[46]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्रीवाराहावेश

नमस्तस्मै वराहाय हेलयोद्धरते महीम्।
खुरमध्यगतो यस्य मेरु: खुरखुरायते।।

‘आवेश’ उसे कहते हैं कि किसी एक अन्य शरीर में किसी भिन्न शरीरी के गुणों का कुछ काल के लिये आवेश हो जाय। प्रायः लोक में स्त्री-पुरुषों के ऊपर भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस तथा देव-दानवों के आवेश आते देखे गये हैं। जो जैसी प्रकृति के पुरुष होते हैं, उनके ऊपर वैसे ही आवेश भी आते हैं। देवताओं का आवेश सात्त्विक प्रकृति के ही लोगों के ऊपर आवेगा। यक्ष-राक्षसों का आवेश राजस-प्रकृति के ही शरीरों में प्रकट होगा और जो घोर तामस-प्रकृति के पुरुष हैं, उन्हीं के शरीर में भूत-पिशाचों का आवेश आता है। सभी के शरीरों में आवेश हो, यह बात नहीं। कभी किसी विरले ही शरीर में आवेश हुआ देखा जाता है। वह क्यों होता है और किस प्रकार होता है, इसका कोई निश्चित नियम नहीं। जिस देव, दानव अथवा भूत-पिशाच ने जिसे शरीर को अपने उपयुक्त समझ लिया, उसी में प्रवेश करके वह अपने भावों को व्यक्त करता है।

इसके अतिरिक्त भगवान के कलावतार, अंशावतार आदि अवतारों के मध्य में एक आवेशावतार भी होता है। किसी महान कार्य के लिये किसी विशेष शरीर में भगवान का आवेश होता है और उस कार्य को पूरा करके फौरन ही वह आवेश चला जाता है। भगवान तो ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ सभी कुछ करने में समर्थ हैं, उनकी इच्छामात्र से बड़े-बड़े दुष्टों का संहार हो सकता है; किंतु भक्तों के प्रेम के अधीन होकर, उन्हें अपनी असीम कृपा का महत्त्व जताने के निमित्त तथा अपनी लीला प्रकट करने के निमित्त वे भाँति-भाँति के अवतारों का अभिनय करते हैं। वास्तव में तो वे नाम, रूप तथा सभी प्रकार के गुणों से रहित हैं।

जिस प्रकार पृथ्वी को दुष्ट क्षत्रियों के अत्याचार से पीड़ित देखकर महर्षि परशुराम के शरीर में भगवान का आवेश हुआ और पृथ्वी को दुष्ट क्षत्रियों से हीन करके शीघ्र ही वह आवेश अदृश्य हो गया, फिर परशुराम जी शुद्ध ऋषि बन आज तक भी महेन्द्र पर्वत पर बैठे तपस्या कर रहे हैं। इस प्रकार आवेशावतार किसी विशेष कार्य की सिद्धि के निमित्त होता है और वह अधिक दिन तक ठहरता भी नहीं। द्रौपदी के चीर खींचने पर भगवान का चीरावतार भी हुआ था और क्षणभर में ही द्रौपदी की लाज रखकर वह अदृश्य भी हो गया।

इसी प्रकार अब प्रभु के भी शरीर में भिन्न-भिन्न अवतारों के आवेश होने लगे। जिस समय ये आवेशावस्था में होते, उस समय उसी अवतार के गुणों के अनुसार बर्ताव करने लगते और जब वह आवेश समाप्त हो जाता, तब आप एक अमानी भक्त की भाँति बहुत ही दीनता का बर्ताव करने लगते। भक्तों की पद-रज को अपने मस्तक पर चढ़ाते और सबसे अधीर होकर पूछते- ‘मुझे श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति कब हो सकेगी? आप लोग मुझे श्रीकृष्ण-प्राप्ति का उपाय बतावें। मैं अपने प्यारे श्रीकृष्ण से कैसे मिल सकूँगा? इस प्रकार इनके जीवन में दो भिन्न-भिन्न भाव प्रतीत होने लगे- भावावेश में तो भगवद्भाव और साधारणरीत्या भक्तभाव। जो इनके अन्तरंग भक्त थे, वे तो इनमें सर्वकाल में भगवद्भावना ही रखते और ये कितनी भी दीनता प्रकट करते तो भी उससे उनके भाव में परिवर्तन नहीं होता, किंतु जो साधारण थे, वे संदेह में पड़ जाते कि यह बात क्या है? कोई कहता- ‘ये साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं।’ कोई कहता- ‘न जाने किसी देवी-देवता का आवेश होता हो।’ कोई-कोई इसे तान्त्रिक सिद्धि भी बताने लगे। प्रभु के शरीर में कुछ श्रीकृष्ण-लीलाओं का भी भक्तों ने उदय देखा था। कभी तो ये अक्रूर-लीला करते, कभी गोपियों के विरह में रुदन करते थे।

मुरारी गुप्त वराह भगवान के उपासक थे। एक दिन मुरारी गुप्त वराह भगवान के स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। प्रभु दूर से ही स्तोत्रपाठ सुनकर वराह की भाँति जोरों से गर्जना करते हुए ‘शूकर’, ‘शूकर’ ऐसा कहते हुए मुरारी गुप्त के घर की ओर चले। उस समय इनकी प्रकृति में मुरारी गुप्त ने सभी वराहावतार के गुणों का अनुभव किया। प्रभु दोनों हाथों को पृथ्वी पर टेककर हाथ-पैरों से बिलकुल वराह की भाँति चलने लगे। रास्ते में एक बड़ा पीतल का जलपूर्ण कलश रखा था। प्रभु ने उसे अपनी डाढ़ से उठाकर दूसरी ओर फेंक दिया और आप सीधे गुप्त महाशय के पूजागृह में चले गये। वहाँ जाकर आप आसनासीन हुए और मुरारी से कहने लगे- ‘मुरारी! तुम हमारी स्तुति करो।’

मुरारी ने हाथ जोड़े हुए अति दीनभाव से कहा- ‘प्रभो! आपकी महिमा वेदातीत है। वेद, शास्त्र आपकी महिमा को पूर्ण रीति से समझ ही नहीं सकते। श्रुतियों ने आपका ‘नेति’, ‘नेति’ कहकर कथन किया है। आप अन्तर्यामी हैं। शेष जी सहस्र मुखों से अहर्निश आपके गुणों का निरन्तर कथन करते रहते हैं तो भी प्रलय के अन्त तक आपके समस्त गुणों का कथन नहीं कर सकते। फिर मैं अज्ञ प्राणी भला आपकी स्तुति कैसे कर सकूँगा?

प्रभु ने उसी प्रकार गम्भीर स्वर में कहा- ‘मुरारी! तुम्हें भय करने की कोई बात नहीं। जो दुष्ट मेरे संकीर्तन में विघ्न करेगा, मैं उसका संहार करूँगा, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। तुम निर्भय रहो। नाम संकीर्तन द्वारा मैं जगदुद्धार का कार्य करूँगा।’ यह कहते-कहते प्रभु अचेत-से हो गये और वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े। कुछ काल के अनन्तर प्रभु प्रकृतिस्थ हुए और मुरारी से फिर उसी प्रकार की अधीरता की बातें करने लगे। मुरारी गुप्त तो इनके प्रभाव का पहले ही परिचय प्राप्त कर चुके थे। इसलिये उने भाव में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। प्रभु इस प्रकार मुरारी को अपने दर्शनों से कृतार्थ करके घर की ओर चले गये। इसी प्रकार भक्तों को अनेक भावों और लीलाओं से प्रभु सदा आनन्दित और सुखी बनाते हुए श्रीकृष्ण-कीर्तन में संलग्न बनाये रखते थे। एक दिन संकीर्तन करते-करते प्रभु ने बीच में ही कहा- ‘नदिया में अब शीघ्र ही एक महापुरुष आने वाले हैं, जिनके द्वारा नवद्वीप के कोने-कोने और घर-घर में श्रीकृष्ण-संकीर्तन का प्रचार होगा।’

प्रभु के मुख से इस बात को सुनकर सभी भक्तों को परम प्रसन्नता प्राप्त हुई और वे आनन्द के उद्रेक में और अधिक उत्साह के साथ नृत्य करने लगे। भक्तों को दृढ़ विश्वास था कि प्रभु ने जो बात कही है, वह सत्य ही होगी। इस बात को चार-पाँच ही दिन हुए होंगे कि एक दिन संकीर्तन के अनन्तर प्रभु ने भक्तों से कहा- ‘मेरे अग्रज, मेरे परम सखा, मेरे बन्धु और मेरे वे सर्वस्व महापुरुष अवधूत के वेश में नवद्वीप में आ गये हैं, अब तुम लोग जाकर उन्हें खोज निकालो।’ प्रभु की ऐसी आज्ञा पाकर भक्तगण उन अवधूत महापुरुष को खोजने के लिये गये। पाठकों को उत्सुकता होगी, कि ये निमाई के सर्वस्व अवधूत-वेश में कौन महापुरुष थे? असल में ये अवधूत नित्यानन्द जी ही थे, जो गौर-भक्तों में ‘निमाई के भाई निताई’ के नाम से पुकारे जाते हैं। पाठकों को इनका परिचय अगले अध्याय में मिलेगा।

क्रमशः अगला पोस्ट [47]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram srivarahavesh

“Obeisance to that boar who lifts the earth without hesitation The mountain of which is in the middle of the hoof is hoof-hoofed.

‘Avesh’ is called that when the qualities of a different body become charged for some time in another body. Often in the world men and women are seen being possessed by ghosts, ghosts, yakshas, ​​demons and gods and demons. Those who are men of nature, the same passions also come on them. The anger of the deities will come only on the people of sattvik nature. The passion of Yaksha-demons will appear in the bodies of Rajas-Prakriti only and the passion of ghosts-vampires comes in the bodies of men who are of fierce Tamas-nature. It doesn’t matter if everyone has passion in their bodies. Sometimes it is rarely seen that there is passion in the body. There is no fixed rule as to why it happens and how it happens. The god, demon or ghost-vampire who has considered the body suitable for himself, he expresses his feelings by entering that body.

Apart from this, there is also a passion avatar among the incarnations of God like Kalavatar, Anshavatar etc. For some great work, there is a charge of God in a particular body and that charge goes away immediately after completing that work. God ‘Kartumkartumanyathakartum’ is able to do everything, even the biggest of the wicked can be killed by his will only; But being influenced by the love of the devotees, in order to show them the importance of His infinite grace and to reveal His pastimes, He plays various incarnations. In fact, He is without name, form and all kinds of qualities.

Just as seeing the earth suffering from the tyranny of the wicked Kshatriyas, Maharishi Parshuram’s body was filled with God’s anger, and soon after making the earth inferior to the evil Kshatriyas, that passion disappeared, then Parshuram ji became a pure sage, even today sitting on Mahendra mountain, doing penance. are doing. In this way, passion takes place for the accomplishment of a particular task and it does not even last for a long time. On pulling Draupadi’s rag, the God had also become a rip-off and in a moment he also became invisible keeping Draupadi’s shame.

Similarly, now in the body of the Lord also the passions of different incarnations started. At the time when he was in a state of passion, he used to behave according to the qualities of that incarnation and when that passion was over, then you started behaving very humbly like a devotee of Amani. Offering the dust of the devotees on his head and asking most impatiently – ‘When will I be able to attain the love of Shri Krishna? You people tell me the way to attain Shri Krishna. How can I meet my beloved Shri Krishna? In this way, two different feelings began to appear in his life – Bhagwad Bhaav in emotion and Bhagwad Bhaav ordinarily. Those who were his intimate devotees, used to keep Bhagavad Bhavana in him all the time and no matter how much humility he showed, even then it did not change his feelings, but those who were ordinary, they would have doubted that what is this thing? Some say – ‘He is Shri Krishna in person.’ Some say – ‘Don’t know if you are possessed by some god or goddess.’ Some even call it a tantric achievement. Devotees had also seen the emergence of some Sri Krishna-leelas in the body of the Lord. Sometimes they used to do akrur-leela, sometimes they used to cry in separation from the gopis.

Murari Gupta was a worshiper of Varaha God. One day Murari Gupta was reciting the stotra of Lord Varah. Hearing the recitation of hymns from afar, the Lord went towards Murari Gupta’s house, shouting loudly like a boar, saying ‘Swine’, ‘Swine’. At that time Murari Gupta experienced the qualities of all Varahavatar in his nature. The Lord started walking with both hands and feet just like a boar by keeping both hands on the earth. A big brass urn full of water was kept on the way. Prabhu picked it up from his molar and threw it on the other side and you went straight to Gupta Mahasaya’s worship house. After going there you sat down and said to Murari – ‘Murari! You praise us.

Murari said with folded hands very humbly – ‘ Lord! Your glory is beyond the Vedas. Vedas and scriptures cannot understand your glory completely. Shrutis have described you as ‘Neti’, ‘Neti’. You are antaryami. Shesh ji, with thousands of mouths, Aharnish continues to describe your qualities, even then he cannot describe all your qualities till the end of the holocaust. Then how can I, an ignorant creature, be able to praise you?

In the same way the Lord said in a serious voice – ‘Murari! You have nothing to fear. The evil one who disturbs my sankirtan, I will kill him, no matter who he is. you be fearless I will do the work of Jagaduddhar by chanting the name.’ Saying this, the Lord fainted and fell there unconscious. After some time, the Lord became natural and started talking to Murari again with the same kind of impatience. Murari Gupta had already got the introduction of his influence. That’s why there was no change in his attitude. Prabhu thus pleased Murari with his darshans and went towards home. In the same way, the Lord used to make the devotees always happy and happy with many emotions and pastimes and kept them engaged in Shri Krishna-Kirtan. One day, while doing Sankirtan, the Lord said in the middle – ‘Soon a great man is going to come to Nadiya, through whom Shri Krishna-Sankirtan will be propagated in every corner and every house of Navadvipa.’

Hearing this from the mouth of the Lord, all the devotees were overjoyed and started dancing with more enthusiasm in the excitement of joy. The devotees firmly believed that whatever the Lord had said would be true. It must have been about four-five days that one day after chanting the Lord said to the devotees- ‘My elder, my best friend, my friend and my all-great men have come to Navadweep in the guise of Avadhoot, now you people Go and find him.’ After receiving such orders from the Lord, the devotees went to find that great great man. Readers would be curious, who was this great man in Nimai’s all Avdhoot-dress? In fact, it was Avdhoot Nityanand ji, who is called by the name of ‘Nimai’s brother Nitai’ among Gaur-devotees. Readers will get to know about them in the next chapter.

respectively next post [47] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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