[81]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह

कुलं च मानं च मनोरमांश्‍च
दारांश्‍च भक्तान् रूदतीं च मातरम्।
त्यक्त्वा गत: प्रेमप्रकाशनार्थं
स मे सदा गौरहरि: प्रसीदतु।।

गंगापार करके प्रभु मत्त गजेन्द्र की भाँति द्रुत गति से महामहिम केशव भारती की कुटिया के लिये कटवा-ग्राम की ओर चले। कटवा या कण्‍टक-नगर गंगा जी के उस पार एक छोटा-सा ग्राम था। ग्राम से थोड़ी दूर पर श्रीगंगा जी के ठीक किनारे पर एक बड़ा भारी वटवृक्ष था। उस वटवृक्ष के नीचे ए‍क कुटिया बनाकर संन्यासिप्रवर स्वामी केशव भारती निवास करते थे। भारती महाराज विरक्त और भगवद्भक्त थे। ग्राम के सभी स्त्री-पुरुष उनका अत्यधिक आदर करते थे। उनकी कुटिया के नीचे ही गंगा जी का सुन्दर घाट था। ग्रामवासी उसी घाट पर स्नान करने और जल भरने आया करते थे। भारती की कुटिया के चारों ओर बड़ा ही सुन्दर आम के वृक्षों का बगीचा था।

भारती जी अपने लिपे-पुते स्वच्छ आश्रम के चबूतरे पर धूप में आसन बिछाये बैठे थे। चारों ओर से आमों के मौर की भीनी-भीनी गन्ध आ रही थी। दूर से ही उन्होंने प्रभु को अपने आश्रम की ओर आते देखा। वे प्रभु की उस उन्मत्त चालको देखकर विस्मित-से हो गये और मन-ही-मन सोचने लगे- ‘यह अद्भुत रूप-लावण्‍ययुक्त युवक कौन है? इसके मुखमण्‍डल पर दिव्य प्रकाश आलोकित हो रहा है। मालूम पड़ता है साक्षात देवराज इन्द्र युवक का रूप धारण करके मेरे पास आये हैं, या ये दोनों अश्विनीकुमारों में से कोई एक हैं, अपने भाई को अपने से बिछुड़ा देखकर उन्हें ढुंढ़ने के निमित्त मेरे आश्रम की ओर आ रहे हैं। या ये साक्षात श्रीमन्नारायण हैं, जो मुझे कृतार्थ करने और दर्शन देने इधर आ रहे हैं।’ भारती जी मन-ही-मन यह सोच ही रहे थे कि इतने में ही गीले वस्त्रों के सहित प्रभु ने भूमि पर पड़कर भारती के चरणों में साष्‍टांग प्रणाम किया। भारती जी सम्भ्रम के साथ ‘नारायण, नारायण’ कहने लगे।

प्रभु बहुत देर तक भारती जी के चरणों में पड़े ही रहे। प्रेम के कारण उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो रहे थे। दोनों नेत्रों में से अश्रु बह रहे थे। लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ते हुए प्रभु जोरों से उसास ले रहे थे। भारतीजी ने उन्हें उठाते हुए पूछा- ‘भाई! तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? इतने व्याकुल क्यों हो रहे हो? अपने दु:ख का कारण बताओ?’ भारती जी के प्रश्‍नों को सुनकर प्रभु उठकर बैठ गये और धीरे-धीरे कहने लगे- ‘भगवन! आपने मुझे पहचाना नहीं? मेरा नाम निमाई पण्डित है।

मैं नवद्वीप में रहता हूँ, आपने एक बार नवद्वीप पधारकर मेरे ऊपर कृपा की थी और मेरे यहाँ भिक्षा पाकर मुझे कृतार्थ किया था। मेरी प्रार्थना पर आपने मुझे संन्यास-दीक्षा देने का भी वचन दिया था। अब मैं इसीलिये आपके शरणापन्न हुआ हूँ। मुझे संसार-दु:खों से मुक्त कीजिये। मेरा संसारी-बन्धन छिन्न-भिन्न करके मुझे संन्यासी बना दीजिये। यही मेरी आपके श्रीचरणों में विनम्र प्रार्थना है।’

भारती जी को पिछली बातें स्मरण हो आयीं। निमाई का नाम सुनकर उन्होंने उनका आलिंगन किया और मन-ही-मन सोचने लगे- ‘हाय! इन पण्डित का कैसा सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर, कैसा अलौकिक रूप-लावण्‍य, प्रभु के प्रति कितना प्रगाढ़ प्रेम और कितनी भारी विद्वत्ता है, फिर भी ये मेरे पास संन्यास-दीक्षा लेने आये हैं! इन्हें मैं संन्यासी कैसे बना सकूँगा? घर में असहाया वृद्धा माता है, उसकी यही एकमात्र सन्तान है। परम रूपवती युवती स्त्री इनके घर में है, उसके कोई सन्तान भी नहीं, जिससे आगे के लिये वंश चल सके। ऐसी दशा में भी ये संन्यास लेने आये हैं; क्या इन्हें संन्यास की दीक्षा देकर मैं पाप का भागी न बनूंगा?’ यह सोचकर भारतीजी कहने लगे- ‘निमाई पण्डित! तुम स्वयं बुद्धिमान हो, शास्त्रों का मर्म तुमसे अविदित नहीं है। युवावस्था में विषय-भोगों से भलीभाँति उपरति नहीं होती, इसलिये इस अवस्था में संन्यास-धर्म ग्रहण करना निषेध है। पचास वर्ष की अवस्था के पश्‍चात जब विषय-भोगों से विराग हो जाय तब संन्यास-आश्रम का विधान है। अत: अभी तुम्हारी संन्यास ग्रहण करने योग्य अवस्था नहीं है। अभी तुम घर में ही रहकर भगवद्भजन करो। घर में रहकर क्या भगवान का भजन नहीं हो सकता? हमारा तो ऐसा विचार है कि द्वार-द्वार से टुकडे़ मांगने की अपेक्षा तो घर में ही निर्विघ्‍नतापूर्वक भजन हो सकता है। पेट तो कहीं भी भरना ही होगा। रहने को स्थान भी कहीं खोजना ही होगा। इसलिये बने-बनाये घर को ही क्यों छोड़ा जाय। न दस-बीस घरों में भिक्षा मांगी एक ही जगह कर ली। इसलिये हमारी सम्मति में तो तुम अपने घर लौट जाओ।’

अत्‍यंत ही करूणस्‍वर से प्रभु ने कहा- ‘भगवन! आप साक्षात ईश्‍वर हैं। आप शरीर धारी नारायण हैं, मुझ संसारी-गर्त में फंसे हुए जीव का उद्धार कीजिये। आप मुझै इस तरह से न बहकाइये। आप मुझे वचन दे चुके हैं, उस वचन का पालन कीजिये। मनुष्‍य की आयु क्षणभंगुर है। पचास वर्ष किसने देखे हैं। आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, आप मुझे संसार-बंधन से मुक्‍त कर दीजिये।’

भारती जी प्रभु की बात का कुछ भी उत्‍तर न दे सके। वे थोड़ी देर के लिये चुप हो गये। इतने में ही नित्‍यानंद जी भी चन्‍द्रशेखर आचार्य आदि भक्‍तों के सहित भारती जी के आश्रम पर आ पहुँचे। उन्‍होंने एक ओर घुटनों में सिर दिये हुए प्रभु को बैठे देखा। प्रभु को देखते ही वे लोग प्रेम के कारण अधीर हो उठे। सभी ने भारती जी को तथा प्रभु को श्रद्धा-भक्ति सहित प्रणाम किया और वे भी प्रभु के पीछे एक ओर बैठ गये। श्रीपाद नित्‍यानंद जी को देखकर प्रभु कहने लगे- ‘श्रीपाद! आप अच्‍छे आ गये। आचार्य के बिना संस्‍कारों के कार्यों को कौन कराता। आपके आने से ही सम्‍पूर्ण कार्य भलीभाँति सम्‍पन्‍न हो सकेंगे।’ नित्‍यानंद जी ने प्रभु की बात का कुछ उत्तर नहीं दिया। वे नीचे को दृष्टि किये चुपचाप बैठे रहे।

इतने में ही ग्राम के दस-पांच आदमी भारती जी के आश्रम में आ गये। उन्‍होंने देखा एक देव-तुल्‍य परम सुकुमार युवक एक ओर संन्‍यासी बनने के लिये बैठा है, उसके आसपास कई भद्रपुरुष बैठे हुए आंसू बहा रहे हैं, सामने शोकसागर में डूबे हुए-से भारती कुछ सोच रहे हैं।

महाप्रभु के उस अद्भुत रूप-लावण्‍य को देखकर ग्रामवासी भौचक्‍के-से रह गये। उन्‍होंने मनुष्‍य-शरीर में ऐसा अलौकिक रूप और इतना भारी तेज आज तक देखा ही नहीं था। बात-की-बात में यह बात आसपास के सभी ग्रामों में फैल गयी। प्रभु के रूप, लावण्‍य और तेज की ख्‍याति सुनकर दूर-दूर से लोग उनके दर्शनों के लिये आने लगे। कटवा-ग्राम के तो स्‍त्री–पुरुष,बूढ़े-जवान तथा बाल-बच्‍चे सभी भारती के आश्रम पर आकर एकत्रित हो गये। जो स्‍त्रियाँ कभी भी घर से बाहर नहीं निकलती थीं , वे भी प्रभु के देवदुर्लभ दर्शनों की अभिलाषा से सब कुछ छोड़-छाड़कर भारती जी के आश्रम पर आ गयीं।

प्रभु एक ओर चुपचाप बैठे हुए थे। उनके काले-काले घुंघराले बाल बिना किसी नियम के स्‍वाभाविक रूप से इधर-उधर छिटके हुए थे। वे अपनी स्‍वाभाविक दशा में प्रभु के मुख की शोभा को और भी अत्‍यधिक आलोकमय बना रहे थे। प्रभु की दोनों आँखें ऊपर चढ़ी हुई थी। शरीर के गीले वस्‍त्र शरीर पर ही सूख गये थे। वे अपने एक घोंटूपर सिर रखे ऊर्ध्‍वदृष्टि से आकाश की ओर निहार रहे थे। उनकी दोनों आँखों की कोरों में से निरंतर अश्रु बह रहे थे। पीछे नित्‍यानंद आदि भक्त भी चुपचाप बैठे हुए अश्रुविमोचन कर रहे थे।

नगर की स्त्रियों ने महाप्रभु के रूप को देखा। वे उनके रूप-लावण्‍य को देखते ही बावली-सी हो गयीं ओर परस्‍पर में शोक प्रकट करते हुए कहने लगीं- ‘हाय! इनकी माता कैसे जीवित रही होगी। जिसका सर्वगुण-सम्‍पन्‍न इतना सुंदर और सुशील इकलौता पुत्र घर से संन्‍यासी होने के लिये चला आया हो, वह जननी किस प्रकार प्राण धारण कर सकती हैं। जब अपरिचित होने पर हमारा ही हृदय फटा जा रहा है तब जिसने इन्‍हें नौ महीने गर्भ में धारण किया होगा, उसकी तो वेदना का अनुमान लगाया ही नहीं जा सकता। हाय! विधाता को धिक्‍कार है, जो ऐसा अद्भुत रूप देकर इनकी ऐसी मति बना दी। हाय! इनकी युवती स्‍त्री की क्‍या दशा हुई होगी।’

वृद्धा स्त्रियां इनको इस प्रकार आँसू बहाते देखकर इनके समीप जाकर कहतीं- ‘बेटा! तुझे क्‍या सूझी है, तेरी मां की क्‍या दशा होगी। तेरी दशा देखकर हमारा हृदय फटा जाता है। तू अपने घर को लौट जा। संन्‍यासी होने में क्‍या रखा है। जाकर माता-पिता की सेवा कर।’ युवती स्त्रियां रोते-रोते कहतीं- ‘हाय! इनकी स्त्री के ऊपर तो आज वज्र ही टुट पड़ा होगा। जिसका त्रैलोक्य-सुन्दर पति युवावस्था में उसे छोड़कर संन्यासी बनने के लिये चला आया हो- उस दु:खिनी नारी को दु:ख को कौन समझ सकता है। पति ही कुलवती स्त्रियों के लिये एकमात्र आधार और आश्रय है। वह निराधार और निराश्रया युवती क्या सोच रही होगी। क्या कह-कहकर रुदन कर रही होगी।’ कोई-कोई साहस करके कहतीं- ‘अजी! तुम अपने घर को चले जाओ, हम तुम्हारे पैर छुती हैं। तुम्हारी घरवाली की दशा का अनुमान करके हमारी छाती फटी जाती है। तुम अभी चले जाओ।’

प्रभु उन स्त्रियों की बातें सुनते मुख में तृण दबाकर तथा हाथ जोड़कर अत्यन्त ही दीनभाव से कहते- ‘माताओ! तुम मुझे ऐसा आशीर्वाद दो कि मुझे कृष्‍ण प्रेम की प्राप्ति हो जाय। यह मनुष्‍य-जीवन क्षणभंगुर है। उसमें श्रीकृष्‍ण-भक्ति बड़ी दुर्लभ है। उससे भी दुर्लभ महात्मा और सत्पुरुषों की संगति है। महापुरुषों की संगति से ही जीवन सफल हो सकता है। मैं संन्यास ग्रहण करके वृन्दावन में जाकर अपने प्यारे श्रीकृष्‍ण को पा सकूं, ऐसा आशीर्वाद दो।’ स्त्रियाँ इनकी ऐसी दृढ़तापूर्वक बातों को सुनकर रोने लगतीं और इन्हें अपने निश्‍चय से तनिक भी विचलित हुआ न देखकर मन-ही-मन पश्‍चात्ताप करती हुई अपने-अपने घरों को लौट जातीं। इस प्रकार प्रभु को बैठे-ही-बैठे शाम हो गयी। किसी ने भी अन्न का दाना मुख में नहीं दिया था। सभी उसी तरह चुपचाप बैठे थे।

भारती किंकर्तव्यविमूढ़-से बने बैठे हुए थे। उन्हें प्रभु को संन्यास से निषेध करने के लिये कोई युक्ति सूझती ही नहीं थी। बहुत देर तक सोचने के पश्‍चात एक बात उनकी समझ में आयी। उन्होंने सोचा- ‘इनके घर में अकेली वृद्धा माता है, युवती स्त्री है, अवश्‍य ही ये उनसे बिना ही पूछे रात्रि में उठकर चले आये हैं। इसलिये मैं इनसे कह दूँ कि जब तक तुम अपने घर वालों से अनुमति न ले आओगे, तब तक मैं संन्यास न दूँगा। इनकी माता तथा पत्नी संन्यास के लिये इन्हें अनुमति देने ही क्यों लगी। सम्भव है इनके बहुत आग्रह पर वे सम्मति दे भी दें, तो जब तक ये सम्मति लेने घर जायंगे तब तक मैं यहाँ से उठकर कहीं अन्यत्र चला जाऊंगा। भला, इतने सुकुमार शरीर वाले युवकों को संन्यास की दीक्षा देकर कौन संन्यासी लोगों की अपकीर्ति का भाजन बन सकता है। इन काले-काले घुंघराले बालों को कटवाते समय किस वीतरागी त्यागी संन्यासी का हृदय विदीर्ण न हो जायगा।’

यह सब सोचकर भारती जी ने कहा- ‘पण्डित! मालूम पड़ता है, तुम अपनी माता तथा पत्नी से बिना ही कहे रात्रि में उठकर भाग आये हो। जब तक तुम उनसे आज्ञा लेकर न आओगे तब तक मैं तुम्हें संन्यास-दीक्षा नहीं दे सकता।
प्रभु ने कहा- ‘भगवन्! मैं माता तथा पत्नी की अनुमति प्राप्त कर चुका हूँ।’
भारती जी ने कुछ विस्मय के साथ पूछा- ‘कब प्राप्त कर चुके हो?’

प्रभु ने कहा- बहुत दिन हुए तभी मैंने इस सम्बन्ध की सभी बातें बताकर उन्हें राजी कर लिया था और उनकी सम्मति लेकर ही मैं संन्यास ले रहा हूँ।’ भारती जी ने कहा- ‘इस तरह से नहीं, बहुत दिन की बातें तो भूल में पड़ गयीं। आज तो तुम उनकी बिना ही सम्मति के आये हो। उनकी सम्मति के बिना मैं तुम्हें कभी भी संन्यास की दीक्षा नहीं दुंगा!’ इतनी बात के सुनते ही प्रभु एक दम उठकर खडे़ हो गये और यह कहते हुए कि- ‘अच्छा, लीजिये मैं अभी उनकी सम्मति लेकर आता हूँ।’ वे नवद्वीप की ओर द्रुतगति के साथ दौड़ने लगे। जब वे आश्रम से थोड़ी दूर निकल गये तब भारती जी ने सोचा- ‘इनकी इच्छा के विरुद्ध करने की सामर्थ्‍य है। यदि इनकी ऐसी ही इच्छा है कि यह निर्दय काम मेरे ही द्वारा हो, यदि ये अपने लोकविख्‍यात गुरुपद का सौभाग्य मुझे ही प्रदान करना चाहते हैं, तो मैं लाख बहाने बनाऊँ तो भी मुझे यह कार्य करना ही होगा।

अच्छा, जैसी नारायण की इच्छा।’ यह सोचकर उन्होंने प्रभु को आवाज दी- ‘पण्डित! पण्डित! लौट आओ। जैसा तुम कहोगे वैसा ही किया जायगा। तुम्हारी बात को टालने की किसमें सामर्थ्‍य है।’ इतना सुनते ही प्रभु उसी प्रकार जल्दी से लौट आये। आकर उन्होंने भारती जी के चरणों में फिर से प्रणाम किया और मुकुन्द के पदों को सुनकर प्रभु श्रीकृष्‍ण–प्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे और मुकुन्ददत्त से बार-बार कहने लगे- ‘हां, गाओ, गाओ! फिर क्या हुआ! अहा, राधिका जी का वह अनुराग धन्य है।’ इस प्रकार गायन के पश्‍चात संकीर्तन आरम्भ हुआ। गांव के सैकड़ों मनुष्‍य आ-आकर संकीर्तन में सम्मिलित होने लगे। गांव से मनुष्‍य ढोल-करताल तथा झाँझ-मजीरा आदि बहुत-से वाद्यों को साथ ले आये थे। एक साथ बहुत-से वाद्य बजने लगे और सभी मिलकर-

हरि हरये नम: कृष्‍ण यादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।

-इस पद का कीर्तन करने लगे। प्रभु भावावेश में आकर संकीर्तन के मध्‍य में दोनों हाथ ऊपर उठाकर नृत्य करने लगे। सभी ग्रामवासी प्रभु के उस अद्भुत नृत्य को देखकर मन्त्रमुगध-से हो गये। भारती जी के शरीर में भी प्रेम के सभी सात्त्विक भावों का उदय होने लगा और वे भी आत्म-विस्मृत होकर पागल की भाँति संकीर्तन में नृत्य करने लगे। तब उन्हें प्रभु की महिमा का पता चला। वे प्रेम में छक-से गये। इस प्रकार सम्पूर्ण रात्रि इसी प्रकार कथा-कीर्तन और भगवत-चर्चा में ही व्यतीत हुई।

क्रमशः अगला पोस्ट [82]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Gaurahari’s request for renunciation

Family and honor and pleasure Wives devoted to him and a weeping mother He left and went to express his love May that Gaurahari always be pleased with me.

After crossing the Ganges, like Lord Matt Gajendra, he went towards Katwa-village for the hut of His Highness Keshav Bharati. Katwa or Kantak-nagar was a small village on the other side of Ganga ji. At a little distance from the village, there was a big heavy banyan tree on the right bank of Shri Ganga ji. Swami Keshav Bharti, a sannyasipravar, used to reside by building a cottage under that banyan tree. Bharti Maharaj was detached and a devotee of the Lord. All the men and women of the village respected him very much. There was a beautiful ghat of Ganga ji just below his cottage. The villagers used to come to the same ghat to bathe and fill water. There was a very beautiful garden of mango trees around Bharti’s hut.

Bharti ji was sitting on the platform of his Swachh Ashram, spread out in the sun. The wet smell of mangoes was coming from all around. From afar he saw the Lord coming towards his ashram. They were amazed to see that mad trick of the Lord and started thinking in their mind – ‘ Who is this young man of amazing beauty? Divine light is shining on its face. It seems that Devraj Indra has come to me in the form of a young man, or he is one of the two Ashwini Kumaras, seeing his brother separated from him, he is coming towards my ashram to find him. Or is this Srimannarayana in person, who is coming here to bless me and give me darshan.’ Bharati ji was thinking in his mind that in the meanwhile the Lord prostrated at the feet of Bharati with his wet clothes on the ground. did. Bharti ji started saying ‘Narayan, Narayan’ with confusion.

Prabhu kept lying at the feet of Bharti ji for a long time. Due to love, his whole body was having thrills. Tears were flowing from both the eyes. Exhaling long breaths, the Lord was heaving heavily. While lifting him, Bhartiji asked – ‘Brother! Who are you? Where have you come from? Why are you getting so worried? Tell me the reason for your sorrow?’ After listening to Bharti ji’s questions, the Lord got up and sat down and started saying slowly – ‘God! You do not recognize me? My name is Nimai Pandit.

I live in Navadweep, once you visited Navadweep and showered me with kindness and blessed me by receiving alms at my place. On my request, you had also promised to give me sannyas-diksha. Now that’s why I have taken refuge in you. Free me from worldly sorrows. Break my worldly ties and make me a sannyasin. This is my humble prayer at your feet.

Bharti ji remembered the past things. On hearing Nimai’s name, he embraced him and started thinking in his mind- ‘Hi! What a beautiful body like gold, what supernatural beauty, what intense love for God and what enormous scholarship this pundit has, yet he has come to me to take sannyas-diksha! How can I make him a monk? There is a helpless old mother in the house, she is her only child. The most beautiful young woman is in his house, she does not even have any children, so that the dynasty can continue. Even in such a condition, he has come to retire; Will I not become a part of sin by giving him the diksha of sannyas?’ Thinking this, Bhartiji started saying – ‘Nimai Pandit! You yourself are wise, the meaning of the scriptures is not unknown to you. In youth, one does not get over sensual pleasures properly; therefore, it is prohibited to take sannyas-religion in this state. After the age of fifty years, when there is separation from sense-pleasures, then there is a law of sannyas-ashram. Therefore, you are not yet in a suitable state to take sannyas. Now you do Bhagwadbhajan while staying at home. Can God not be worshiped while staying at home? We are of the opinion that instead of asking for pieces from door to door, bhajan can be done at home without any hindrance. The stomach has to be filled somewhere. One has to find a place to live too. That’s why why to leave the ready-made house only. Neither begged in ten-twenty houses, did it in only one place. That’s why in our opinion, you should return to your home.

The Lord said with a very compassionate voice – ‘ God! You are a real God. You are Narayan with a body, save me the creature trapped in the worldly pit. Don’t mislead me like this. You have promised me, follow that promise. Man’s age is fleeting. Who has seen fifty years? You are capable of doing everything, you free me from the bondage of the world.

Bharti ji could not give any answer to the words of the Lord. They became silent for a while. Meanwhile, Nityanand ji also reached Bharti ji’s ashram along with Chandrashekhar Acharya etc. devotees. He saw the Lord sitting on one side with his head on his knees. On seeing the Lord, they became impatient because of love. Everyone bowed down to Bharti ji and the Lord with devotion and they also sat on one side behind the Lord. Seeing Shripad Nityanand ji, the Lord said – ‘Shripad! You have come well. Who would get the rituals done without Acharya. All the work will be completed well only with your arrival. Nityanand ji did not give any answer to the words of the Lord. He sat silently looking down.

In the meantime, ten to five people of the village came to Bharti ji’s ashram. He saw a god-like young man sitting on one side to become a monk, many gentlemen sitting around him were shedding tears, in front of him drowned in the ocean of sorrow, Bharati was thinking something.

Seeing the wonderful beauty of Mahaprabhu, the villagers were stunned. He had never seen such a supernatural form in a human body and such a tremendous brilliance till date. Word of mouth spread to all the surrounding villages. Hearing the fame of Lord’s form, beauty and glory, people started coming from far and wide to have his darshan. Men and women, old and young and children of Katwa village gathered at Bharti’s ashram. Those women who never used to come out of the house, they also left everything and came to Bharti ji’s ashram with the desire to see God’s gods.

Prabhu was sitting quietly on one side. His black curly hair was scattered naturally here and there without any rule. They were making the beauty of the Lord’s face even more luminous in their natural state. Both the eyes of the Lord were upturned. The wet clothes of the body had dried on the body itself. He was looking at the sky with his head on one knee. Tears were flowing continuously from the corners of both his eyes. Devotees like Nityanand etc. were also sitting quietly behind, shedding tears.

The women of the city saw the form of Mahaprabhu. On seeing his beauty, she became mad and while expressing grief to each other started saying- ‘Hi! How would his mother have been alive? How can that mother, whose only son, so beautiful and well-mannered, full of all virtues, has left home to become a monk? When our own heart is breaking on being unfamiliar, then the pain of the one who would have carried her in her womb for nine months cannot be imagined. Oh! Shame on the creator, who gave such a wonderful form and made him have such a mind. Oh! What would have been the condition of their young woman.

Seeing him shedding tears like this, old women would go near him and say- ‘Son! What do you think, what will be the condition of your mother. Our heart breaks seeing your condition. You go back to your home. What’s the point in being a monk? Go and serve your parents.’ The young women used to say while crying- ‘Hi! The thunderbolt must have broken on his wife today. Who can understand the sorrow of a sad woman, whose handsome husband has left her in her youth and gone to become a monk? Husband is the only support and shelter for Kulvati women. What must that destitute and helpless girl be thinking. She must be crying saying what. You go to your home, we touch your feet. Our chest breaks by guessing the condition of your wife. You go now.’

While listening to the words of those women, the Lord said with great humility by pressing grass in his mouth and folding his hands – ‘ Mothers! You give me such a blessing that I get the love of Krishna. This human life is transitory. Shri Krishna-devotion is very rare in him. Even more rare is the association of great souls and good men. Life can be successful only by the company of great men. Bless me so that I can retire and go to Vrindavan to meet my beloved Shri Krishna.’ Would have returned to their homes. In this way, it was evening for the Lord while sitting. No one had given a grain of food in the mouth. Everyone was sitting silently like that.

Bharti was sitting in a confused state. He could not think of any trick to stop the Lord from renunciation. After thinking for a long time, he understood one thing. He thought- ‘There is an old mother alone in their house, there is a young woman, surely they have got up and left in the night without asking them. That’s why I should tell them that I will not retire until you get permission from your family members. Why did his mother and wife start giving him permission for retirement? It is possible that even on his insistence, he will give his consent, so by the time he goes home to take his consent, I will get up from here and go somewhere else. Well, who can become a hymn of disrepute to the sannyasin people by giving initiation to the youth with such a soft body. Which vitaragi tyagi sannyasin’s heart would not break while getting these black curly hair cut.’

Thinking all this, Bharti ji said – ‘Pandit! It seems that you got up in the night and ran away without telling your mother and wife. I cannot give you sannyas-diksha until you come with permission from him. The Lord said – ‘ God! I have obtained the permission of the mother and the wife.’ Bharti ji asked with some astonishment – ‘When have you attained it?’

Prabhu said – It was a long time ago that I had convinced him by telling all the things about this relationship and I am retiring only after taking his consent.’ Bharti ji said – ‘Not in this way, I forgot the things of many days. Fell Today you have come without his consent. I will never initiate you into sannyas without his consent!’ As soon as he heard this, the Lord stood up at once and said- ‘Well, here I will bring his consent now.’ He headed towards Navadweep. Started running with speed. When he went a little far from the ashram, Bharti ji thought – ‘He has the ability to do against his will. If he has such a desire that this cruel work should be done by me only, if he wants to give me the good fortune of his famous Gurupad, then even if I make a million excuses, I will have to do this work.

Well, as per Narayan’s wish.’ Thinking this, he called out to the Lord – ‘Pandit! Pandit! come back It will be done as you say. Who has the ability to avoid your words. ‘ On hearing this, the Lord returned quickly in the same way. Coming, he once again bowed down at the feet of Bharti ji and after listening to Mukunda’s verses, Lord Shri Krishna started crying out of love and started saying to Mukundadatta again and again – ‘Yes, sing, sing! What happened after that! Ah, blessed is that love of Radhika ji.’ Thus after singing the Sankirtan began. Hundreds of people from the village started coming and participating in the Sankirtan. The men from the village had brought many musical instruments like Dhol-Kartal and Jhanj-Majira etc. with them. Many instruments started playing together and all together-

O Hari Hari O Krishna Yadava Ome. Gopal Govinda Rama Srimadhusoodana.

Started chanting this post. In the middle of the sankirtan, the Lord got ecstatic and started dancing by raising both hands. All the villagers were mesmerized seeing that wonderful dance of the Lord. All the sattvik feelings of love started rising in Bharti ji’s body as well and he also started dancing in sankirtan like a madman, being self-forgetful. Then he came to know the glory of the Lord. They fell madly in love. In this way, the whole night was spent in Katha-Kirtan and Bhagwat-discussion only.

respectively next post [82] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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