[25]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

नवद्वीप में ईश्वरपुरी

येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः।

किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः।।

बड़े-बड़े विद्वान और धर्मकोविदों ने गृहस्थ-धर्म की जो इतनी भारी प्रशंसा की है, उसका एक प्रधान कारण है अतिथि-सेवा। गृहस्थ में रहकर मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार अतिथि-सेवा भलीभाँति कर सकता है। भूखे को यथासामर्थ्य भोजन देना, प्यासे को जल पिलाना और निराश्रित को आश्रय प्रदान करके सुख पहुँचाना- इनसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म हो ही नहीं सकता। अहा! उस बड़भागी गृहस्थ के घर की कल्पना तो कीजिये। छोटा-सा लिपा-पुता स्वच्छा घर है, एक ओर तुलसी का बिरवा आँगन में शोभा दे रहा है, दूसरी ओर हल्दी और कुंकुम से पूजित सुन्दर-सी श्यामा गौ बँधी है। गृहिणी सुन्दर और हँसमुख है, छोटे-छोटे बच्चे आँगन में खेल रहे हैं। गृहिणी मुख से सुन्दर हरि नाम का उच्चारण करती हुई रसोई बना रही है, इतने ही में गृहपति आ गये। भोजन तैयार है, गृहपति ने गोग्रास निकाला, सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर अग्नि में आहुत दी और द्वार पर खडे़ होकर किसी अतिथि की खोज करने लगे। इतने ही में क्या देखते हैं, एक विरक्त महात्मा कौपीन लगाये भिक्षा के निमित्त ग्राम की ओर आ रहे हैं। गृहस्थी ने आगे बढ़कर महात्मा के चरणों में अभिवादन किया और उनसे भिक्षा कर लेने की प्रार्थना की। सद्गृहस्थी की प्रार्थना स्वीकार करके संत उसके घर में जाते हैं। योग्य अतिथि को देखकर दम्पती हर्ष से उन्मत्त-से हो जाते हैं। अपने सगे जमाई की तरह उनका स्वागत-सत्कार करते हैं। महात्मा के चरणों को धोकर उस जल का स्वयं पान करते हैं और अपने घर भर को पवित्र बनाते हैं। संत को बड़ी ही श्रद्धा से अपने घर में जो भी कुछ रूखा-सूखा बना है, प्रेम से खिलाते हैं। भोजन करके महात्मा चले जाते हैं और गृहस्थी अपने बाल-बच्चे और आश्रित जनों के साथ उस शेष अन्न को पाता है। ऐसे गृहस्थधर्म से बढ़कर दूसरा कौन-सा धर्म हो सकता है? ऐसा गृहस्थी स्वयं तो पावन बन ही जाता है किन्तु जो लोग अतिथि होकर ऐसे गृहस्थ का आतिथ्य स्वीकार कर लेते हैं वे भी पवित्र हो जाते हैं। ऐसे अन्न के दाता, भोक्ता दोनों ही पुण्य के भागी होते हैं। निमाई पण्डित को हम आदर्श सद्गृहस्थी कह सकते हैं। उनकी वृद्धा माता प्रेम की मानो मूर्ति ही हैं, घर में जो भी आता है उसको पुत्र की भाँति प्यार करती हैं और उससे भोजनादि के लिये आग्रह करती हैं। लक्ष्मीदेवी का स्वभाव बड़ा ही कोमल है, वे दिनभर घर का काम करती हैं ओर तनिक भी दुःखी नहीं होतीं।

निमाई तो रसिकशिरोमणि हैं ही, वे दो-एक के साथ बिना भोजन करते ही नहीं, लक्ष्मी देवी सबके लिये आलस्यरहित होकर रन्धन करती हैं और अपने पति के साथ उनके प्रेमियों को भी उसी श्रद्धा के साथ भोजन कराती हैं। कभी-कभी घर में दस-दस, पाँच-पाँच अतिथि आ जाते हैं। वृद्धा माता को उनके भोजन की चिन्ता होती है, निमाई इधर-उधर से क्षणभर में सामान ले आते हैं और उसके द्वारा अतिथि-सेवा की जाती है। नगर में कोई भी नया साधु-वैष्णव आवे यदि उसके साथ निमाई का साक्षत्कार हुआ तो वे उसे भोजन के लिये नवद्वीप में ईश्वरपुरी जरूर निमन्त्रित करेंगे और अपने घर ले जाकर भिक्षा करावेंगे। ये सब कार्य ही तो उनकी महानता के द्योतक हैं। पाठक श्री मन्माधवेन्द्रपुरी जी के नाम से तो परिचित ही होंगे और यह भी स्मरण होगा कि उनके अन्तरंग और सर्वप्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरीजी थे। भक्तशिरोमणि श्रीमाधवेन्द्रपुरी इस असार संसार को त्याग कर अपने नित्यधाम को चले गये- अन्तिम समय में उनके रूँधे हुए कण्ठ से यह श्लोक निकला था-

अति! दीनदयार्द्रनाथ हे मथुरानाथ कदावलोक्यसे।

हृदयं त्वदलोककातरं दयित भ्राम्यति किं करोम्यहम्।।

अर्थात ‘हे दीनों पर दया करने वाले मेरे नाथ! व्रजेशनन्दन! इन चिरकाल की पियासी आँखों से आपकी अमृतोपम मकरन्दमाधुरी का कब पान कर सकूँगा। हे नाथ! यह हृदय तुम्हारे दर्शन के लिये कातर हुआ चारों ओर बड़ी ही द्रुतगति से दौड़ रहा है। हे चंचल श्याम! मैं क्या करूँ?’ यह कहते-कहते उन्होंने इस पांच भौतिक शरीर का त्याग कर दिया। अन्तिम समय में वे अपना सम्पूर्ण प्रेम श्रीईश्वरपुरी को अर्पण कर गये।

गुरुदेव से अमूल्य प्रेमनिधि पाकर ईश्वरपुरी तीर्थों में भ्रमण करते हुए गौड़ देश की ओर आये। इनका जन्मस्थान इसी जिले के कुमारहट्ट नामक ग्राम में था। ये जाति के कायस्थ थे, कोई-कोई इन्हें वैद्य भी बताते हैं, किन्तु वैष्णवों की जाति ही क्या? उनकी तो हरिजन ही जाति है, फिर संन्यास धारण करने पर तो जाति रहती ही नहीं। ये सदा श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मत्त-से बने रहते थे। जिह्व से सदा मधुर श्रीकृष्ण नाम उच्चारण करते रहते और प्रेम में छके-से, उन्मत्त-से, अलक्षितरूप से देश में भ्रमण करते हुए भाग्यवानों को अपने शुभ दर्शनों से पावन बनाते फिरते थे, इसी प्रकार भ्रमण करते हुए ये नवद्वीप में भी आये और अद्वैत आचार्य के घर के समीप आकर बैठ गये। आचार्य देखते ही समझ गये, ये कोई परम भागवत वैष्णव हैं, उन्होंने इनका यथोचित सत्कार किया। परिचय प्राप्त होने पर तो आचार्य के आनन्द का ठिकाना ही न रहा। उने गुरुदेव के प्रधान और परम प्रिय शिष्य उनके गुरुतुल्य ही थे।

आचार्य ने इनकी गुरुवत पूजा की और कुछ काल नवद्वीप में ही रहने का आग्रह किया। पुरी महाशय ने आचार्य की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वहीं उनके पास रहकर श्रीकृष्ण कथा और सत्संग करने लगे। नवद्वीप में रहते हुए महामहिम श्रीईश्वरपुरी ने निमाई पण्डित का नाम तो सुना था, किन्तु साथ ही यह भी सुना था कि वे बड़े भारी चंचल हैं, वैष्णवों से खूब तर्क-वितर्क करते हैं। इसलिये पुरी महाशय ने भेंट नहीं की। एक दिन अकस्मात निमाई की ईश्वरपुरीजी से भेंट हो गयी। संन्यासी समझकर निमाई पण्डित ने पुरी महाशय को प्रणाम किया। परिचय पाकर उन्हें परम प्रसन्नता हुई। पुरी महाशय तो उनके रूप-लावण्य को देखकर मन्त्र मुग्ध की भाँति एकटक दृष्टि से उनकी ही ओर देखते रहे। उन्होंने सिर से पैर तक निमाई को देखा, फिर देखा और फिर देखा।

इस प्रकार बार-बार उनके अद्भुत रूप-लावण्य और तेज को देखते, किन्तु उनकी तृप्ति ही नहीं होती थी। वे सोचने लगे ये तो कोई योगभ्रष्ट महापुरुष- से जान पड़ते हैं, इनके चेहरे पर कितना तेज है, हृदय की स्वच्छता, शुद्धता और प्राणिमात्र के प्रति ममता इनके चेहरे से प्रस्फुटित हो रही है। ये साधारण पुरुष कभी हो ही नहीं सकते। जरूर कोई प्रच्छन्न वेशधारी महापुरुष हैं। पुरी को एकटक अपनी ओर देखते देखकर हँसते हुए निमाई बोले- ‘पुरी महाशय! अब इस प्रकार कहाँ तक देखियेगा। आज हमारे ही घर भिक्षा कीजियेगा, वहाँ दिनभर हमें देखते रहने का सुअवसर प्राप्त होगा।’ यह सुनकर पुरी महाशय कुछ लज्जित-से हुए और उन्होंने निमाई का निमन्त्रण बड़े प्रेम से स्वीकार कर लिया। भोजन तैयार होने के पूर्व निमाई अद्वैताचार्य के घर से पुरी को लिवा ले गये। शची माता ने स्वामी जी की बहुत ही अधिक अभ्यर्चना की और उन्हें श्रद्धा-भक्ति के साथ भोजन कराया। भोजन के अनन्तर कुछ काल तक दोनों महापुरुषों में कुछ सत्संग होता रहा, फिर दोनों ही अद्वैताचार्य के आश्रम में आये।

अब तो निमाई पण्डित पुरी महाशय के समीप यदा-कदा आने लगे। उन दिनों पुरी महाशय ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ नामक एक ग्रन्थ की रचना कर रहे थे। पुरी ने पण्डित समझकर इनसे उस ग्रन्थ के सुनने का आग्रह किया। गदाधर पण्डित के साथ सन्ध्या समय जाकर ये उस ग्रन्थ को रोज सुनने लगे। पुरी महाशय ने कहा- ‘आप पण्डित हैं, इस ग्रन्थ में जहाँ भी कहीं अशुद्धि हो, त्रुटि मालूम पड़े, वहीं आप बता दीजियेगा।’ इन्होंने नम्रता के साथ उत्तर दिया- ‘श्रीकृष्ण-कथा में भला क्या शुद्धि और क्या अशुद्धि।

भक्त अपने भक्ति-भाव के आवेश में आकर जो भी कुछ लिखता है, वह परम शुद्ध ही होता है। जिस पद में भगवत-भक्ति है, जिस छन्द में श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन है वह अशुद्ध होने पर भी शुद्ध है और जो काव्य श्रीकृष्ण-कथा से रहित है वह चाहे कितना भी ऊँचा काव्य क्यों न हो, उसकी भाषा चाहे कितनी बढि़या क्यों न हो, वह व्यर्थ ही है। भगवान तो भावग्राही हैं, वे घट-घट की बातें जातने हैं। बेचारी भाषा उनकी विरदावली का बखान कर ही क्या सकती है, उनकी प्रसन्नता में तो शुद्ध भावना ही मुख्य कारण है। यथा-

मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।

उभयोस्तु शुभं पुण्यं भावग्राही जनार्दनः।।

अर्थात मूर्ख कहता है ‘विष्णाय नमः’ [1]और विद्वान कहते हैं ‘विष्णवे नमः’ परिणाम में इन दोनों का फल समान ही है। क्योंकि भगवान जनार्दन तो भावग्राही हैं। उनसे यह बात छिपी नहीं रहती कि ‘विष्णाय’ कहने से भी उसका भाव मुझे नमस्कार करने का ही था।’ निमाई पण्डित का ऐसा उत्तर सुनकर पुरी महाशय अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘यह उत्तर तो आपकी महत्ता का द्योतक है। इस कथन से आपने श्रीकृष्ण-लीला की महिमा का ही वर्णन किया है। आप धुरन्धर वैयाकरण हैं, इसलिये पद-पदान्त और क्रिया की शुद्धि-अशुद्धि पर आप ध्यान जरूर देते जायँ।’ यह कहकर वे अपने ग्रन्थ को इन्हें सुनाने लगे। ये बड़े मनोयाग के साथ नित्यप्रति आकर उस ग्रन्थ को सुनते और सुनकर प्रसन्नता प्रकट करते।

एक दिन ग्रन्थ सुनते-सुनते एक धातु के सम्बन्ध में इन्होंने कहा- ‘यह धातु ‘आत्मनेपदी’ नहीं है ‘परस्मैपदी’ है।’ पुरी उसे आत्मनेपदी ही समझे बैठे थे। इनकी बात से उन्हें शंका हो गयी। इनके चले जाने के पश्चात् पुरी रात भर उस धातु के ही सम्बन्ध में सोचते रहे। दूसरे दिन जब ये फिर पुस्तक सुनने आये तो इनसे पुरी ने कहा- ‘आप जिसे परस्मैपदी धातु बताते थे, वह तो आत्मनेपदी ही है।’ यह कहकर उन्होंने उस धातु को सिद्ध करके इन्हें बताया। सुनकर ये प्रसन्न हुए और कहने लगे- ‘आप ही का कथन ठीक है, मुझे भ्रम हो गया होगा।’ इस प्रकार इन्होंने पुरी के समस्त ग्रन्थ को श्रवण किया। उस ग्रन्थ के श्रवण करने से इन्हें बहुत ही सुख प्राप्त हुआ। इनकी श्रीकृष्णभक्ति धीरे-धीरे प्रस्फुटित-सी होने लगी। ईश्वरपुरी के प्रति भी इनका आन्तरिक अनुराग उत्पन्न हो गया। कुछ काल के अनन्तर पुरी महाशय नवद्वीप से गया की ओर चले गये और निमाई पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में पढ़ाने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [26]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

Ishwarpuri in Nabadwip

The houses of men are immediately purified by their remembrance

What to speak of seeing, touching, washing feet, sitting and so on.

One of the main reasons for which great scholars and religious poets have praised the householder-religion so much is the service of guests. By staying at home, a man can do guest service very well according to his power. Giving food to the hungry, giving water to the thirsty and providing shelter to the destitute – there can be no other religion greater than these. Aha! Just imagine the house of that unfortunate householder. It is a small, well-painted and clean house, on one side Tulsi Birwa is adorning the courtyard, on the other hand, a beautiful brown cow worshiped with turmeric and kumkum is tied. The housewife is beautiful and cheerful, small children are playing in the courtyard. The housewife was preparing the kitchen while reciting the name of Sundar Hari, in the meantime the husband of the householder came. The food is ready, the householder took out the gogras, took little by little of all the ingredients and offered them in the fire, and standing at the door started searching for a guest. What do you see in the meantime, a disinterested Mahatma is coming towards the village for the sake of alms. The householder went ahead and saluted at the feet of the Mahatma and requested him to take alms. Accepting the prayer of Sadgrihasthi, the saints go to his house. The couple goes berserk with joy on seeing the worthy guest. They welcome and welcome him like his own son-in-law. After washing the feet of the Mahatma, he himself drinks that water and makes his whole house holy. With great devotion to the saint, whatever is dry and dry in his house, he feeds it with love. Mahatma goes away after eating and the householder gets that remaining food along with his children and dependent people. What other religion can be better than such a householder’s religion? Such a householder himself becomes pure, but those who accept the hospitality of such a householder as guests also become pure. The giver and the enjoyer of such food, both are partakers of virtue. We can call Nimai Pandit an ideal householder. His old mother is like an idol of love, whosoever comes to the house, she loves him like a son and urges him for food. Lakshmidevi’s nature is very soft, she does household work all day long and does not get sad even a bit.

Nimai is a Rasikshiromani, they don’t eat food with each other, Lakshmi Devi makes food for everyone without laziness and feeds her lovers along with her husband with the same devotion. Sometimes ten-ten, five-five guests come to the house. The old mother is concerned about their food, Nimai brings things from here and there in a jiffy and the guests are served by her. Any new Vaishnav monk who comes to the city, if Nimai is interviewed with him, he will definitely invite him to Ishwarpuri in Navadweep for food and will take him to his house and make him do alms. All these works are indicative of his greatness. Readers will be familiar with the name of Shri Manmadhavendrapuri ji and will also remember that his intimate and all-loved disciple was Shri Ishwarpuri ji. Bhaktashiromani Shrimadhavendrapuri left this Asar world and went to his eternal abode – this verse came out from his choked voice in the last time-

severe! O lord of the poor and moist, O lord of Mathura, when will you look upon me?

My heart is wandering, dear, afraid of your world, what can I do?

Means ‘ O my Lord who has mercy on the poor! Vrajeshnandan! When will I be able to drink your nectar Makarandamadhuri from these eternally thirsty eyes. Hey Nath! This heart is running very fast everywhere eager to see you. Hey playful Shyam! What shall I do?’ Saying this he renounced these five material bodies. In the last moment, he offered all his love to Shree Ishwarpuri.

After getting invaluable love fund from Gurudev, while visiting Ishwarpuri pilgrimages, came towards Gaur country. His birthplace was in a village named Kumarhatt of this district. They were Kayasthas by caste, some even call them Vaidyas, but what is the caste of Vaishnavas? Their caste is Harijans, then after taking sannyas the caste ceases to exist. He always remained madly in the love of Shri Krishna. Always chanting the sweet name of Shri Krishna with his tongue, roaming around the country with his auspicious visions, in a frenzy of love, he used to purify the fortunate ones with his auspicious visions, in the same way he came to Navadvipa and started teaching Advaita. They came and sat near Acharya’s house. Acharya understood as soon as he saw that he is some supreme Bhagwat Vaishnav, he honored him properly. On getting the introduction, there was no place for Acharya’s joy. The chief and most beloved disciple of his Gurudev was equal to his Guru.

Acharya worshiped his guru and urged him to stay in Navadweep for some time. Puri Mahasaya accepted Acharya’s request and stayed there with him and started doing Shri Krishna Katha and satsang. While living in Navadvipa, His Highness Sri Ishwarpuri had heard the name of Nimai Pandita, but at the same time had also heard that he is very fickle, argues a lot with Vaishnavas. That’s why Puri Mahasaya did not meet. One day Nimai accidentally met Ishwarpuriji. Nimai Pandit bowed down to Puri Mahasaya considering him as a monk. He was overjoyed to get the introduction. Puri Mahasaya kept looking at her with a fixed look like a mantra mesmerized by seeing her beauty. He looked at Nimai from head to toe, then looked and then looked again.

In this way, repeatedly seeing his wonderful beauty and glory, but he was not satisfied at all. They started thinking that he looks like a great man who has lost his mind, how bright his face is, cleanliness of heart, purity and love for all living beings is emanating from his face. These can never be ordinary men. There must definitely be some disguised disguised great man. Seeing Puri staring at him, Nimai laughed and said – ‘Puri sir! How far will you see like this? Beg alms at our house today, there you will get the opportunity to see us throughout the day.’ Hearing this, Puri Mahasaya felt somewhat ashamed and accepted Nimai’s invitation with great love. Nimai took Puri away from Advaitacharya’s house before the food was ready. Shachi Mata prayed a lot to Swami ji and fed him with devotion. After the meal, some satsang took place between the two great men for some time, then both came to Advaitacharya’s ashram.

Now Nimai Pandit started coming near Puri Mahashay every now and then. In those days, Puri Mahasaya was composing a book called ‘Srikrishnalilamrit’. Puri, considering him a pundit, urged him to listen to that book. Going in the evening with Gadadhar Pandit, he started listening to that book everyday. Puri sir said- ‘You are a pundit, wherever there is an error in this book, you will tell it there.’

Whatever a devotee writes in the passion of his devotion, it is pure. The verse which has Bhagwat-Bhakti, the verse which describes Shri Krishna-Leela is pure even if it is impure and the poem which is without Shri Krishna-Katha, however high the poetry may be, however fine its language may be. Yes, it is pointless. God is sensitive, he knows every little thing. What can poor language do by telling about their separation, pure feelings are the main reason for their happiness. as-

The fool speaks to Vishnu, the sober speaks to Vishnu.

Janardana, who grasps the auspicious and pious of both, is the receiver of the senses.

That is, a fool says ‘Vishnaya Namah’ [1] and a scholar says ‘Vishnave Namah’, both of them have the same result. Because Lord Janardan is sensitive. It is not hidden from him that even by saying ‘Vishnaya’, his intention was to greet me. Puri Mahasaya was extremely pleased to hear such an answer from Nimai Pandit. Expressing happiness, he said- ‘This answer is indicative of your importance. With this statement, you have described the glory of Shri Krishna-Leela. You are a great grammarian, that’s why you must pay attention to the purity and impurity of words and verbs.’ Saying this, he started narrating his book to them. He used to listen to that book every day with great devotion and expressed happiness after listening to it.

One day, while listening to the scriptures, he said in relation to a metal – ‘This metal is not ‘Atmanepadi’, it is ‘Parasmapadi’. Puri thought it to be Atmanepadi. He got suspicious because of his words. After his departure, the whole night he kept thinking about that metal only. The next day, when he again came to listen to the book, Puri said to him – ‘What you used to call Parasmapadi metal, it is Atmanepadi.’ By saying this, he proved that metal and showed it to him. He was pleased to hear and said – ‘Your statement is correct, I must have been confused.’ Thus he listened to the entire book of Puri. He got a lot of happiness by listening to that book. His devotion to Shri Krishna started blooming slowly. His inner affection also developed towards Ishwarpuri. After some time Puri Mahasaya moved from Nabadwip to Gaya and Nimai started teaching in his school like before.

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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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