।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
रघुनाथदास जी का उत्कट वैराग्य
य: प्रव्रज्य गृहात् पूर्वं त्रिवर्णवपनात् पुन:।
यदि सेवेत तान् भिक्षु: स वै वान्ताश्यपत्रप:।।
आत्मानं चेद् विजानीयात् परं ज्ञानधुताशय:।
किमिच्छन् कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति लम्पट:।।
वैराग्य ही ही भूषण जिनका ऐसे श्री रघुनाथदास जी पुरी में आकर प्रभु के चरणों के समीप रहने लगे। पाँच दिनों तक तो वे गोविन्द से महाप्रसाद लेकर पाते रहे। पीछे उन्होंने सोचा- ‘महाप्रसाद को इस प्रकार रोज यहीं से खाना ठीक नहीं है। यहाँ प्रभु के समीप और भी तो विरक्त वैष्णव हैं, वे सभी अपनी-अपनी भिक्षा लाते हैं, मुझे भी अपनी भिक्षा स्वयं लानी चाहिये। विरागी होकर यदि भिक्षा मांगने में संकोच हुआ, तो मेरे ऐसे वैराग्य को धिक्कार है। ‘यह सोचकर उन्होंने प्रभु के यहाँ से महाप्रसाद लेना बंद कर दिया। रात्रि में जगन्नाथ जी की पुष्पांजलि के अनन्तर भगवान को शयन कराकर सेवक गण अपने-अपने घरों को चले जाते हैं। उस समय सिंहद्वार पर बहुत-से अन्नार्थी दरिद्र भिक्षुक अपना पल्ला फैलाये खड़े रहते है। सेवक मन्दिर से निकलकर कुछ थोड़ा-बहुत बचा हुआ प्रसाद उन्हें बाँट देते हैं। बहुत-से यात्री भी प्रसाद मोल मांगकर थोड़ा-थोड़ा उन भिक्षुकों को बंटवा देते हैं, कोई पैसा-धेला दे भी देता है। उस समय का वहाँ का दृश्य बड़ा ही करुणा जनक होता है। सभी भिक्षुक चाहते हैं कि सबसे पहले हमें ही प्रसाद मिल जाय, क्योंकि प्रसाद चुक जाने पर जिन्हें नहीं मिलता, उनके लिये बांटने वाले फिर थोड़े ही लाते हैं, इसीलिये बांटने वाले को चारों ओर से घेर लेते हैं। जिसे मिल गया उसे मिल गया, जो रह गया सो रह गया, किन्तु वहाँ थोड़ा-बहुत प्राय: सभी को मिल जाता है। रघुनाथदासजी भी उन्हीं भिक्षुकों में अपनी फटी गुदड़ी ओढ़कर खड़े हो जात थे। बिना मांगे किसी ने सबों के साथ में दे दिया तो ले लिया, किसी दिन चुक गया तो वैसे ही चले आये, ये बांटने वाले पर अन्य भिक्षुकों की भाँति टूटे नहीं पड़ते थे। महाप्रभु ने जब दो-एक दिन रघुनाथदास जी को महाप्रसाद पाते नहीं देखा, तब उन्होंने गोविन्द से पूछा- ‘गोविन्द! रघु प्रसाद नहीं पता? वह खाता कहाँ से है?
गोविन्द ने कहा- ‘प्रभो! वे अब सिंहद्वार पर अन्य भिक्षुकों के साथ खड़े होकर भिक्षा मांगते है।’ प्रभु इस बात को सुनकर बड़े ही सन्तुष्ट हुए और हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करते हुए गोविन्द से कहने लगे- ‘गोविन्द! सचमुच रघु रत्न है, उसे सच्चा वैराग्य है। वैराग्य होने पर मान, प्रतिष्ठा, इन्द्रियस्वाद और लोकलज्जा की परवा ही नहीं रहती। त्यागी होकर जो परमुखापेक्षी बना रहता है, वह तो कूकर के समान है। त्यागी को अपनी वृत्ति सदा स्वतन्त्र रखनी चाहिये।
भिक्षा मांगकर खाना ही उसके लिये परम भूषण है और दूसरों के अन्न की इच्छा रखना ही भारी दूषण है। जो त्यागी होकर अपनी जिह्वा को वश में नहीं कर सकता, घर छोड़ने पर जिसे भिक्षा का संकोच है, वह तो इन्द्रियों का गुलाम है। परमार्थ का पथ उससे बहुत दूर है। वैरागी को निरन्तर नाम-जप करते रहना चाहिये। समय पर जो भी रूखा-सूखा भिक्षा में प्राप्त हो जाय उसी पर निर्वाह करके केवल कृष्ण-कथा-कीर्तन के निमित्त इस शरीर को धारण किये रहना चाहिये। रघु ने यह बहुत सुन्दर काम किया।’
इतने त्याग से रघुनाथ जी को कुछ-कुछ शान्ति का अनुभव होने लगा। हजारों आदमी जिनके आश्रय से खाते थे, आज से पंद्रह दिन पूर्व जो हजारों आदमियों के स्वामी बने हुए थे, सेवक जिनके समीप सदा हाथों की अंजलियाँ बांधे खड़े रहते थे, वे ही मजूमदार के प्यारे पुत्र रघु एक मुट्ठी सिद्ध अन्न के लिये घंटों सिंह द्वार पर खड़े हुए बांटने वाले की प्रतीक्षा करते रहते हैं और कभी-कभी तो वैसे-के-वैसे ही चले जाते हैं। अपने आसन पर जाकर जल पीकर ही बिना कुछ खाये सो जाते है, कभी चावल न मिलने पर कोई दयालु पुरुष पैसे-धेले का चना दिलवा देता है उन्हें ही चबाकर पड़ रहते हैं। बढ़िया-बढ़िया व्यंजनों के थालों को आज से पंद्रह दिन पहले सेवक इस भय से डरते-डरते लाते थे कि कहीं किसी में अधिक नमक तो न पड़ गया हो, कोई पदार्थ अधिक गीला तो न रह गया हो। वे ही रघु आज सूखे चनों को जल के साथ गले के नीचे उतारते हैं। वाह रे वैराग्य! धन्य है तेरी शक्ति को, जो महान विलासी को भी परम तितिक्षावान बना देती है।
रघुनाथदास जी ने एक दिन विनम्र भाव से स्वरूप गोस्वामी से निवेदन किया- ‘प्रभु ने मुझे घर-बार छुड़ाकर किस निमित्त यहाँ बुलाया है, इसे जानने की मेरी बड़ी अभिलाषा है। मुझे क्या करना चाहिये। मैं अपना कर्तव्य जानना चाहता हूं’- रघुनाथ जी बड़े ही संकोची थे, वे प्रभु के सामने कभी भी अपने मुँह से कोई बात नहीं निकालते थे। उनकी ओर कभी आँखें उठाकर देखते नहीं थे, जो कुछ कहलाना होता, उसे या तो स्वरूप गोस्वामी द्वारा कहलाते या गोविन्द के द्वारा। स्वयं वे सम्मुख होकर कोई बात नहीं पूछते थे।
एक दिन महाप्रभु स्वरूप गोस्वामी के साथ कथा-वार्ता कर रहे थे, उसी समय रघुनाथदास जी ने आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और फिर स्वरूप गोस्वामी की वन्दना करके चुपचाप पीछे को एक ओर बैठ गये।
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘तुम्हारा यह रघु तो बड़ा ही संकोची है, हमसे बोलता ही नहीं। हमें पता भी नहीं क्या करता रहता है। तुमसे तो सब बातें कहता होगा, तुम्हीं इसकी बातें बताओ। ‘एक घुटने को खड़ा करके उससे अपने दायें कपोल को सटाकर नीची दृष्टि किये हुए रघुनाथ जी चुपचाप बैठे थे। अपने ही सम्बन्ध का प्रसंग छिड़ने पर वे और भी अधिक संकुचित-से बन गये। संकोच के कारण वे अपने अंगों में समा जाना चाहते थे। स्वरूप गोस्वामी ने धीरे-धीरे कहा- ‘रघु बड़ा पुरुषार्थ करता है। आपसे बातें कहने में इसे संकोच होता है। कल मुझसे कहता था। (फिर रघुनाथदास जी की ओर देखकर उन्हीं से कहने लगे) हाँ भाई! तुम जो मुझसे कल प्रभु से कहने के लिये कहते थे, उसे अब तुम्हीं प्रभु से पूछो।’
प्रभु ने पुचकारते हुए कहा- ‘हां भाई! कहो क्या बात पूछना चाहते थे?’
रघुनाथ जी कुछ विवशता के भाव से सिर को थोड़ा और नीचा करके चुपचाप ही बैठे रहे, उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। तब प्रभु ने स्वरूप गोस्वामी जी से कहा- ‘अच्छा, तुम्हीं बताओं क्या पूछना चाहता था?
स्वरूप जी ने कुछ रुक-रूककर कहा- ‘कहता था कि मेरा घर-बार क्यों छुड़ाया है? मेरा कर्तव्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिये- इन बातों को प्रभु से पूछो।’ यह सुनकर प्रभु हंसने लगे और रघुनाथ जी को लक्ष्य करके कहने लगे- ‘तुम्हारे गुरु तो ये ही स्वरूप जी हैं। मैंने तुम्हें इन्हीं को सौंप दिया है। साध्यसाधन तत्त्व तो ये मुझसे भी अधिक जानते हैं। मुझे भी कोई बात पूछनी होती है, तो इन्हीं से पूछता हूँ। ‘इतना कहकर प्रभु चुप हो गये और फिर अपने-आप ही कहने लगे- ‘यदि तुम्हारी इच्छा ऐसी ही है कि मैं ही तुमसे कुछ कहूँ तो मैंने तो सभी शास्त्रों का सार यही समझा है कि श्रीकृष्ण-कीर्तन और नाम-स्मरण ही संसार में सुख का सर्वश्रेष्ठ साधन है। प्रेम की उपलब्धि नाम-स्मरण से ही हो सकती है। अब नाम-स्मरण कैसा बनके करना चाहिये, बस यही समझने की बात है।’
जिसे प्रेम की प्राप्ति करनी हो उसे सबसे पहले साधु-संग करना चाहिये। भजन, कीर्तन, सत्संग, भगवत-लीलाओं का स्मरण यही मुख्य धर्म है, इन धर्मों का पालन करना चाहिये। संसारी लोगों से विशेष सम्बन्ध रखना, संसारी लोगों से इधर-उधर की बहुत-सी बातें करना, दूसरों की निन्दा-स्तुति करना, इसी को ऋषियों ने लोक धर्म बताया है। इन बातों से सदा बचे रहना चाहिये। दूसरों के गुण-दोषों का कथन एकदम परित्याग कर देना चाहिये। यदि कुछ कहना ही हो तो दूसरों के गुणों को ही कहना चाहिये। दूसरों के अवगुणों पर तो ध्यान ही न देना चाहिये। यदि कोई कितना भी बड़ा ज्ञानी, ध्यानी, मानी और पण्डित क्यों न हो, जहाँ उसने दूसरों की निन्दा के वाक्य मुख से निकाले वहीं उसे पतित हुआ समझना चाहिये।
दूसरों के यथार्थ गुणों की स्तुति के अनन्तर जहाँ यह वाक्य निकला कि ‘अजी, और तो सब ठीक है; बस उनमें यही एक दोष है ‘वहाँ ही वह दोष उस मनुष्य के हृदय में प्रवेश कर जाता है। क्योंकि दोषों के परमाणु अति सूक्ष्म होते हैं, जब तक वे हृदय में प्रवेश नहीं करते, तब तक दूसरों की निन्दा हो नहीं सकती। निन्दा करने में हम तभी समर्थ हो सकेंगे, जब दोषों के परमाणु हमारे हृदय में आ जायंगे। ज्यों-ज्यों दूसरों की निन्दा करोगे त्यों-ही-त्यों वे परमाणु बढ़ने लगेंगे और वे तुम्हारे हृदय की पवित्रता, सरलता, सच्चरित्रता और ज्ञानार्जन की इच्छा आदि सदवृत्तियों को दबाकर वहाँ अज्ञान और मोह का साम्राज्य स्थापित कर देंगे। इसलिये अदोषदर्शी होना यह वैष्णवों के लिये सबसे मुख्य काम है। जो भगवद्भक्त महात्मा हैं, भगवत और साधु पुरुष हैं, उनकी निरन्तर सेवा करते रहना चाहिये। मान-प्रतिष्ठा और विषय-भोगों की इच्छा-इन सभी को कामतृष्णा कहते हैं। विरक्त पुरुषों को इनसे सदा बचे रहना चाहिये। इस प्रकार सबसे विरक्त होकर निरन्तर भगवन्नामों का जप, भगवल्लीलाओं का श्रवण और भगवत-गुणों का कीर्तन-ये ही सभी परमार्थ के पथिकों के लिये कर्तव्य कर्म हैं। इन कर्मों के करने वाले को कभी संसारमोह नहीं होता। मैं संक्षेप में तुझे वैष्णवों के मुख्य-मुख्य कर्म बताता हूँ।
- ग्राम्यकथा कभी श्रवण नहीं करनी चाहिये, ग्राम्यकथा सुनने से चित्त में वे ही बातें स्मरण होती हैं जिससे भजन में चित्त नहीं लगता।
- ग्राम्यकथा कहनी भी नही चाहिये। विषयी लोगों की बातें करने से चित्त विषयमय बन जाता है।
- अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पदार्थ न खाने चाहिये, क्योंकि ऐसे पदार्थों से विषयलोलुपता बढ़ती है।
- अच्छे, चमकीले और बहुत स्वच्छ वस्त्र न पहनने चाहिये, क्योंकि उनके पहनने से जीवन में बनावट आती है और बनावट से वृत्ति बहिर्मुखी बन जाती है।
- सदा अभिमानरहित होकर बर्ताव करना चाहिये। हृदय में अभिमान आते ही सभी साधन नष्ट हो जाते हैं।
- दूसरों को सदा मान देते रहना चाहिये, दूसरों को मान देने से आत्मा का सम्मान होता है और आत्म सम्मान ही सर्वश्रेष्ठ सम्मान है। इसके सामने सभी सम्मान तुच्छातितुच्छ हैं।
- सदा सर्वत्र और सब अवस्थाओं में भगवन्नामों का जप करते रहना चाहिये। नाम-जप से श्री कृष्ण चरणों में प्रीति उत्पन्न होती हैं।
- शुद्ध और श्रेष्ठ भाव से श्री भगवान की पूजा करते रहना चाहिये। मानसिक पूजा ही सर्वश्रेष्ठ पूजा है।
इस प्रकार इन धर्मों के पालन करने वाले वैष्णव को ही प्रभु प्रेम की प्राप्ति हो सकती है। महाप्रभु के उपदेशामृत को पान करके रघुनाथदास जी की साध्य-साधन तत्वजिज्ञासारूपी पिपासा भलीभाँति शान्त हो गयी। उस दिन से वे अहर्निश नामसंकीर्तन ही करते रहते। दिन-रात्रि के आठ पहरों में से वे साढ़े सात पहर भगवन्नामों का जप करते रहते और आधा पहर भोजन तथा शयन में बिताते। उसी समय पीछे आने वाले गौड़ीय भक्त भी पुरी आ गये। और सदा की भाँति चार महीने रहकर देश को लौट गये, गोवर्धनदास जी मजूमदार ने जब भक्तों के पुरी से लौटने का समाचार सुना तो उन्होंने उसी समय अपना आदमी शिवानन्द जी के पास भेजकर रघुनाथदास जी का पता लगवाया। सेन महाशय के यहाँ पहुँचकर आदमी ने उन्हें प्रणाम करके पूछा- ‘मेरे स्वामी ने आपसे पूछवाया है कि मेरा लड़का रघुनाथदास यहाँ से पुरी भाग गया है, वह आपको पुरी में तो नहीं मिला?’
सेन महाशय ने कहा- ‘पुरी में सभी विरक्त वैष्णवों से अधिक रघुनाथदास तितिक्षु हैं। उनका नाम वहाँ सभी जानते हैं। वे सिंहद्वार पर भिक्षा में जो मिल जाता है, उसे ही खाकर अहर्निश श्रीकृष्ण- कीर्तन करते रहते हैं। वे सकुशल प्रभु के पादपद्मों के समीप निवास कर रहे हैं।’ सेवक ने सभी वृत्तान्त सप्तग्राम में जाकर अपने स्वामी से कह दिया- ‘मेरा इकलौता पुत्र एक मुट्ठी चावलों के लिये मन्दिर के द्वार पर खड़ा रहता है। ‘इस समाचार को सुनते ही धन-सम्पत्ति को ही सब कुछ समझने वाला पिता शोक से ‘हाय हाय ‘करने लगा। माता अश्रुओं से पृथ्वी को भिगोने लगी। अन्त में पिता ने अपने पुत्र के लिये 400 रूपये देकर एक सेवक और रसोइया शिवानन्द जी सेन के पास भेजा। सेन महाशय ने कहा- ‘अभी जाड़े के दिन हैं, तुम लोग कहाँ जाओगे? चार-पाँच महीने ठहरो, जब हम चलेंगे तभी चलना। ‘सेवक इस उत्तर को सुनकर लौट आये और जब सेन महाशय दूसरी बार वर्षा के आरम्भ में चलने लगे, तब रुपये लेकर वे सेवक भी उनके भी साथ चले। पुरी में पहुँचकर सेवकों ने रघुनाथदास जी को उनके पिता का सभी समाचार सुनाया और जो द्रव्य वे साथ लाये थे, उसे भी उन्हें देना चाहा, किन्तु उन्होंने द्रव्य लेना स्वीकार नहीं किया। रघुनाथदास जी के अस्वीकार करने पर भी सेवक द्रव्य लेकर वहीं रहने लगे।
रघुनाथदास जी ने ‘सोचा जब द्रव्य आ ही गया है, तो इसके द्वारा प्रभु की सेवा ही क्यों न की जाय। ‘यही सोचकर वे महीने में दो बार प्रभु का निमन्त्रण करते और उन्हें भगवान के प्रसादी के सुन्दर-सुन्दर पदार्थ लाकर भोजन कराते। प्रभु इनकी प्रसन्नता के निमित्त इनके निमन्त्रण पर जाकर भिक्षा कर आते थे। इस प्रकार दो वर्षों तक रघुनाथदास जी प्रभु का निमन्त्रण करते रहे। उसमें खर्च ही क्या होना था, महीने में लगभग आठ आने खर्च होते थे।
एक दिन रघुनाथदास जी ने सोचा- ‘जब मैंने घर-बार, कुटुम्ब-परिवार सबको छोड़ दिया है और सबसे सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया हे, तो फिर मैं पिता के रूपयों से प्रभु का निमन्त्रण भी क्यों करुँ? इस निमन्त्रण से प्रभु सन्तुष्ट थोड़े ही होते होंगे। वे तो मेरी प्रसन्नता के निमित्त यहाँ आकर भिक्षा कर जाते हैं।’ यह सोचकर उन्होंने प्रभु का निमन्त्रण करना बंद कर दिया।
एक दिन प्रभु ने स्वरूप गोस्वामी से पूछा- ‘स्वरूप! न जाने क्या बात है, अब रघु हमारा निमन्त्रण नहीं करता। कहीं नाराज तो नहीं हो गया?’
स्वरूप गोस्वामी जी ने कहा- ‘प्रभो! रघु ने सोचा होगा, विषयी लोगों के द्रव्य से प्रभु का निमन्त्रण करने से क्या लाभ? इससे प्रभु भी सन्तुष्ट न होते होंगे और मेरे मन में भी संकल्प-विकल्प रहता है, यही सोचकर उन्होंने निमन्त्रण करना छोड़ दिया।’
प्रभु ने कहा- ‘स्वरूप? तुम ठीक कहते हो। विषयी लोगों के अन्न खाने से रजोगुण के भावों की वृद्धि होती है। विषयी लोगों के अन्न में कामनाओं के परमाणु रहते है। संसारी लोग कामना शून्य होकर तो अपने जामाता को भी नहीं खिलाते। सकाम परमाणुओं से बुद्धि भी मलिन हो जाती है और मलिन बुद्धि से श्रीकृष्ण-कीर्तन हो नहीं सकता। अत: जहाँ तक हो, विषयी धनिक पुरुषों के अन्न से तो बचना ही चाहिये। मैं तो रघु के प्रेम संकोच से आज तक चला जाता था, उसने बड़ा अच्छा किया जो निमन्त्रण बंद कर दिया। ‘इतना कहकर प्रभु स्वरूप गोस्वामी से रघुनाथ जी के त्याग और वैराग्य की बड़ाई करने लगे।
इधर अब रघुनाथदास जी को सिंहद्वार पर खड़े होकर मांगना कुछ बुरा-सा प्रतीत होने लगा। लोग उनसे परिचित हो गये थे, इसलिये बहुत-से सुन्दर-सुन्दर पदार्थ देने लगे। प्रभु ने सुन्दर स्वादिष्ट पदार्थों के खाने के लिये निषेध कर दिया था; इसलिये उन्होंने सिंहद्वार की भिक्षा भी बंद कर दी। अब ये भिक्षुकों के साथ क्षेत्र में जाकर वहाँ से प्रसादी भात ले आते थे।
महाप्रभु सायं काल के समय रोज रघुनाथ जी को सिंहद्वार पर खड़ा हुआ देख जाते थे। जब उन्होंने दो-चार दिन रघुनाथदास जी को वहाँ नहीं देखा तब उन्होंने एक दिन गोविन्द से पूछा- ‘गोविन्द! रघु अब सिंहद्वार पर नहीं दीखता, पता नहीं, वह अब कहाँ से भिक्षा करता है?
गोविन्द ने कहा- ‘प्रभो! अब उन्होंने सिंहद्वार की भिक्षा बंद कर दी है, अब वे क्षेत्र से जाकर दिन में ही मांग लाते हैं।’
प्रभु ने सन्तुष्टि के स्वर में कहा- ‘रघु ने यह सर्वोत्तम कार्य किया। सिंहद्वार पर भिक्षा की लालसा से खड़े रहना वेश्यावृत्ति है। मुँह से भले ही नाम-जप करते रहो, चित्त में सदा यही बनी रहती है कि कोई अब देने वाला आ जाय। यह आयेगा तो जरूर कुछ-न-कुछ देगा। अच्छा इसने नहीं दिया तो यह तो जरूर ही कुछ देगा। बस, ये ही भाव उठते रहते हैं। क्षेत्र में अच्छा है अपना एक बार जाकर ले आयें और श्री कृष्ण-कीर्तन करते रहें।’ इतने में ही स्वरूप गोस्वामी आ गये। उन्हें देखते ही प्रभु उल्लास के स्वर में कहने लगे- ‘हाँ, हाँ तुम खूब आ गये, कैसे ठीक समय पर पहुँचे। अभी-अभी तुम्हारे रघुका ही प्रसंग चल रहा था। उसने सिंहद्वार की भिक्षा क्यों बंद कर दी है?’
स्वरूप गोस्वामी धीरे से कहा- ‘वह विचित्र है, जहाँ उसे कुछ भी वैराग्य में कमी दीखती है, वहीं उस काम को बंद कर देता है। उसने सिंहद्वार की भिक्षा में कुछ दोष देखा होगा।’
प्रभु ने कहा- ‘उसकी इस बात से हम बहुत ही अधिक सन्तुष्ट हैं, उसे बुलाओ तो सही, कहाँ है? गोविन्द उसी समय जाकर रघुनाथदास जी को बुला लाये। प्रभु को और स्वरूप गोस्वामी को प्रणाम करके धीरे-धीरे भगवन्नामों का उच्चारण करते हुए रघुस्वरूप के एक ओर बैठ गये। प्रभु जल्दी से उठे और भीतर से कुछ चीज उठाकर ले आये।
प्रभु आकर रघुनाथ जी के ही समीप बैठ गये। रघुनाथदास जी संकोच के कारण और अधिक सिकुड़ गये। प्रभु उनके सुन्दर बालों पर धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए कहने लगे- ‘रघु! मैं तुम पर बहुत ही अधिक सन्तुष्ट हूँ। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ, किन्तु मुझ निष्किंचन के पास देने को और है ही क्या? जो मेरी सबसे प्यारी सम्पत्ति है, उसे ही तुम्हें देकर मैं सन्तुष्ट हूंगा। शंकरारण्य सरस्वती वृन्दावन गये थे, उन्होंने वृन्दावन से लौटकर यह गुंजामाला और यह गोवर्धन पर्वत की शिला प्रसादी रूप में मुझे दी थी। तुम तो जानते ही होगे कि गिरिराज गोवर्धन पर्वत तो श्रीकृष्ण का साक्षात विग्रह ही है। श्रीकृष्ण में और गोवर्धन में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं है। इसीलिये आज तीन वर्षों से मैं इस सुन्दर शिला को अपने नेत्र जल से स्नान कराता रहा हूँ। मेरी विकलता की अवस्था में यह शिला मेरे ह्मदय को शीतल बनाती रही है। इसके स्पर्श से मेरी आँखें पवित्र हुई हैं। ललाट धन्य हुआ है, अनेकों बार इसने मेरे हृदय को परम शीतलता प्रदान की है। भगवान को गुंजामाला बहुत प्रिय थी, वे गोवर्धन पर्वत से गुंजों को पेड़ों सहित उखाड़-उखाड़कर उनकी मालाएँ बनाकर स्वयं पहनते और अपने साथी गोप-ग्वालों को भी पहनाते। इसीलिये मैं इसे भजन के समय पहना करता हूँ। ये दोनों वस्तुएँ मुझे अत्यन्त ही प्रिय हैं, इन्हें मैं तुम्हें सौंपता हूँ। तुम आज से इस गोवर्धन शिला की सात्त्विक पूजा किया करना। जल से स्नान करा दिया; तुलसी चढ़ा दी। और भक्ति-भाव से दण्डवत कर ली, यही सात्त्विक सेवा का विधान है। तुलसी तथा जल के अभाव में केवल श्रद्धा सहित प्रणाम करने से भी काम चल सकता है। लो संभालो अपनी चीजों को।’
प्रभुप्रदत्त उन दोनों वस्तुओं को पाकर रघुनाथदास जी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। वे प्रभु की इस अपार कृपा के बोझ से दब-से गये। उन्होंने अत्यन्त ही पुलकित अंग से प्रभु के पादपद्मों में साष्टांग प्रणाम किया और भक्तिभाव से उन दोनों पूज्य वस्तुओं को हाथ फैलाकर दीन भिक्षुक की भाँति उन्हें स्वीकार किया। उस दिन से वे उस शिला की पूजा करने लगे। पूजा के लिये एक-एक वितस्त के दो वस्त्र और एक काष्ठ का आसन स्वरूप गोस्वामी ने इन्हें दिया और मिट्ठी का एक टोंटनीदार करूवा भी लाकर इन्हें दिया। इनके द्वारा ये भगवान की सात्त्विक पूजा करते। इनका वैराग्य बड़ा ही उत्कट था। साधारण लोगों को तो इनके वैराग्य की कथा सुनकर विश्वास ही न होगा। ये वस्त्रों में बस एक फटी गुदड़ी ही रखते। गुदड़ी के अतिरिक्त दूसरा कोई भी वस्त्र नहीं पहनते थे। रात्रि में केवल घंटे-डेढ-घंटे सोते थे, नहीं तो निरन्तर भगवन्नाम स्मरण ही करते रहते। जिह्वा का स्वाद तो इन्होंने घर छोड़ने पर फिर कभी लिया ही नहीं। भिक्षा में जो भी रूखा-सूखा, मीठा-कड़वा जो कुछ मिल जाता, सबको मिला-जुलाकर खा लेते थे। अब इनके घोर वैराग्य की एक अदभुत कथा सुनिये। इससे इनकी तितिक्षा, सहनशीलता, जिह्वासंयम की कठोरता और निष्किंचनता का पता लग जायगा।
ये दोपहर को क्षेत्र से भिक्ष लाते थे। उसमें भी उन्हें कुछ परतन्त्रता-सी दिखायी देने लगी। भण्डारी इन्हें अधिक भिक्षा देने लगा तथा और भी इन्होंने उसमें संग्रह के भाव देखे। अत: इन्होंने क्षेत्र से अन्न लाना भी बंद कर दिया। अब ये दूसरी ही तरह इस पेटरूपी गड्ढे को पाटने लगे।
यह तो हम पहले ही बता चुके हैं कि जगन्नाथ जी में दूकानों पर भगवान प्रसादी भात बिकता है, दुकानदारों की दुकान पर जब दो-तीन दिन भात नहीं बिकता है, तो वह सड़ जाता है। उस सड़े हुए चावलों को वे गौओं के लिये रास्ते में फेंक देते हैं। तैलंगदेश वहाँ से पास में ही है, पुरी में बड़ी-बड़ी तैलंगी गौएं वैसे ही इधर-उधर घूमती रहती हैं। उनका पेट इसी प्रकार के भात से भर जाता है। सिंहद्वार के समीप में बहुत-सी दूकानें हैं, उन्हीं पर प्रसाद बिकता है। सड़े भात को सायंकाल के समय रघुनाथदास जी उठा ले जाते थे। फिर उसमें बहुत-सा जल डालकर धोते थे। उनमें से बहुत सड़े-सड़े दानों को बीन-बीन कर वे निकाल देते और जो कुछ अच्छे चावल के दाने शेष रह जाते उन्हें ही थोड़े नमक के साथ खाकर वे पानी पी लेते थे। बस, इसी प्रकार वे समय बिताने लगे। इस सारे काम को वे रात्रि में ही करते थे, जिससे कोई देखने न पावे।
एक दिन स्वरूप गोस्वामी ने इन्हें इस भात को खाते हुए देख लिया। उन्होंने हंस कर कहा- ‘क्यों रघु ! अकेले-ही-अकेले ऐसे सुस्वादु पदार्थ को खा जाते हो, हमें एक दिन भी नहीं देते। ‘रघुनाथदास जी कुछ लज्जित भाव से चुप हो गये।
महाप्रभु तो अपने भक्तों की एक-एक बात की खोज-खबर रखते थे। एक दिन प्रभु ने गोविन्द से पूछा- ‘गोविन्द मालूम पड़ता है, रघु अब क्षेत्र से भी भिक्षा नहीं लाता। वह भिक्षा कहाँ करता है?’ गोविन्द ने रघुनाथदास का सभी वृतान्त सुना दिया। सुनकर प्रभु के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा। उसी दिन सांय काल के समय प्रभु रघुनाथ जी के स्थान पर गये। उस समय वे धीरे-धीरे उस सुस्वादु अन्न को खा रहे थे। प्रभु धीरे-धीरे जाकर उनके पीछे हो गये। रघुनाथदास जी को क्या पता कि मेरे पीछे कौन खड़ा है? ज्यों ही उन्होंने ग्रास को मुंह में दिया त्यों ही प्रभु ने धीरे से कहा- ‘क्यों जी स्वरूप के रघु ! हमारा निमन्त्रण भी बंद कर दिया और ऐसे सुन्दर-सुन्दर पदार्थों को भी आप-ही-आप छिपकर चुपके-चुपके खा जाते हो, हमें इसमें से कुछ भी नहीं देते। ‘यह कहकर प्रभु ने उनके पात्र में से एक मुट्ठी चावल जल्दी से उठाकर अपने मुंह में डाल लिये।’ ‘हाय, हाय’ करते हुए अत्यन्त ही करुण स्वर में रघुनाथदास जी रोते-रोते और उस पात्र को दोनों हाथों से पकड़े हुए कहने लगे- ‘प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं? नाथ ! यह आपके योग्य नहीं है। प्रभो ! इस गले हुए उच्छिष्ट अन्न को खाकर मुझे पाप का भागी न बनाइये। ‘मुंह में भरे हुए ग्रास को जल्दी-जल्दी प्रभु खाते हुए फिर दूसरा ग्रास लेने के लिये उनकी ओर लपके, इतने में ही हल्ला-गुल्ला सुनकर गोस्वामी भी वहाँ आ उपस्थित हुए। प्रभु को रघुनाथ से भात छीनते देखकर उन्होंने उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगे- प्रभो ! यह आपके योग्य नहीं है।’
प्रभु उस सूखे भात को कठिनता से निगलते-निगलते कहने लगे- ‘स्वरूप ! तुमसे मैं सत्य कहता हूँ, जितना स्वाद आज के इन चावलों में आया है, उतना जीवनपर्यन्त किसी भी पदार्थ में नहीं मिला।’ अहा, धन्य है, ऐसी भक्त वत्सलता को। हे प्रभो ! यह आपके वैराग्य का ही स्वाद है। हे गौर ! तुम्हीं जीवों को प्रेम-प्रदान करते हो और फिर तुम्हीं उसका रसास्वादन करके मग्न होते हो। हे चैतन्य! तुम्हारी लीला विचित्र है, तुम्हारी माया अपरम्पार है। हम पाप पंक में फंसे हुए विषयों को ही सर्वश्रेष्ठ सुख समझने वाले क्षुद्र प्राणी तुम्हारी लीलाओं का रहस्य समझ ही क्या सकते हैं। जिसके ऊपर तुम कृपा करते हो, वह संसार-सागर से बात-की-बात में पार हो जाता है।
इस प्रकार महामना श्री रघुनाथदास जी चैतन्यचरणों की अपार अनुकम्पा का अनुभव करते हुए सोलह वर्षों तक पुरी में इसी प्रकार का त्याग-वैराग्य युक्त प्रेममय जीवन बिताते रहे।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Raghunathdas ji’s fervent disinterest
He who had emigrated from home before shaving the three castes If a monk serves them he will be shameless If one should know the Self, the mind washed by the knowledge of the Supreme. What does the greedy man want and for what purpose does he nourish his body?
Vairagya is the only jewel for which such Shri Raghunathdas ji came to Puri and started living near the feet of the Lord. For five days he was able to get Mahaprasad from Govind. Later he thought- ‘It is not right to eat Mahaprasad like this from here everyday. Here there are other Vaishnavas near the Lord, they all bring their own alms, I should also bring my own alms. Being a recluse, if he hesitates to beg for alms, then such disinterest of mine is a shame. ‘ Thinking this, he stopped taking Mahaprasad from the Lord’s place. At night, after offering Jagannath ji’s wreath, the servants go to their respective homes after putting the Lord to sleep. At that time, many penniless poor mendicants stand at the Sinhdwar with their wings spread. The servants leave the temple and distribute some of the remaining Prasad to them. Many travelers also distribute prasad little by little to those beggars by asking for a price, some even give money. The scene there at that time is very compassionate. All the beggars want that they should get the prasad first, because when the prasad is missed, those who don’t get it, then those who distribute it bring only a little, that’s why they surround the person who distributes it. Whoever got it got it, what remained remained, but there almost everyone gets a little bit. Raghunathdasji also used to stand among the same mendicants covering his torn ass. Someone gave without asking, then he took it, some day he missed it, he came back anyway, he was a giver but did not get broken like other beggars. When Mahaprabhu did not see Raghunathdas ji getting Mahaprasad for two days, then he asked Govind – ‘Govind! Don’t know Raghu Prasad? Where is that account from? Govind said – ‘ Lord! He now begs for alms standing at the Lion Gate along with other mendicants. Prabhu was very satisfied after hearing this and expressing heartfelt happiness said to Govind – ‘Govind! Raghu is really a gem, he has true disinterest. When there is disinterest, there is no concern for respect, prestige, sensual pleasures and local pride. The one who remains devoted to the Supreme, being a renunciate, is like a cooker. Tyagi should always keep his attitude independent.
Eating by begging is the ultimate blessing for him and having a desire for the food of others is a great pollution. The one who cannot control his tongue by being a renunciate, who hesitates to beg after leaving the house, is a slave of the senses. The path of God is far away from him. A recluse should keep chanting the name continuously. Whatever one gets in dry alms at the time, living on that, one should wear this body only for the sake of Krishna-Katha-Kirtan. Raghu did a wonderful job. With so much sacrifice, Raghunath ji started feeling some peace. From whose shelter thousands of people used to eat, who had become the master of thousands of people fifteen days ago, near whom the servants always stood with folded hands, Raghu, the beloved son of Majumdar, spent hours at Singh Dwar for a handful of proven food. But they keep waiting for the person to distribute and sometimes they just go away. After going to his seat, he goes to sleep without eating anything after drinking water, sometimes when rice is not available, a kind man gives him gram of money, he keeps chewing on it. Fifteen days ago, the servants used to bring plates of fine dishes, fearing that there might be too much salt in some of them, or that something might be too wet. The same Raghu today puts dry gram down the throat with water. Wow re disinterest! Blessed is your power, which makes even the most luxurious person the ultimate Titikshawan.
Raghunathdas ji humbly requested Swaroop Goswami one day – ‘I have a great desire to know for what purpose the Lord has called me here after rescuing me from house to house. what should i do I want to know my duty’ – Raghunath ji was very shy, he never used to take anything out of his mouth in front of the Lord. Never raised his eyes to look at him, whatever was to be said, was said either by Swaroop Goswami or by Govind. He himself did not ask anything face to face.
One day Mahaprabhu was having a story-talk with Swaroop Goswami, at the same time Raghunathdas ji came and bowed down at the feet of the Lord, and then after worshiping Swaroop Goswami, sat quietly at the back.
The Lord laughed and said – ‘ This Raghu of yours is very shy, he does not even speak to us. We don’t even know what he keeps doing. He must be telling you everything, you only tell his things. Raghunath ji was sitting quietly by kneeling on one knee and keeping his right cheek close to it, looking down. They became even more narrow-minded when the topic of their own relationship broke out. Due to hesitation, they wanted to get absorbed in their organs. Swaroop Goswami said slowly – ‘Raghu makes a lot of effort. He hesitates to say things to you. Used to tell me yesterday (Then looking at Raghunathdas ji and said to him only) Yes brother! What you used to ask me to say to the Lord yesterday, now you ask the Lord.’
The Lord called out and said – ‘ Yes brother! Tell me, what did you want to ask?’
Raghunath ji kept sitting silently with his head lowered a little more due to some helplessness, he did not say anything. Then the Lord said to Swaroop Goswami ji – ‘ Well, you tell me what I wanted to ask?
Swaroop ji paused and said – ‘ He used to say why have you got rid of my house? what is my duty? What should I do – ask these things to the Lord.’ Hearing this, the Lord started laughing and aimed at Raghunath ji and said – ‘Your teacher is this Swaroop ji. I have handed you over to them. He knows the principles of Sadhyasadhan more than me. I also want to ask something, so I ask them only. ‘ After saying this, the Lord became silent and then started saying on his own – ‘If your wish is such that I should tell you something, then I have understood the essence of all the scriptures that Shri Krishna-Kirtan and Naam-Smaran are the only things in the world. It is the best means of happiness. The attainment of love can be done only by chanting the name. Now it is just a matter of understanding how the Naam-Smaran should be done. One who wants to attain love should first of all associate with saints. Bhajan, Kirtan, Satsang, remembrance of Bhagwat-Leelas is the main religion, these religions should be followed. Having a special relationship with worldly people, talking a lot here and there with worldly people, criticizing and praising others, this is what the sages have called folk religion. One should always stay away from these things. The statement of the merits and demerits of others should be completely abandoned. If something has to be said, then the qualities of others should be said. One should not pay attention to the demerits of others. No matter how much knowledgeable, meditative, respected and learned a person is, where he utters words of condemnation for others, then he should be considered to have fallen.
In between praising the real qualities of others, where this sentence came out that ‘Aji, and everything is fine; This is the only fault in them ‘there itself that fault enters the heart of that man. Because the atoms of defects are very subtle, until they enter the heart, there cannot be condemnation of others. We will be able to condemn only when the atoms of faults come into our heart. As soon as you criticize others, those atoms will start increasing and by suppressing the good qualities like purity, simplicity, truthfulness and desire for knowledge etc. in your heart, they will establish the kingdom of ignorance and delusion there. That’s why being faultless is the most important task for Vaishnavas. Those who are devotees of Bhagavad Mahatma, Bhagwat and sage men, they should be served continuously. The desire for honour-prestige and sensual pleasures-all these are called lust. Disinterested men should always avoid them. In this way, continuously chanting the names of the Lord, listening to the Lord’s pastimes and singing the praises of the Lord, being detached from everyone, are the duties of the pilgrims to the Supreme. The doer of these deeds never becomes attached to the world. I will briefly tell you the main duties of Vaishnavas. One should never listen to village story, listening to village story only those things are remembered in the mind, which does not engage the mind in hymns. Rural story should not even be told. By talking about subjective people, the mind becomes subjective. One should not eat good and tasty things, because such things increase sensuality. Nice, bright and very clean clothes should not be worn, because wearing them creates texture in life and texture makes the attitude extroverted. One should always behave without pride. All means are destroyed as soon as pride comes in the heart. One should always give respect to others, by giving respect to others the soul is respected and self-respect is the best respect. All honors are insignificance in front of it. Always chanting the names of the Lord should be done everywhere and in all situations. By chanting the name, love arises at the feet of Shri Krishna. One should keep on worshiping Shri Bhagwan with pure and noble feelings. Mental worship is the best worship.
In this way, only a Vaishnava who follows these religions can attain the love of God. After drinking Mahaprabhu’s Updeshamrit, Raghunathdas ji’s thirst for spiritual knowledge became completely calm. From that day onwards, he used to do Aharnish Naamsankirtan only. Out of the eight hours of the day and night, he spent seven and a half hours chanting the names of the Lord and spent half an hour in eating and sleeping. At the same time the Gaudiya devotees who followed also came to Puri. And as usual, he returned to the country after staying for four months, when Govardhandas ji Majumdar heard the news of the devotees returning from Puri, at the same time he sent his man to Shivanand ji to find out Raghunathdas ji. After reaching Sen Mahasaya’s place, the man bowed down to him and asked- ‘My lord has asked you that my son Raghunathdas has fled from here to Puri, have you not found him in Puri?’
Sen Mahasaya said- ‘Raghunathdas Titikshu is more than all the Vaishnavas in Puri. Everyone there knows his name. They eat only what they get in alms at the Sinhdwar and keep on chanting Aharnish Shri Krishna. They are living safely near the lotus feet of the Lord.’ The servant went to Saptgram and told his master – ‘My only son is standing at the door of the temple for a handful of rice. ‘ On hearing this news, the father, who considered wealth and property as everything, started crying with grief. Mother started soaking the earth with tears. In the end, the father gave 400 rupees for his son and sent a servant and cook to Sivanandji Sen. Sen Mahashay said- ‘It is winter now, where will you go? Wait for four-five months, walk only when we walk. ‘ The servants returned after hearing this answer and when Sen Mahasaya started walking for the second time in the beginning of the rain, then those servants also accompanied him with the money. After reaching Puri, the servants told Raghunathdas ji all the news of his father and wanted to give him the liquid they had brought along, but he did not accept the liquid. Despite Raghunathdas ji’s rejection, the servants started staying there with the liquid.
Raghunathdas ji thought ‘when the matter has come, then why not serve the Lord through it. ‘ Thinking of this, he would invite the Lord twice a month and feed him by bringing beautiful items of God’s prasadi. For their happiness, the Lord used to go and beg on their invitation. In this way, Raghunathdas ji kept inviting the Lord for two years. What was the expenditure in that, it used to cost about eight annas a month. One day Raghunathdas ji thought- ‘When I have left home, family and everyone and have severed all relations, then why should I invite God with my father’s money? The Lord would hardly have been satisfied with this invitation. They come here to beg for my happiness.’ Thinking of this, he stopped inviting the Lord. One day the Lord asked Swaroop Goswami – ‘Swaroop! Don’t know what is the matter, now Raghu does not invite us. Are you angry?’
Swaroop Goswami ji said – ‘ Lord! Raghu must have thought, what is the benefit of inviting the Lord with the substance of the subject people? Even the Lord would not be satisfied with this and thinking that there is a thought-option in my mind, he stopped inviting. The Lord said – ‘Form? you are right By eating the food of sensual people, the feelings of Rajogun increase. There are atoms of desires in the food of sensual people. The worldly people do not even feed their sons-in-law, having zero desires. Even the intellect becomes impure due to fruitive atoms and Shri Krishna-Kirtan cannot be done with impure intellect. Therefore, as far as possible, the food of sensual rich men should be avoided. I used to go on with Raghu’s love hesitation till today, he did very well that he stopped the invitation. Having said this, Prabhu Swarup Goswami started praising Raghunath ji’s sacrifice and disinterest.
On the other hand, asking Raghunathdas ji while standing at the Singhdwar seemed bad. People had become familiar with him, so many beautiful things started giving him. The Lord had prohibited to eat beautiful tasty things; That’s why he also stopped alms at Singhdwar. Now he used to go to the area with the monks and bring Prasadi Bhaat from there. Mahaprabhu used to see Raghunath ji standing at Singhdwar everyday in the evening. When he did not see Raghunathdas ji there for two-four days, he asked Govind one day – ‘Govind! Raghu is no longer seen at Singhdwar, don’t know from where he begs now?
Govind said – ‘ Lord! Now they have stopped alms at Singhdwar, now they go from the area and bring beggars in the day itself.
The Lord said in a voice of satisfaction – ‘Raghu did the best thing. To stand at the Lion Gate longing for alms is prostitution. Even if you keep chanting the name with your mouth, it always remains in your mind that now someone should come to give. If he comes, he will definitely give something. Well, if he did not give, then he will definitely give something. That’s all, these feelings keep on arising. It is good to bring your own once in the area and keep doing Shri Krishna-Kirtan.’ In the meantime Swaroop Goswami came. On seeing them, the Lord started saying in a voice of joy – ‘ Yes, yes you have come a lot, how did you reach at the right time. Just now the episode of your Raghu was going on. Why has he stopped alms at Singhdwara?’
Swaroop Goswami said softly – ‘ He is strange, where he sees a lack of disinterest in anything, he stops that work. He must have seen some fault in Singhdwar’s alms.’
The Lord said – ‘ We are very much satisfied with his talk, it is okay to call him, where is he? Govind went and called Raghunathdas ji at the same time. After offering obeisances to the Lord and Svarupa Gosvami, slowly chanting the names of the Lord, sat down on one side of Raghusvarupa. Prabhu got up early and brought something from inside.
The Lord came and sat near Raghunath ji. Raghunathdas ji shrank more due to hesitation. The Lord slowly running his hand on his beautiful hair started saying – ‘Raghu! I am very much satisfied with you. I want to give you something out of happiness, but what else do I have to give to Nishkinchan? I will be satisfied by giving you my dearest possession. Shankaranya Saraswati had gone to Vrindavan, he returned from Vrindavan and gave this Gunjamala and this rock of Govardhan Parvat to me in the form of offerings. You must know that Mount Giriraj Govardhan is the real deity of Shri Krishna. There is no discrimination of any kind between Shri Krishna and Govardhan. That’s why today for three years I have been bathing this beautiful rock with the water of my eyes. This rock has been keeping my heart cool in my state of infirmity. My eyes have been purified by its touch. Blessed is the forehead, many times it has given ultimate coolness to my heart. God loved the Gunjmala very much, he uprooted the Gunjas from the Govardhan mountain along with the trees and made garlands of them and wore them himself and his fellow cow-herdsmen. That’s why I wear it at the time of bhajan. These two things are very dear to me, I hand them over to you. From today you should do sattvik worship of this Govardhan Shila. bathed with water; Tulsi was offered. And bowed down with devotion, this is the law of Satvik service. In the absence of Tulsi and water, just saluting with reverence can also work. Take care of your things.
Raghunathdas ji’s happiness knew no bounds after getting those two things Prabhupradatta. They were crushed under the burden of this immense grace of the Lord. He prostrated at the lotus feet of the Lord with extremely ecstatic body and accepted them like a humble beggar by extending his hands to both the objects of worship with devotion. From that day they started worshiping that rock. For worship, Goswami gave them two clothes of each vitasta and a wooden seat and also brought a tontidar karuva made of clay. Through them, they used to worship God sattvik. His disinterest was very intense. Ordinary people would not believe on hearing the story of his disinterest. He used to keep only a torn knot in his clothes. Apart from Guddi, he did not wear any other clothes. He used to sleep only for an hour-and-a-half at night, otherwise he would keep chanting the Lord’s name continuously. After leaving the house, he never tasted the tongue again. Whatever dry-dry, sweet-bitter they got in alms, they used to eat them all together. Now listen to a wonderful story of his extreme disinterest. This will reveal their tenacity, tolerance, hardness of tongue and determination.
He used to bring alms from the area in the afternoon. Even in that he began to see some alienation. Bhandari started giving more alms to him and even more he saw the feelings of collection in him. Therefore, they also stopped bringing food grains from the area. Now they have started bridging this petrified pit in a different way.
We have already told this that Bhagwan Prasadi rice is sold in shops in Jagannathji, when rice is not sold at shopkeepers’ shop for two-three days, it rots. They throw that rotten rice on the way for the cows. Telangdesh is just nearby from there, in Puri big oiling cows keep roaming here and there. His stomach is filled with this type of rice. There are many shops near the Singhdwar, where Prasad is sold. Raghunathdas ji used to take away the rotten rice in the evening. Then they used to wash by pouring a lot of water in it. He used to sift out many rotten grains from them and eat only the few good rice grains that were left with a little salt and drink water. That’s how they started spending time. He used to do all this work at night only, so that no one could see it.
One day Swarup Goswami saw him eating this rice. He laughed and said – ‘Why Raghu! You eat such delicious food all by yourself, don’t give it to us even for a day. ‘ Raghunathdas ji became silent with some feeling of shame. Mahaprabhu used to keep track of each and every detail of his devotees. One day the Lord asked Govind- ‘Govind it seems, Raghu does not even bring alms from the field anymore. Where does he beg? Govind told all the stories of Raghunathdas. The Lord’s joy knew no bounds after hearing this. On the same day in the evening, went to the place of Lord Raghunath ji. At that time they were slowly eating that delicious food. Prabhu went slowly and followed them. How does Raghunathdas ji know who is standing behind me? As soon as he put the grass in his mouth, the Lord said softly – ‘Why Raghu of the form! Our invitation has also been stopped and you yourself secretly eat such beautiful things, don’t give us any of it. ‘Having said this, the Lord quickly picked up a handful of rice from his vessel and put it in his mouth.’ Raghunathdas ji started crying in a very compassionate voice while saying ‘Hi, Hi’ and holding that vessel with both hands started saying – ‘Lord! What are you doing this? God ! It doesn’t suit you. Lord! Don’t make me a partaker of sin by eating this rotten food. ‘ Prabhu quickly eating the grass filled in his mouth, then rushed towards him to take another grass, in the meantime, hearing the commotion, Goswami also came there. Seeing Lord snatching rice from Raghunath, he held his hand and said – Lord! It is not worthy of you.
While swallowing that dry rice with difficulty, the Lord started saying- ‘Swaroop! I tell you the truth, as much taste has come in today’s rice, I have not found that much in any substance till my life.’ Oh, blessed to have such a devotee Vatsalata. Oh, Lord ! This is the taste of your disinterest. Hey Gaur! You give love to the living beings and then you become engrossed in tasting it. Hey Chaitanya! Your leela is strange, your illusion is limitless. How can we petty creatures, who consider the subjects trapped in the dust of sin as the best happiness, understand the secret of your pastimes. The one on whom you show kindness, he crosses over the world-ocean in every word.
In this way Mahamana Shri Raghunathdas ji lived a loving life of renunciation and disinterest for sixteen years in Puri, experiencing the immense compassion of Chaitanya’s feet.
respectively next post [150] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]