड़े जोरों से हँसे और उन्हें स्पर्श करते हुए बोले- ‘बस, इस छोटी-सी बात के ही लिये आप इतना अनुताप कर रहे हैं। भला, यह भी कोई बात है, यह तो साधारण-सी पोथी है, मैं आपकी प्रसन्नता के निमित्त जलती अग्नि में भी कूदकर इन प्राणों को स्वाहा कर सकता हूँ, फिर यह तो बात ही क्या है? इस पुस्तक ने आपको इतना कष्ट पहुँचाया, तो इसे मैं अभी नष्ट किये देता हूँ।’ इतना कहते-कहते निमाई ने अपनी बड़े परिश्रम से हस्तलिखित पोथी को गंगा जी के प्रवाह में फेंक दिया। जाह्नवी के तीक्ष्ण प्रवाह की हिलोरों में पुस्तक के पन्ने इधर-उधर नाचने लगे, मानो निमाई के त्याग और प्रेम के गीत गा-गाकर वे आनन्द में थिरक रहे हों।

रघुनाथ ने निमाई को गले से लगाया और प्रेम के कारण रूँधे हुए कण्ठ से बोले- ‘भैया निमाई! ऐसा लोकोत्तर दुस्साध्य कार्य तुम्हीं कर सकते हो। इतनी भारी लोकैषणा को तृणवत समझकर उसका तिरस्कार कर देना तुम्हारे-जैसे ही महापुरुषों का काम है। हम तो कीर्ति और प्रतिष्ठा के कीड़े हैं।

हमारी पुस्तक की अपेक्षा तुम्हारे इस त्याग की संसार में लाखों गुनी ख्याति होगी और आगे के लोग इस त्याग के द्वारा प्रेम का महत्त्व समझ सकेंगे।’ इस प्रकार की बातें करते हुए दोनों मित्र अपने-अपने घर लौट आये। उसी दिन से निमाई का न्याय पढ़ना ही नहीं छूटा, किन्तु उनका पाठशाला जाना ही छूट गया। अब उन्होंने ऐसी विद्या को पढ़ना एकदम त्याग दिया। घर पर पिता की और ज्येष्ठ भ्राता की बहुत-सी पुस्तकें थीं, वे उन्हीं का स्वयं अध्ययन करने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [23]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

Vidyavyasangi Nimai

Another universally beneficial instinct of the mind is-

There is no other composition of words.

And the extraordinary work is the heart of the figure and the colour

He is the second of all the words of the learned.

Usually brilliant children are serious. His erudition does not blossom in his seriousness, he definitely becomes a subject of respect for the people, but not all the companions can talk to him openly. There is some hesitation and fear in interacting with them. If a bright minded student, apart from being brilliant, is also playful, cheerful and sociable, then what to say about him? If you get the icing on the cake, it is as if the fragrance is also present in the gold. Such a student becomes the darling of all the students and teachers, big or small. Nimai was such a student. He was more fickle than necessary and equally brilliant. As if there was always a fountain of laughter coming out of his mouth. He used to laugh out loud at every talk and used to make others laugh with his charming jokes. No one could sit near him with his face hanging down, he used to make the crying laugh. Many big students used to study in Pt. Gangadas ji’s school, who were older than him as well as elders. 30-30, 40-40 year old students were in the school.

His stage was just 13-14 years old, yet he always used to molest older students. Many of those students were very intelligent and creative, who later became famous scholars. Famous poets Murari Gupta, Kamalakant, well-known teacher of Tantra Shastra Krishnanand used to study in the same school in those days. Nimai did not shy away from anyone big or small, he would confront everyone and start arguing with them. Especially he used to tease Vaishnava-students a lot. Used to take sweet-sweet jokes from them and used to leave them ashamed. Murari Gupta was older than him, but he always teased him. Murari used to always ignore him considering him as a child. When he got the introduction of his extraordinary intelligence, then he started talking a lot with him. They used to say- ‘Murari! Prove a certain experiment.’ Murari would have proved it perfectly. They would find twenty faults in it, refute it in many ways.

Murari used to express surprise after listening to his style of reasoning, then you would have established Murari’s opinion by solving each and every doubt. Then laughingly said – ‘ Secret sir! This is the work of pundits, you are Vaidyaraj! Learned to make pills by suffocating herbs! After seeing the pulse, whether the patient dies or lives, you have to work with your own hands. Vaidyaraj Namastubhyam Yamraj’s brother. Yamastu harte pranan tvam tu pranan dhanani ch.’ You are the brother of Yamraj. Greetings to you.’ Murari used to listen to these words of his and felt ashamed in his heart, started laughing with him from above, in this way he always used to joke with Murari. Sometimes Murari used to get upset due to excessive teasing, then he started turning his lotus on his body by softening it. Just by his touch, he used to forget everything and started showing great affection towards him. He used to get along very well with Murari and Murari also used to have great affection for him.

He was unique in debating. Whichever student he met, he used to fight with him and whether he said wrong or straight, he would refute everyone and leave him after defeating him. He himself would first refute any topic, then he himself would start justifying it with the help of yuktis. The students used to praise his extraordinary intelligence again and again and used to praise his eloquence. If he found a student of any school on the banks of the Ganges or anywhere else on the way, he would catch hold of him and ask him in Sanskrit – ‘What is the name of your teacher? What do you study?’ When he used to say that I study grammar in a certain school, you would immediately start asking him about experiments. The poor student would have run away from them in any way he could.

In the evening, the students of all the schools used to form groups and used to come to the banks of Ganga ji and discuss scriptures among themselves. He used to be the head of all of them. Sometimes debating with the students of some school, sometimes defeating the students of some school, this was his routine work. Ten-ten, twenty-twenty students together started doubting him. He used to answer everyone in turn. His schoolmates would have taken his side. Sometimes there would be quarrels even in small matters and it would even come to the point of fighting. In this also he was no less than anyone. In this way he became famous among the students of all the schools. The students used to get scared of his face.

In those days, grammar commentaries were not publicized like nowadays, there were no printing houses, so the books had to be written by hand and along with the original, the commentary also had to be learned by heart. The students used to forget the comments made by the teacher on the notes. That’s why many students don’t discuss the lesson together, till then the lesson didn’t take place. Even now in schools, intelligent students discuss their lessons with their peers. Nimai also used to make his colleagues think about the lessons, that’s why all the students used to respect him like a teacher. He used to explain the subject in such a way that even the most stupid student could easily understand the lesson read.

In those days, Gauranga had finished the book named ‘Panchitika’ of grammar, he also wrote a simple commentary on it. The comment on his comment was of great use to the students, very soon his comment got publicized among the students and big scholars praised his scholarly comment with open voice. Not only this, that comment was publicized among the students of other countries outside Navadvipa and everyone appreciated his erudition. In this way his praise spread far and wide. Along with grammar, he used to listen to the lessons of Alankar as well and used to do Hridayangam while listening to them. In this way, he became proficient in grammar and ornamentation in a short time. In those days, justice prevailed in Navadvipa. Pandit did not know justice after studying grammar, he was not respected. In those days, Pandit Vasudev was considered as the king of the universal rivers. His school was considered the best in justice and hundreds of students used to study in it.

The educated students of that school are considered world-renowned scholars today. The commentary of Navyanyaya which gives the introduction of justice in the name of ‘Jagdishi’, the pioneer of the same, Guru Bhavanand of Pt. Jagdish was also a student of this school. Pandit Raghunath ji, the originator of the world famous book named ‘Didhiti’, also used to study in this school in those days. In this way that school became a heavy center of justice. Nimai also went to the school and started listening to the lessons of justice. In such schools, separate lessons are not run for each student. There are ten-five lessons, whatever your ability, go and listen to those lessons, that’s all, this was the study. Hundreds of students and scholars come to listen to the lessons.

The teachers do not even know the names and addresses of many of them. They leave after listening to the lesson. Even today, such a custom is followed in the ancient schools of big places like Kashi. Nimai would also go to the school and listen to the lessons. Sarvabhaum Mahasaya did not have any special acquaintance with him in those days, but due to his playfulness, agility, eloquence and extraterrestrial intelligence, the main students started loving him a lot. They also came to know that Nimai understands a serious subject like justice very well. He doesn’t just go by listening like many other students. Pandit Raghunath, the author of ‘Didhiti’ Mahagranth, whom we have mentioned earlier, was considered the best among all the students in those days. He himself had faith in his reasoning power and prodigious intelligence. He had a strong desire since that time that I should become a famous heroine in India. May my unique intelligence become famous in the whole country. Those who are promising, they already have the same feeling.

Raghunath also already had the desire to become universal. Nimai was already introduced to Raghunath. He had also become close friends with them. Sometimes Nimai used to visit Raghunath’s residence and used to talk about justice with him. Raghunath understood from his conversation that he is also a promising politician. He used to think that there is no other student in Navadvipa who can compete with him in justice. While conversing with Nimai, he used to get annoyed that if he continues to work like this, he can probably surpass me. But he had full faith in his intellect, so he did not allow this idea to settle in his heart.

One day the Guru gave Raghunath some ‘line’ to apply. That ‘line’ could not be understood by Raghunath. He sat silently thinking the same line all day long. Raghunath understood that line by the third hour, he was very happy. After telling the Guru, he went to cook food at his place. Nimai’s nature was fickle, not seeing Raghunath in the school, you reached his residence. Went there and saw Raghunath preparing food. The wood is wet. Raghunath blows again and again, the fire does not burn at all. His eyes are red due to the smoke and water is coming out of them. Laughing, Nimai entered Raghunath’s square. Laughing with love said – ‘ Pandit sir! Why is randhan happening today at an untimely time?

While blowing into the fire, Raghunath said – ‘What should I tell brother! Guru ji had given me a ‘line’ to apply, I could not understand that. After thinking throughout the day, I have now understood, I have just narrated it to Guruji, that is why there is delay in cooking.’

Quickly Nimai said- ‘ Let us also listen to that line. What was the line, what was the disaster, which came to the understanding of a pundit like you so late. Surely some would be very difficult. I also want to hear him once.

Raghunath recited that line. After thinking for a while, Nimai laughed and said – ‘Just kept thinking about this small ‘line’ for so long, what is there in it?’ You tell by applying it.

On hearing this, Nimai established the front of the row with great ease. Then solving each and every doubt as it was, he put it perfectly right.

Raghunath’s astonishment knew no bounds to see Nimai uttering such a difficult line like a joke. The doubt that he had, was directly present. All their hopes were dashed. Forgot to cook food. Nimai understood his sentiment that Raghunath was a bit ashamed, so saying, ‘Well, you cook food, we will meet again.’ Went to the school. Raghunath somehow made rice, but due to jealousy in his heart towards Nimai’s intelligence, he did not enjoy the food, somehow he came to the school after eating. Now Nimai’s condition was sixteen years old, her curly long hair, stunning face, well-built body, big beautiful eyes, sweet speech and slow smile automatically attracted the beholder towards her. He used to meet everyone openly and used to talk a lot. Everyone who met him used to understand that the more affection Nimai does for us, the more it is hardly done for anyone else. The reason for this was that there was no malice in his heart towards any creature. The one who has respect for all living beings in his heart, everyone starts considering him as their relative. That’s why Nimai was very affectionate.

After studying grammar, he started practicing justice and in the meantime started writing a commentary on justice. His classmate and close friend Pt. Raghunath ji was writing his world famous book ‘Didhiti’ at the same time. They used to think that this book of mine would be unique among the books of Arvachina-Nyaya. When he heard that Nimai was also writing a book of justice, then he felt fear and had a strong desire to see that book. Thinking of this, one day he said to Nimai- ‘Brother! We have heard that you are writing a book on justice? We have a great desire, someday show your book to us too’.

Laughing out loud, he said – ‘Aji! How are you even talking? Well, what can we write on a complex subject like justice? This is the job of pundits like you. We have started playing around just for the sake of entertainment. Who told you this?’ Raghunath said with insistence- ‘Whatever happens, I have a strong desire, if you do not have any objection, then definitely show me your book.’ He quickly said- ‘Well, objected to it. What can be the matter? It is our good fortune that scholars like you are curious to see our work. I will definitely bring it tomorrow.’ The next day Nimai brought his book with him. While returning from school, he sat on the boat and started narrating his book to Raghunath. As Raghunath used to listen to that book, his emotional pain kept on increasing. Even while listening to the book, he started crying bitterly. Nimai was going on narrating in his own voice, he did not even know what condition he was getting after listening to Raghunath’s book. While listening, once he raised his eyes and looked at Raghunath. His surprise knew no bounds.

Expressing surprise, Nimai asked – ‘Brother! Why are you crying?’ Wiping the tears, he said in a hoarse voice – ‘Nimai! I will not commit a new sin by hiding my occult feelings from you. The truth is that I was writing a book with the desire that it would be the best book. But after seeing this book of yours, my cherished hope was dashed. Well, who will ask my book in front of this book of yours?’ I am unable to stop my tears because of this anguish.’

Hearing this, Nimai laughed out loud and touched him and said – ‘Just for this small thing you are repenting so much. Well, this is also a matter, this is a simple pothi, for your happiness, I can even jump into the burning fire and sacrifice these lives, then what is this matter? This book has caused you so much trouble, so I will destroy it now.’ Saying this, Nimai threw his handwritten pothi in the flow of Ganga ji. The pages of the book danced here and there in the waves of Jhanvi’s swift current, as if they were dancing in joy after singing the songs of Nimai’s sacrifice and love.

Raghunath hugged Nimai and said in a voice choked with love – ‘Brother Nimai! Only you can do such an extraordinary difficult task. It is the work of great men like you to despise such a heavy attraction considering it as trinavat. We are insects of fame and reputation.

This sacrifice of yours will be millions of times more famous in the world than our book and future people will be able to understand the importance of love through this sacrifice.’ While talking like this, both the friends returned to their respective homes. From the same day Nimai’s justice was not missed, but he missed going to school. Now he has completely given up studying such knowledge. There were many books of father and elder brother at home, he started studying them himself.

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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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