एक जगह चर्चा चल रही थी कि गुरू कैसा होना चाहिए. हम सभी यही कहते हैं कि गुरू तो अच्छा ही होना चाहिए. लेकिन जब शिष्य की बात आती है तो इस मामले में सभी मौन रहते हैं, कोई भी यह नहीं कहता कि शिष्य कैसा होना चाहिए. शिष्य भी तो अच्छा ही होना चाहिए ना.
आज के समय में तो गुरू शिष्य का सम्बन्ध बिल्कुल रहा ही नहीं है. बहुत ही कम ऐसे शिष्य होते हैं जो अपने गुरुओं की बातों सुनते और मानते हैं. हम विचार करें कि जब फूल खिले हों लेकिन उनके मधु का अभिलाषी भंवरा ही न हो, तो फूलों की बिखरती सुगंध की कोई कीमत नहीं होती.
सूर्योदय का सुंदर परिदृश्य हो, लेकिन दर्शन करने वाली आंखे ही न हो, तो प्रकाश की कोई कीमत नहीं. अमृततुल्य वर्षा हो रही हो, लेकिन मिट्टी न हो या भूमि ही बंजर हो, तो सौंधी सौंधी खुशबू कहां से आएगी और अन्न कैसे उपजेगा. इसी प्रकार आत्मज्ञानी महात्मा अथवा गुरू तो उपलब्ध हों, सुलभ हों, लेकिन मुमुक्षु शिष्य ही न हों, तो ज्ञान की परम्परा आगे कैसे बढ़ेगी.
कहने का अर्थ है कि यदि गुरू अच्छा होना चाहिए तो शिष्य भी उतने ही अच्छे होने चाहिए. श्री रामकृष्ण परमहंस जी एक अच्छे गुरू थे लेकिन कितने नरेन्द्र (शिष्य) ऐसे थे जो स्वामी विवेकानंद बन सके.
हम विचार करें कि क्या रामकृष्ण जी के पास केवल एक ही नरेन्द्र पहुंचे होंगे. नहीं, पहुंचे तो बहुत, लेकिन सब विवेकानन्द नहीं बन पाए, विवेकानन्द तो एक ही बना. इसमें रामकृष्ण जी के सामर्थ्य और गुरुत्व की बात नहीं है, बात नरेन्द्र के शिष्यत्व की है कि उन्होंने ज्ञान को सही तरीके से लिया. रामकृष्ण जी का सामर्थ्य तो पूर्ण था, इतना पूर्ण कि लाखों नरेन्द्र होते तो लाखों विवेकानन्द बन जाते, पर नरेन्द्र तो एक ही था.
हम कहते हैं कि “हमें तो रामकृष्ण जी जैसे गुरू चाहिए” लेकिन हमें अपने भीतर भी तो झांक कर देखना चाहिए कि हम नरेन्द्र हैं क्या, क्या हम नरेन्द्र से विवेकानंद बन सकने का सामर्थ्य रखते हैं. विवेकानंद बनने के लिए तो बहुत कुछ त्यागना पड़ता है, बहुत कुछ सीखना पड़ता है. लेकिन हममें से कोई कुछ भी न तो त्यागना चाहता है और न ही कोई कुछ सीखना चाहता है. हम सभी स्वयं को गुरू माने बैठे हैं.