[44]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
धीर-भाव

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेच्छम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।

नियमों का बन्धन सबको अखरता है। सभी प्राणी नियमों के बन्धनों को परित्याग करके स्वाधीन होना चाहते हैं, इसका कारण यही है कि प्राणिमात्र की उत्पत्ति आनन्द अथवा प्रेम से हुई। प्रेम में किसी प्रकार का नियम नहीं होता। प्राणिमात्र को प्रेम-पीयूष की ही पिपासा है। सभी इसी परमप्रिय पय के अभाव में अधीर होकर छटपटाते-से नजर आते हैं और सभी प्रकार के बन्धनों को छिन्न-भिन्न करके उसके समीप तक पहुँचना चाहते हैं, किंतु बिना नियमों का पालन किये उस तक पहुँचना भी असम्भव है। प्रेम के चारों ओर नियम की परिखा खुदी हुई है। बिना उसे पार किये हुए कोई प्रेम-पीयूष तक पहुँच ही नहीं सकता। यह ठीक है कि प्रेम स्वयं नियमों से अतीत है, उसके समीप कोई नियम नहीं, किंतु साथ ही वह नियम के बिना प्राप्त भी नहीं हो सकता।

एक बार किसी भी प्रकार सही, प्रेम से पृथक हो गये अथवा अपने को उससे पृथक मान ही बैठे तो बिना नियमों की सहायता के उसे फिर से प्राप्त नहीं कर सकते। प्रेम को प्राप्त करने का एकमात्र साधन नियम ही है। जो प्रेम के नाम से नियमों का उल्लंघन करके विषय-लोलुपता के वशीभूत होकर अपनी इन्द्रियों को उनके प्रिय भोगों से तृप्त करते हैं, वे दम्भी हैं। प्रेम के नाम से इन्द्रिय-वासनाओं को तृप्त करना ही उनका चरम लक्ष्य है।

प्रेम तो कल्पतरु है, उसकी उपासना जो मनुष्य जिस भाव से करेगा, उसे उसी वस्तु की प्राप्ति होगी। जो प्रेम के नाम से अच्छे-अच्छे पदार्थों को ही चाहते हैं, उन्हें वे ही मिलते हैं। जो प्रेम का बहाना बनाकर सुन्दर-सुन्दर विषय भोगना चाहते हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार विषयों की ही प्राप्ति होती है, किंतु जो प्रेम के नाम से प्रेम को ही चाहते हैं और प्रेम के सिवा यदि त्रिलोकी का राज्य भी उनके सामने आ जाय तो उसे भी वे पीछे ठुकरा देते हैं।

बहुधा लोगों को कहते सुना है ‘स्वर्ग के सुखों की तो बात ही क्या है, हम तो मोक्ष को भी ठुकरा देते हैं।’ ये सब कहने की बातें हैं, सुन्दर मिठाई को देखकर ही जिनके मुख में पानी भर आता है, वे स्वर्ग के दिव्य-दिव्य भोगों को भला कैसे ठुकरा सकेंगे? वे अज्ञ पुरुष स्वर्ग के सुखों से अनभिज्ञ हैं। जिसने चिरकाल तक नियमों का पालन नहीं किया है, उसका चित्त अपने वश हो सकेगा, वह कभी प्रेमी बन सकेगा, इसका अनुमान त्रिकाल में भी नहीं किया जाता।

नियमों का पालन करने में सभी को झुँझलाहट होती है, किंतु जो धीर पुरुष हैं, जिनके ऊपर प्रभु की कृपा है, वे तो मन को मारकर इच्छा के विरुद्ध भी नियमों का पालन करते हैं और धीरे-धीरे नियमों के पालन से उनमें दृढ़ता, तत्परता, नम्रता तथा दीनता और सहनशीलता आदि सद्वृत्तियाँ आने लगती हैं। जो नियमों से झुँझलाकर उन्हें छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं, उनके हृदय में पहले तो नियमों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, द्वेष से उस नियम के विरुद्ध प्रचार करने की इच्छा उत्पन्न होती है। द्वेषबुद्धि से किसी के विरुद्ध प्रचार करने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से उस काम में इतनी अधिक आसक्ति हो जाती है कि उसके विरुद्ध प्रचार करने के लिये वह बुरे-बुरे घृणित उपायों को भी काम में लाने लगता है। उन बुरे कामों से ही उसका सर्वस्व नाश हो जाता है।

महाप्रभु का कीर्तन बंद मकान में होता था। ऐसा उस समय भक्तों ने नियम बना रखा था कि अनधिकारियों के पहुँचने से भावों में सांसारिकता का समावेश न होने पावे। लोगों के हृदयों में संकीर्तन को देखने की उत्सुकता उत्पन्न हुई। उन्हें यह नियम बहुत ही अखरने लगा। उन्हें प्रभु के इस नियम के प्रति झुँझलाहट होने लगी। जो श्रद्धावान थे, वे तो अपने मन की झुँझलाहट को रोककर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने लगे और कीर्तन के अन्त में उन्होंने नम्रतापूर्वक कीर्तन में प्रवेश करने की प्रार्थना की। उन्हें अधिकारी समझकर दूसरे दिन से प्रवेश करने की अनुमति मिल गयी और वे उसी नियमपालन के प्रभाव से जीवन में उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए सद्वृत्तियों की वृद्धि के द्वारा प्रभु के पादपद्मों तक पहुँच गये, किंतु जो उस नियम के कारण अपनी झुँझलाहट को नहीं रोक सके, उन्हें संकीर्तन के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ। द्वेष के कारण वे वैष्णवों के शत्रु बन गये।

संकीर्तन के विरुद्ध प्रचार करने लगे और संकीर्तन को नष्ट करने के लिये भाँति-भाँति के बुरे-बुरे उपाय काम में लाने लगे। उनके क्रूर कर्मों के द्वारा संकीर्तन नष्ट नहीं हुआ, प्रत्युत विरोध के कारण उसकी तो अधिकाधिक वृद्धि ही हुई, किंतु वे दुष्टस्वभाव के मनुष्य स्वयं अधोगति के अधिकारी हुए। उन्होंने शुभ नियम के प्रति असहिष्णुता के भाव प्रदर्शित करके अपने-आपको गड्ढे में गिरा दिया। इन विरोधियों के ही कारण संकीर्तन देशव्यापी बन सका। इस प्रकार इन दुष्ट-पुरुषों के विरोध से भी महापुरुषों के सत्कार्यों में बहुत-सी सहायता मिलती है। इसलिये सत्पुरुषों के शुभ कामों का दुष्ट प्रकृति के पुरुष कितना भी विरोध करें, वे उससे घबड़ाते नहीं, किंतु उस विरोध के कारण और भी दूने उत्साह के साथ उस कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं।

संकीर्तन के विरोधियों ने संकीर्तन को रोकने के लिये भाँति-भाँति के उपाय किये, लोगों में उनके प्रति बुरे भाव उत्पन्न किये, लोगों को संकीर्तन के विरुद्ध उभाड़ा, उसकी अनेकों प्रकार से निन्दा की, किंतु वे सभी कामों में असफल ही रहे।

इस प्रकार महाप्रभु अपने प्रेमी भक्तों के सहित श्रीकृष्ण-संकीर्तन में सदा संलग्न रहने लगे, किंतु कुछ बहिर्मुख वृत्तिवाले पुरुष संकीर्तन के विरोधी बन गये। रात्रिभर संकीर्तन होता था, भक्तगण जोरों से ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ की ध्वनि करते। आस-पास के लोगों के निद्रासुख में विघ्न पड़ता, इसलिये वे भाँति-भाँति से कीर्तन के विरुद्ध भाव फैलाने लगे। कोई कहता- ‘ये सब लोग पागल हो गये हैं, तभी तो रात्रिभर चिल्लाते रहते हैं, क्या बतावें, इनके कारण तो सोना भी हराम हो गया है।’ कोई कहता- ‘सब एक-से ही इकट्ठे हो गये हैं। ज्ञान, योग, तप, जप में तो बुद्धि की आवश्यकता होती है, परिश्रम करना पड़ता है। इसमें कुछ करना-धरना तो पड़ता ही नहीं। चिल्लाना ही है, सो सभी तरह के लोग मिलकर चिल्लाते रहते हैं।’

कोई बीच में ही कह उठता- ‘अजी! हत्या की जड़ तो यह श्रीवासिया बामन ही है। भीख के रोट लग गये हैं! माँगकर खाते हैं, मस्ती आ गयी है, चार पैसे पास में हो गये हैं, उन्हीं की गर्मी के कारण रात्रि भर चिल्लाता रहता है। और भी दस-बीस बेकार लोगों को इकट्ठा कर लिया है। इसके पीछे हम सभी लोगों का नाश होगा।’

इतने में ही एक कहने लगा- ‘मैंने आज ही सुना है, राजा की तरफ से दो नावें सभी कीर्तन करने वालों को बाँधकर ले जाने के लिये आ रही हैं। साथ में एक फोज भी आवेगी जो श्रीवास के घर को तोड़-फोड़कर गंगा जी में बहा देगी और सभी कीर्तन करने वालों को पकड़ ले जायगी।’

इस बात से भयभीत होकर कुछ लोग कहने लगे- ‘भाई! इसमें हमारा तो कुछ दोष है ही नहीं, हम तो साफ कह देंगे कि हम कीर्तन में जाते ही नहीं, अमुक-अमुक लोग किवाड़ बंद करके भीतर न जाने क्या-क्या किया करते हैं!’

कुछ लोगों ने सम्मति दी- ‘जब तक फौज न आने पावे उससे पहले ही क़ाज़ी से जाकर कीर्तन की शिकायत कर आवें और उससे जता आवें कि इस वेदविरुद्ध, अशास्त्रीय कार्य में हमारी बिलकुल सम्मति नहीं है। न जाने ये स्त्रियों को साथ लेकर क्या-क्या कर्म करते रहते हैं!

मालूम पड़ता है, ये लोग वास-मार्ग की पद्धति से पंचमकारों के साथ उपासना करते हैं। ऊपर से लोगों को सुनाने के लिये तो जोर-जारे से श्रीकृष्ण-कीर्तन करते हैं और भीतर मांस, मदिरा, मछली, मैथुन आदि वाम-मार्गियों के साधनों का प्रयोग करते हैं। इससे यही ठीक होगा कि पहले से ही क़ाज़ी को जता दें।’ यह बात लोगों को पसंद आयी और कुछ लोगों ने जाकर नवद्वीप के क़ाज़ी के सामने संकीर्तन की शिकायत की। सब बातें सुनकर क़ाज़ी ने कहा दिया- ‘आप लोग किसी बात की चिन्ता न करें, हम कीर्तन को बंद करा देंगे।’ इस उत्तर को सुनकर शिकायत करने वाले प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थानों को लौट आये।

अब तो बाजार में संकीर्तन के सम्बन्ध में भाँति-भाँति की अफवाहें उड़ने लगीं। कोई कहता- ‘इनके जोर-जोर से चिल्लाने से भगवान भी नाराज हो जायँगे और इनके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश में दुर्भिक्ष पड़ने लगेगा।’ कोई उसकी बात का नम्रता के साथ खण्डन करता हुआ कहता- ‘यह तो नहीं कह सकते कि भगवान नाराज जो जायँगे, वे तो घट-घटव्यापी अन्तर्यामी हैं, सबके भावों को जानते हैं और सबकी सहते हैं, किंतु यदि वे धीरे-धीरे नाम-स्मरण करें तो क्या इससे पुण्य न होगा? रातभर ‘हा-हा’, ‘हू-हू’ मचाते रहने से क्या लाभ?’

उसी समय कोई अपने हृदय की जलन को शान्त करने के भाव से द्वेषबुद्धि से कहता- ‘अब दो-ही-चार दिनों में इन्हें अपनी भक्ति और संकीर्तन का मजा मिल जायगा। श्रीवास की खैर नहीं है।’

इन सभी बातों को श्रीवास पण्डित भी सुनते। रोज-रोज सुनने से उनके मन में भी कुछ-कुछ भय उत्पन्न होने लगा। वे सोचने लगे- ‘गौड़ देश का राजा हिन्दू तो है नहीं। हिन्दू-धर्म का विरोधी यवन है, यदि वह ऐसा करे तो कोई आश्चर्य नहीं, फिर हमारे बहुत-से हिन्दू भाई ही तो संकीर्तन के विरुद्ध क़ाज़ी के पास जाकर शिकायत कर आये हैं। ऐसी स्थिति में बहुत सम्भव है, हम सब लोगों को भाँति-भाँति के कष्ट दिये जायँ।’

लोगों के मुख से ऐसी-ऐसी बातों सुनकर कुछ भोले भक्त तो बहुत ही अधिक डर गये। वे श्रीवास पण्डित के पास आकर सलाह करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। कोई-कोई तो भयभीत होकर यहाँ तक हने लगे कि यदि ऐसा ही हो तो थोड़े दिनों के लिये हम लोगों को देश छोड़कर चले जाना चाहिये। उन सबकी बातें सुनकर श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘भाई! अब जो होना होगा सो होगा। श्रीनृसिंह भगवान सब भला ही करेंगे।

हम श्रीकृष्ण-कीर्तन ही तो करते हैं। देखा जायगा। जो कष्ट आवेगा, उसे सहेंगे।’ श्रीवास पण्डित ने भक्तों को तो इस भाँति समझा दिया, किंतु उनके मन में भय बना ही रहा। तो भी उन्होंने अपने मनोगत भावों को प्रभु के सम्मुख प्रकट नहीं किया। प्रभु तो सबके भावों को समझने वाले थे, उन्होंने भक्तों के भावों को समझ लिया कि ये यवन राजा के कारण कुछ भयभीत- से हो गये हैं, इसलिये इन्हें निर्भय कर देना चाहिये।

एक दिन प्रभु ने अपने सम्पूर्ण शरीर में सुगन्धित चन्दन लगाया, घुँघराले काले-काले सुन्दर बालों में सुगन्धित तैल डाला। मूल्यवान स्वच्छ और महीन वस्त्र पहने और साथ में दो-चार भक्तों को लेकर गंगा-किनारे की ओर चल पड़े। उनके अरुण अधर पान की लाली लगने से और भी अत्यधिक अरुण बन गये थे। नेत्रों में से प्रसन्नता प्रकाशित हो रही थी। मुखकमल शरत्पूर्णिमा के चन्द्र के समान खिला हुआ था। वे मन्द-मन्द मुस्कान के साथ भक्तों के आनन्द को वर्धन करते हुए गंगा जी के घाटों पर इधर-से-उधर टहलने लगे। जो सात्त्विक प्रकृति के भगवद्भक्त थे, वे तो प्रभु के अद्भुत रूपलावण्य को देखकर मन-ही-मन परम प्रसन्न हो रहे थे, किंतु जो बहिर्मुख वृत्ति के निन्दक पुरुष थे, वे आपस में भाँति-भाँति की आलोचना-प्रत्यालोचना करने लगे। परस्पर में एक-दूसरे से कहने लगे- ‘यह निमाई पण्डित भी अजीब आदमी मालूम पड़ता है, इसे तनिक भी भय नहीं है। सम्पूर्ण शहर में हल्ला हो रहा है, कल सेना पकड़ने आवेगी और सबसे पहले निमाई पण्डित को ही बाँधकर नाव पर चढ़ाया जायगा। इन सब बातों को सुनने पर भी यह राजपुत्र के समान बन-ठनकर हँसता हुआ घूम रहा है। इसके चेहरे पर सिकुड़न भी नहीं मालूम पड़ती। बड़ा विचित्र पुरुष है।’

कोई-कोई कहता- ‘अजी! सब झूठी बातें हैं, न फौज आती है और न नाव ही आ रही है। सब चंडूखाने की गप्पें हैं।’

दूसरा इसका जोरों से खण्डन करके कहता- ‘वाह साहब! आप गप्प ही समझ रहे हैं, कल काजीसाहब स्वयं कहते थे। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ कल आप प्रत्यक्ष ही देख लेना।’

इस प्रकार लोग भाँति-भाँति से अपने-अपने अनुमानों को दौड़ा रहे थे। महाप्रभु भक्तों के साथ आनन्द में विहार कर रहे थे। इसी बीच एक प्रभु के पुराने परिचित पण्डित गंगाजी पर सन्ध्या करते हुए मिले। प्रभु को देखकर उन्होंने इन्हें प्रणाम किया, फिर आपस में वार्तालाप होने लगा। बातों-ही-बातों में पण्डित ने कहा- ‘भाई! सुन रहे हैं, तुम्हें पकड़ने के लिये राजा की तरफ से सेना आ रही है। सम्पूर्ण शहर में इसकी गरम अफवाह है। यदि ऐसी ही बात है, तो तुम कुछ दिन के लिये नवद्वीप छोड़कर कहीं अन्यत्र ही चले जाओ।

राजा के साथ विरोध करना ठीक नहीं। फिर ऐसे राजा के साथ जो हमारे धर्म का स्वयं विरोधी हो। हमारी राय तो यही है कि इस समय तुम्हें मैदान छोड़कर भाग ही जाना चाहिये, आगे जैसा तुम उचित समझो।’ प्रभु ने कुछ उपेक्षा के साथ कहा- ‘अजी! जो होगा सो होने दो, अब गौड़ छोड़कर और जा ही कहाँ सकते हैं? यदि दूसरी जगह जायँगे तो वहाँ क्या बादशाह सेना भेजकर हमें पकड़कर नहीं मँगा सकता? इससे यहीं अच्छे हैं। जो कुछ दुःख पड़ेगा, उसे सहेंगे। शुभ कामों की ऐसे समय में ही तो परीक्षा होती है, दुःख ही तो धर्म की कसौटी है। देखना है कितने इस पर खरे उतरते हैं।’ यह सुनकर पण्डित चुप हो गये। प्रभु श्रीवास पण्डित के मकान की ओर चल पड़े।

क्रमशः अगला पोस्ट [45]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram composure

Let the ethical experts condemn or praise Let Lakshmi enter or leave as she pleases Whether it is death today or in the next age The steadfast do not deviate from the path of justice

Everyone is bound by the rules. All living beings want to be independent by leaving the bondage of rules, the reason for this is that the origin of the living beings was from Anand or love. There is no rule in love. Every living being has a thirst for love and Piyush. In the absence of this most beloved drink, everyone seems to be impatient and want to reach near it by breaking all kinds of bonds, but it is impossible to reach it without following the rules. A moat of rules is carved around love. No one can reach Prem-Piyush without crossing it. It is true that love itself is beyond law, there is no law near it, but at the same time it cannot be attained without law.

Once separated from love in any way, or considering yourself to be separate from it, you cannot get it again without the help of rules. Law is the only means to attain love. Those who satisfy their senses with their favorite pleasures by violating the rules in the name of love, being under the influence of sex-gluttony, they are arrogant. Their ultimate goal is to satisfy the sense-lusts in the name of love.

Love is Kalpataru, the person who worships it with the feeling, he will get the same thing. Those who want only good things in the name of love, they only get them. Those who want to enjoy beautiful subjects by making an excuse of love, they get the subjects according to their wish, but those who want only love in the name of love, and if the kingdom of Triloki also comes in front of them apart from love, then that too. They back off.

Often people have heard saying, ‘What to talk about the pleasures of heaven, we even reject salvation.’ All these are things to be said, those whose mouths water just by looking at the beautiful sweets, they go to heaven. How can you turn down the divine pleasures? Those ignorant men are ignorant of the pleasures of heaven. The one who has not followed the rules for a long time, his mind will be able to control himself, he will be able to become a lover someday, it is not estimated even in Trikaal.

Everyone gets annoyed while following the rules, but those who are patient, who are blessed by the Lord, they follow the rules even against their will by beating their mind and gradually by following the rules, they develop firmness, readiness. , Humility and humility and tolerance etc. virtues start coming. Those who want to disintegrate the rules by getting annoyed with them, first of all hatred arises in their heart towards the rules, from hatred arises the desire to propagate against that rule. By propagating against someone with malice, anger arises. Out of anger one becomes so much attached to that work that to propagate against it, he starts using even the worst abominable methods. His everything is destroyed by those bad deeds.

Mahaprabhu’s kirtan used to happen in a closed house. At that time, the devotees had made a rule that due to the arrival of unauthorized people, worldly things should not be included in their feelings. Curiosity arose in the hearts of people to see the Sankirtan. He started to hate this rule very much. He started getting annoyed towards this rule of the Lord. Those who were devotees, stopped the annoyance of their mind and started waiting patiently and at the end of the kirtan, they humbly prayed to enter the kirtan. He was allowed to enter from the second day considering him as an officer and with the effect of following the same rules, he progressed progressively in life and reached the lotus feet of the Lord by the growth of virtues, but who could not stop his annoyance because of that rule, He developed hatred towards Sankirtan. Due to malice, he became the enemy of Vaishnavas.

They started campaigning against Sankirtan and started using various evil methods to destroy Sankirtan. Sankirtan was not destroyed by their cruel deeds, on the contrary it increased more and more due to opposition, but those evil-natured men themselves became entitled to degradation. They have thrown themselves into the pit by showing intolerance towards the auspicious rule. It was because of these opponents that Sankirtan could become countrywide. In this way, the opposition of these evil-men also helps a lot in the good deeds of great men. That’s why no matter how much men of evil nature oppose the auspicious works of good men, they do not get scared of it, but because of that opposition, they get involved in that work with even more enthusiasm.

Opponents of Sankirtan took various measures to stop Sankirtan, created bad feelings among people towards them, raised people against Sankirtan, criticized it in many ways, but they failed in all the works.

In this way, Mahaprabhu along with his loving devotees always engaged in Shri Krishna-Sankirtan, but some extrovert-oriented men became opponents of Sankirtan. Sankirtan used to take place throughout the night, the devotees would loudly chant ‘Hari Bol’, ‘Hari Bol’. There was disturbance in the sleep of the people around, so they started spreading sentiments against Kirtan in various ways. Some say- ‘All these people have gone mad, that’s why they keep on shouting all night, what to say, because of them even sleeping has become forbidden.’ Some say- ‘Everyone has gathered together. Wisdom is needed in knowledge, yoga, penance and chanting, hard work has to be done. There is no need to do anything in this. One has to shout, so all kinds of people keep shouting together.’

Someone would say in the middle – ‘Aji! This Srivasiya Baman is the root cause of the murder. Begged for bread! He eats by begging, he has fun, he has four paise nearby, because of his heat, he keeps on crying all night. Ten-twenty useless people have also been gathered. After this all of us will be destroyed.

In the meantime, one started saying – ‘I have heard today, two boats are coming from the king’s side to tie up all the people doing kirtan. Along with this, an army will also come, which will destroy the house of Shrivas and drown it in Ganga ji and will catch all those who perform kirtan.

Being frightened by this, some people started saying- ‘Brother! There is no fault of ours in this, we will say it clearly that we do not go to kirtans at all, so-and-so people close the door and don’t know what they do inside!’

Some people gave consent- ‘Until the army arrives, before that go to the Qazi and complain about Kirtan and show him that we have absolutely no consent in this unscriptural, unscriptural work. Don’t know what deeds they keep doing by taking women with them!

It seems that these people worship along with the Panchamakars by the method of Vaas-Marg. To make people hear from above, they do Shri Krishna-Kirtan loudly and inside they use meat, alcohol, fish, sexual intercourse etc. means of the left path. It would be better to let the Qazi know beforehand. People liked this and some people went to the Qazi of Navadweep and complained about Sankirtan. Hearing everything, Qazi said – ‘You people should not worry about anything, we will stop the kirtan.’ Hearing this answer, the complainants happily returned to their respective places.

Now various rumors have started flying in the market regarding Sankirtan. Someone says- ‘God will also get angry due to their loud shouting and as a result of this there will be famine in the whole country.’ Someone politely refutes his statement and says- ‘It cannot be said that God will get angry. , He is omniscient, knows everyone’s feelings and tolerates everyone, but if he chants slowly, will it not be virtuous? What is the use of making ‘ha-ha’, ‘hoo-hoo’ all night long?

At the same time, with a view to pacify the jealousy of his heart, someone used to say to the malicious mind – ‘ Now in two-four days they will get the pleasure of their devotion and sankirtan. Shrivas is not well.

Shrivas Pandit would also listen to all these things. By listening everyday, some fear started arising in his mind too. They started thinking – ‘The king of Gaur country is not a Hindu. Yavan is an opponent of Hindu religion, if he does this then it is not surprising, then many of our Hindu brothers have gone to the Qazi and complained against Sankirtan. In such a situation, it is very possible that all of us should be given different types of troubles.

Some innocent devotees got very scared after hearing such things from the mouth of the people. They came to Shrivas Pandit and started advising what should be done now. Some even started laughing in fear that if this happens, then we should leave the country for a few days. After listening to all of them, Shrivas Pandit said- ‘Brother! Now whatever has to happen will happen. Lord Srinrisingh will do good to all.

We only do Shri Krishna-Kirtan. Will be seen We will bear whatever sufferings come.’ Shrivas Pandit explained to the devotees in this way, but the fear remained in their mind. Even then he did not reveal his occult feelings in front of the Lord. The Lord was about to understand everyone’s feelings, He understood the feelings of the devotees that they have become somewhat fearful because of the Yavan king, so they should be made fearless.

One day the Lord applied fragrant sandalwood all over his body, put fragrant oil in his curly black-black beautiful hair. Wearing clean and fine clothes and taking two or four devotees along with them, went towards the bank of the Ganges. His Arun had become even more Arun due to the redness of the drink. Happiness was being published from the eyes. Mukhkamal was blooming like the moon of Sharatpurnima. He started walking here and there on the ghats of Ganga ji increasing the joy of the devotees with a soft smile. Those who were devotees of Bhagwad of sattvik nature, they were very happy in their heart to see the wonderful beauty of the Lord, but those who were slanderers of extrovert attitude, they started criticizing and counter-criticizing each other in various ways. They started saying to each other – ‘ This Nimai Pandit also seems to be a strange man, he is not afraid at all. There is an uproar in the whole city, tomorrow the army will come to catch him and first of all Nimai Pandit will be tied and put on a boat. Even after listening to all these things, he is roaming around laughing like a prince. There is not even a trace of wrinkle on his face. He is a very strange man.

Some say – ‘ Oh! Everything is false, neither the army comes nor the boat is coming. All are gossip of Chandukhana.

The other would deny it vehemently and say- ‘Wah sir! You are only understanding gossip, yesterday Qazisaheb himself used to say. ‘What is the RC of the hand bracelet’ you can see directly tomorrow.’

In this way people were running their own guesses in different ways. Mahaprabhu was roaming in joy with the devotees. Meanwhile, an old acquaintance of Prabhu met Pandit Gangaji while doing evening. Seeing the Lord, they bowed down to him, then the conversation started. In a few words, the Pandit said – ‘Brother! Listen, the army is coming from the king to catch you. It’s a hot rumor in the whole city. If this is the case, then leave Navadvipa for a few days and go somewhere else.

It is not right to oppose with the king. Then with such a king who himself is against our religion. Our opinion is that at this time you should leave the field and run away, do as you think fit.’ Prabhu said with some neglect – ‘Aji! Whatever will happen, let it happen, leaving Gaur, where else can you go? If we go to another place, then can’t the king send the army there and arrest us? It is better here than here. Whatever pain is there, we will bear it. Good deeds are tested in such times only, sorrow is the test of religion. Let us see how many can live up to it.’ The pundits became silent after hearing this. Prabhu Shrivas walked towards Pandit’s house.

Next post respectively [45] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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