अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना
दीन बन्धु प्रणता रति हरना ।
(रामचरितमानस)
भरत भैया ! मैं महाराज सुग्रीव जामवन्त युवराज अंगद के साथ प्रभु श्रीराम के पास गया था ।
हनुमान जी ने भरत जी को अपनी आत्मकथा अवध के उस उद्यान में सुनाते हुये कहा…
मुझे देखते ही उस विशाल शिला पर बैठे प्रभु श्रीराम दौड़ पड़े थे… और मेरे पास में आकर उन्होंने पूछा था… पवनसुत ! बताओ ना मैथिली कैसी है ?…
क्या उसके प्राण जीवित हैं ?
भरत भैया ! मैंने सबसे पहले प्रभु की प्रदक्षिणा की थी… फिर साष्टांग प्रणाम किया था…
मेरे नेत्र सजल हो गए थे प्रभु की अपनी ही शक्ति माँ मैथिली के विषय में जानने की उत्सुकता देख कर… वो बारम्बार कह रहे थे… बताओ ना हनुमान ! कैसी है मेरी मैथिली ! सब ठीक तो है ना ?
भरत भैया ! मैंने प्रभु को बताना शुरू किया…
इस देश की दक्षिण सीमा, जहाँ सागर का स्पर्श होता है…
वहाँ से सौ योजन सागर के मध्य में राक्षस राज रावण की… सुवर्ण की राजधानी लंका त्रिकूट के मध्य बसी हुयी है… ।
उसी लंका में अशोक वाटिका के एक अशोक वृक्ष के नीचे माँ मैथिली रहती हैं… प्रायः रात-दिन उन्हें कुरूप विकटाकार राक्षसियाँ डराती और धमकाती रहती हैं… प्रभु ! मैंने उनके नेत्र आँसुओं से भींगे ही देखे…
उनके ओष्ठ सदैव आपके राम राम राम… इन्हीं नाम का जाप करते रहते हैं… ।
उनके शरीर पर एक मात्र मैली-सी साड़ी है… अत्यंत दुर्बल देह हो गया है उनका ।
उन्होंने अन्न जल का परित्याग कर दिया है प्रभु…
निद्रा उन्हें आती नही है… जमीन पर ही बैठी रहती हैं…
भरत भैया ! ये कहते हुए मेरे नेत्र बरस रहे थे… मैं रो रहा था… रुंधे गले से ये सब मैं उन्हें बता रहा था ।
प्रभु ! वो बारम्बार यही कह रही थीं कि… पवनपुत्र ! स्वामी से पूछना… कि मुझ से गलती क्या हो गयी… मुझे क्यों बिसरा दिया है उन्होंने… ।
और हाँ… प्रभु ! वो बार-बार इंद्र पुत्र जयंत का उल्लेख कर रही थीं… और कह रही थीं… एक बार काग बनकर जयंत आया था… और उसने मेरे पैरों पर अपने चोंच का प्रहार किया था… तब प्रभु के पास धनुष भी नही था न बाण था… बस एक सींक उठाकर मार दिया था प्रभु ने… त्रिलोक में भागा वह जयंत पर कहीं भी उसकी रक्षा नही हुयी थी…
प्रभु ! ये कहते हुए हिलकियों से माँ मैथिली रो रहीं थीं… क्यों ! क्यों अब वैसा शस्त्र नही चला रहे प्रभु… कि इस रावण की लंका ही भस्म हो जाए… और वे मुझे आकर ले जाएँ ।
इतनी शक्ति रहते भी मुझे क्यों यहाँ रहना पड़ रहा है ?
प्रभु ! चवो बारम्बार यही पूछ रही हैं… क्या कारण है… क्यों भुला दिया मेरे नाथ ने मुझे…।
भरत भैया ! मेरे द्वारा माँ जानकी का ये सन्देश सुनकर… प्रभु भी रो रहे थे… और मैंने देखा… लक्ष्मण जी भी पीछे खड़े सुबुक रहे थे ।
मैंने कहना बन्द नही किया… प्रभु ! मुझे चलते हुए माँ ने ये चूड़ामणि दी… और कहा… कहना…
ये मणि समुद्र मन्थन के समय… सागर ने प्रसन्न होकर देवराज को प्रदान किया था… और मेरे पूज्य पिता महाराज जनक जी ने जब यज्ञ किया… तो वही मणि मेरे पिता को प्रदान किया था इंद्र ने…
भरत भैया ! मैं इतना ही कह सका… और वो चूड़ामणि मैंने प्रभु के हाथों में दे दिया…
प्रभु ने रोते हुए… अपने हृदय से लगा लिया था उस मणि को…
और रुंधे हुए गले से बोले थे… जब मेरा पाणिग्रहण हुआ मिथिला में मैथिली के साथ… तब यह चूड़ामणि… मिथिला नरेश ने प्रदान किया था… सदैव मेरी प्यारी जनक दुलारी के भाल पर शुशोभित रहता है ये मणि… !
आहा ! हनुमान !… तुम वही चूड़ामणि ले आये…
अपने हृदय से लगाकर प्रभु रोने लगे… कुछ देर के लिए तो ध्यानस्थ ही हो गए थे…
फिर एकाएक मुझे खींच लिया था प्रभु ने अपनी ओर…
हनुमान ! तुम से ये राम कभी उऋण नही हो सकता ।
तुम मेरे सबसे प्रिय हो हनुमान !… तुम्हारी कृपा के बिना कोई मेरी भक्ति नही पा सकता… तुम मेरे सबसे प्रिय हो…
ये कहते हुए प्रभु श्रीराम ने मुझे अपने हृदय से फिर लगा लिया था ।
भरत भैया !
मैं त्राहि माम् ! त्राहि माम्… कहते हुए चरणों में गिर पड़ा ।
मुझे जो सुख मिल रहा था… मैं उसे शब्दों में बता नही सकता ।
मैं अपने प्रभु के हृदय से लगा हुआ था ।
कुछ देर के लिए तो मेरी और प्रभु की मानो समाधि ही लग गयी थी ।
हम दोनों भूल ही गए थे कि कौन राम है और हनुमान ।
मैंने लंका जला दिया है प्रभु…
सोने की लंका जल चुकी है… वहाँ के जितने भी किले थे उन सबको मैंने तोड़ दिया है…
प्रभु ! वहाँ के शस्त्रागारों को मैंने नष्ट कर दिया है…
और जो-जो यन्त्र लगाये गए थे रावण ने… उन सब यंत्रो को मैंने तोड़कर सागर में फेंक दिया है ।
सागर की उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं… कोई भी जलयान से वहाँ तक नही जा सकता… सुबेल नामक पर्वत है… सागर की तंरगे उससे टकराती रहती हैं… उस पर चढ़ पाना साधारण मानव के वश की बात नही है… पर प्रभु मैंने सब सुगम कर दिया है… आपके प्रताप से… ।
भरत भैया ! मैंने एक ही साँस में ये सारी बातें बता दीं ।
प्रभु ! माँ ने कहा है… एक महिने के भीतर ही आप वहाँ चले जाएँ… नही तो…
नही तो क्या हनुमान ?…एकाएक बिलख उठे थे प्रभु ।
नही तो अपने प्राणों को सागर में आहूत कर देंगी माँ मैथिली ।
तभी मैंने लक्ष्मण जी की ओर देखा… उनके पास में गया… और अपना मस्तक उनके चरणों में रख दिया था…
हे देव लक्ष्मण जी ! आपके लिए भी माँ ने विशेष कहा है…
लक्ष्मण जी रो पड़े थे… कुछ बोल न सके ।
आपके लिए कहा है माँ ने… विशेष अपराध आपका किया है मैंने !
इसलिए मैं आपसे क्षमा मांगती हूँ… आज ये मैथिली जो भी दुःख पा रही है… उसका कारण ही ये है कि मैंने अपने पूज्य देवर की बात नही मानी… और उन्हें भला बुरा कहकर उस माया के पीछे भेज दिया… और उनकी रेखा की मर्यादा को भी लांघ गयी ।
अपनी इस भाभी को क्षमा कर दो… लाल लक्ष्मण जी !
ये सुनते हुए… हिलकियों से लक्ष्मण जी रो पड़े थे…
धरती में अपना माथा रखकर प्रणाम किया था लक्ष्मण जी ने…
नही माँ ! ऐसा मत बोलिये… ऐसा मत बोलिये ।
फिर एकाएक क्रोध से काँप उठे थे लक्ष्मण जी…
धनुष उठाया था… और तलवार भी हाथों में लेकर गए प्रभु श्री राम के पास… घुटनों के बल बैठकर लक्ष्मण जी ने दोनों हाथों से तलवार और धनुष बाण प्रभु को देते हुए बोले थे-
अब बिलम्ब न कीजिये… राक्षस रावण हमारी भाभी माँ को…
इससे ज्यादा बोल नही पाये थे लक्ष्मण जी… उनकी आँखें अंगार उगल रही थीं… उनका शरीर काँप रहा था…
भरत भैया ! मैंने ऐसा रूप पहले लक्ष्मण जी का कभी नही देखा…
शेष चर्चा कल…
“श्रीराम जय राम जय जय राम”
Harisharan