[30]हनुमान जी की आत्मकथा

IMG WA

सोई सम्पदा विभीषणहिं सकुच दीन्ह रघुनाथ…
(रामचरितमानस)

भरत भैया ! लक्ष्मण जी के कहने से… महाराज सुग्रीव ने शीघ्रता दिखाई… और वानर सेना चल पड़ी थी सागर की ओर ।

कोटि कोटि वानर थे… कोई आकाश में उड़ते हुए चल रहे थे कोई धरती पर उछलते हुए चल रहे थे… कोई वानर भरत भैया ! उल्टे चल रहे थे… प्रभु श्रीराम का दर्शन करते हुए… उस समय श्रीराम उन्हें सावधान करते… गिर जाओगे… चोट लग जायेगी…

फिर जहाँ-जहाँ जल पीने के लिये सेना रूकती… वहाँ प्रभु श्रीराम सबको सावधान करते हुए कहते… शत्रु जल में विष भी मिला सकते हैं… इसलिये सावधान !…

मैं ये सब देखता था… और प्रभु की करुणा पर मुग्ध था ।

जहाँ-जहाँ सेना रुक रही थी हमारी… वृक्ष के नीचे आसन लगाया जाता था प्रभु का…

पर क्या दिव्य छटा उभरती थी तब… जब स्वामी नीचे बैठे होते थे… और सेवक उनके ऊपर… ।

भरत भैया ! इस विश्व ब्रह्माण्ड में है ऐसा कोई स्वामी… जो अपने शीश पर अपने सेवक को बिठाए… !

जिस वृक्ष के नीचे प्रभु बिराजते थे… उस वृक्ष की शाखाओं में वानर खूब कूदते रहते थे… पर प्रभु उनको देखकर आनन्दित होते ।

जब हमारी सेना चल रही थी… तब मंगल-मंगल सगुन होते थे…

नील कण्ठ हमारे साथ में ही चल रहा था… नेवला हमें दिखाई देता था… हवा हमें आगे की ओर ही बढ़ाती थी…

मैं बारम्बार लक्ष्मण जी को कहता… हमारी ही विजय होगी ।

इस तरह हम लोग सागर के किनारे पहुँच गए थे ।


महाराज ! महाराज !… शत्रु रावण का अनुज आया है… अपना नाम विभीषण बता रहा है… कह रहा है शरणागति लेने आया हूँ प्रभु की ।

भरत भैया ! मैं वहीं था… मैंने सुना दो दूत आये थे… और सुग्रीव महाराज को ये सूचना दे दी थी ।

पकड़ कर… नाक कान काट दो… बिना कुछ विचारे सुग्रीव महाराज भी बोल दिए थे ।

पर मैंने महाराज सुग्रीव से कहा… शरणागत होने आये हैं प्रभु श्रीराम की… तो क्यों न प्रभु से भी पूछ लिया जाए ।

हाँ… ये ठीक रहेगा… चलो ! प्रभु के पास ।

इतना कहकर मैं और महाराज सुग्रीव प्रभु श्रीराम के पास चल दिए थे ।

प्रभु ! आपकी शरणागति लेने आया है रावण का अनुज विभीषण !

प्रभु ने सुग्रीव के मुख से ये सुनकर… भरत भैया ! मेरी ओर देखा ।

क्या कहते हो हनुमान ?… मैंने सुना था… लंका में तुम्हें ये विभीषण मिला था ?

पर महाराज सुग्रीव ने बीच में ही बोल दिया… प्रभु ! क्षमा करें… विभीषण को शरण में लेना उचित नही होगा ।

क्यों ? क्यों उचित नही होगा… वानर राज ?

क्यों कि प्रभु ! कुछ भी हो विभीषण शत्रु का भाई है… क्या पता ?

महाराज सुग्रीव ने इतना ही कहा ।

ह्म्म्म !… प्रभु श्रीराम विचार करने लगे ।

फिर बोले… तुम कुछ कह रहे थे पवनसुत ?

हाँ प्रभु ! लंका में यही एक आपका सच्चा प्रेमी है ।

मेरी बात सुनकर… सुग्रीव कुछ रोष में आ गये… उनके अहंकार को ठेस पहुंची थी ।

हनुमान ! किसी ने… एक दो बार राम राम… कह दिया तो तुम तो… उसे परमभक्त ही मान लोगे ।

पर पता है… कूटनीति ये कहती है… कि ऐसे शत्रु के भाई… को कभी भी चाहे कुछ भी हो… पर अपने साथ नही मिलाना चाहिए ।

लक्ष्मण जी भी पीछे खड़े थे प्रभु श्रीराम के… उन्होंने भी सुग्रीव की बात का ही समर्थन किया ।

पर प्रभु उस समय न सुग्रीव की ओर देख रहे थे… न लक्ष्मण जी की ओर… उनकी दृष्टि एक मात्र मेरे ऊपर थी…

हाँ हनुमान ! तुम कहो…

मैंने कहा- माँ मैथिली का पता बताने वाला भी यही विभीषण ही था प्रभु ! ये हृदय से आपका है… ।

हनुमान ! इस तरह से शत्रु के लोगों को सेना में भरना है… तो मैं कह देता हूँ… अपने सैनिकों को मृत्यु का ग्रास बनाना मुझे प्रिय नही है…।

ये क्या हो गया था एकाएक महाराज सुग्रीव को… कह रहे थे मुझे… पर उनका इशारा था प्रभु श्रीराम की ओर ।

मुस्कुराता मुखारविन्द गम्भीर हो गया था प्रभु का… सुग्रीव की बातें सुनकर ।

लक्ष्मण ! मुझे तुम्हारी आवश्यकता नही है… तुम जाना चाहो तो वापस जा सकते हो अयोध्या… प्रभु ने पहले अपने अनुज लक्ष्मण जी से ही ये बात कही थी ।

और वैसे भी वनवास में तुम्हारा कोई काम नही था… जाओ तुम ।

बिलख उठे थे लक्ष्मण जी… प्रभु की ये बातें सुनकर ।

और हाँ… महाराज सुग्रीव ! आपको क्या लगता है… आपकी सेना नही रहेगी तो ये राम लंका को जीत नही सकता ?

अरे ! मैं तो यहीं बैठे-बैठे… अपनी एक ऊँगली भी उठा दूँगा ना… तो लंका सहित रावण इसी सागर में आकर डूब जाएगा ।

जाओ ! तुम भी जाओ… सुग्रीव ! बहुत उपकार किया है तुमने मेरे ऊपर… कि यहाँ तक अपनी सेना ले आये… अब इस रघुवंशी राम को तुम्हारी सेना नही चाहिए ।

सब चले जाओ… मैं सबको छोड़ सकता हूँ… मैं सुग्रीव को छोड़ सकता हूँ… मैं अपने अनुज लक्ष्मण को छोड़ सकता हूँ…

पर मेरे शरण में आये हुए… एक शरणागत को मैं कैसे छोड़ दूँ ?

भरत भैया ! मेरे नेत्रों से अश्रु-धार बह चले थे ।

कितनी करुणा थी प्रभु के अंदर… प्रभु कितने दयामय थे ।

सुग्रीव ने पहली बार प्रभु का ये रूप देखा था… वो डर गए ।

लक्ष्मण जी सिर झुकाकर खड़े हैं…।

जाओ हनुमान ! विभीषण को लेकर आओ ।

आज्ञा दी थी रघुकुल नायक ने ।


जय हो ! जय हो ! जय हो !…

हे प्रभु ! आपका सुयश सुनकर आया हूँ…

आपकी शरण में आया हूँ… इस दीन हीन विभीषण को अपनी शरण में ले लीजिये नाथ !

इतना कहते हुए… सागर के रेत में ही साष्टांग लेट गए थे विभीषण ।

प्रभु ! विभीषण… लक्ष्मण जी ने भगवान श्री रघुनाथ जी से कहा ।

कहाँ है ?… उठे राम !…

दौड़ पड़े… विभीषण को गले लगाने के लिए ।

बालुका धूप में चमक रही है… सागर की बालुका ।

उसी में नंगे चरण दौड़ पड़े ।

मैंने देखा… प्रभु दौड़ रहे है… आहा ! वो झाँकी… भरत भैया ! विलक्षण थी… मैंने कहा… विभीषण ! देखो ! प्रभु आ रहे हैं तुम्हारे पास… प्रभु अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर रहे हैं…

कि कोई एक कदम भी मेरी तरफ बढ़ाता है… तो सौ कदम में उसकी तरफ बढ़ाता हूँ… ।

यही हैं शरणागत वत्सल प्रभु श्रीराम !…

दर्शन करो… भक्त से मिलने की कितनी तीव्रता है… कितनी उत्सुकता है… प्रभु में ।

प्रभु श्रीराम आये… विभीषण तो त्राहि माम् त्राहि माम् ! करके चरणों में ही पड़े हैं ।

पीछे पीछे… लक्ष्मण जी और महाराज सुग्रीव दौड़े थे… वो भी आकर खड़े हो गए पीछे ।

उठाया विभीषण को… पर उठने को मान नही रहे विभीषण ।

उठाया प्रभु ने… जबरदस्ती उठाया…

उठो लंकेश !… उठो लंकापति !…

अरे ! ये प्रभु क्या बोल दिए थे… विभीषण को राज्य दे दिया ।

सुग्रीव ने उसी समय पूछा था… आप तो शरणागत वत्सल हैं… जो भी आपकी शरण में आएगा उसे शरण में ले लेंगे ।

हाँ… मैं शरणागत को नही त्याग सकता…

प्रभु की वाणी सब ने सुनी ।

तो कल को रावण भी आ गया तो ?

व्यंग था सुग्रीव का… ।

आपने विभीषण को लंका पति बना दिया… फिर कल को रावण भी आ गया… और आपकी शरणागति ले ली तो… आप उसे कहाँ का राज्य देंगे ?

अयोध्या का…

मैं रावण को अयोध्या का राज्य दूँगा… और भरत को कहूँगा… चल जीवन पर्यन्त वन में ही रहेंगे ।

भरत भैया ! ये बात सुनकर मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े थे ।

सुग्रीव को गलती का भान हुआ था…

इन शरणागत वत्सल की वत्सलता देखकर… प्रकृति गदगद् थी ।

शेष चर्चा कल…

सोई सम्पदा विभीषणहिं सकुच दीन्ह रघुनाथ ।

Harisharan



Soi sampada Vibhishanahin sakuch dinh Raghunath. (Ramacharitmanas)

Brother Bharat! At the behest of Lakshman ji… Maharaj Sugriva showed haste… and the monkey army had started towards the ocean.

There were crores of monkeys… some were walking flying in the sky, some were walking on the ground bouncing… some monkeys Bharat Bhaiya! They were walking in reverse… while seeing Lord Shriram… at that time Shriram cautioned them… you will fall… you will get hurt…

Then wherever the army used to stop to drink water… There Lord Shri Ram cautioned everyone saying… Enemies can also mix poison in the water… So be careful!…

I used to see all this… and was mesmerized by the mercy of GOD.

Wherever our army was stopping… Lord’s seat was placed under the tree…

But what a divine shade emerged then… when the master was sitting below… and the servant was above him….

Brother Bharat! There is such a master in this world universe… who makes his servant sit on his head…!

The tree under which the Lord used to sit… monkeys used to jump a lot in the branches of that tree… but the Lord was happy to see them.

When our army was on the move… then auspicious omens used to augur well…

Neelkanth was walking with us… we could see the mongoose… the wind used to propel us forward…

I used to tell Laxman ji again and again… Only we will win.

In this way we had reached the shore of the ocean.

King ! Maharaj!… Enemy Ravan’s younger brother has come… He is telling his name as Vibhishan… He is saying that he has come to take refuge in the Lord.

Brother Bharat! I was there… I heard that two messengers had come… and gave this information to Sugriva Maharaj.

Catch… Cut off the nose and ears… Sugriva Maharaj had also spoken without any thought.

But I said to Maharaj Sugriva… Lord Shri Ram has come to surrender… so why not ask the Lord as well.

Yes… it will be fine… come on! Near the Lord

Having said this, Maharaj Sugriva and I had gone to Lord Shri Ram.

Lord ! Ravana’s younger brother Vibhishan has come to take your refuge!

After hearing this from the mouth of Sugreev, Bharat Bhaiya! Looked at me

What do you say Hanuman?… I had heard… You got this Vibhishan in Lanka?

But Maharaj Sugriva said in the middle… Lord! Sorry… It would not be appropriate to take Vibhishan to shelter.

Why ? Why wouldn’t it be appropriate… Monkey Raj?

Because Lord! Be that as it may, Vibhishan is the enemy’s brother… Who knows?

Maharaj Sugriva said only this much.

Hmmm!… Lord Sri Rama started thinking.

Then said… were you saying something Pawansut?

Yes Lord! This is your only true lover in Lanka.

After listening to me… Sugriva got angry… His ego was hurt.

Hanuman ! If someone said Ram Ram… once or twice, then you would consider him as a supreme devotee.

But do you know… Diplomacy says… that the brother of such an enemy… no matter what happens… but should not be mixed with you.

Lakshman ji was also standing behind Lord Shriram… He also supported Sugriva’s point of view.

But at that time the Lord was neither looking towards Sugriva… nor towards Laxman ji… His vision was only on me…

Yes Hanuman! you say…

I said – Lord it was Vibhishan who told the address of Mother Maithili! This is yours from the heart….

Hanuman ! In this way, the people of the enemy have to be filled in the army… So I say… I do not like to make my soldiers die….

What had happened all of a sudden Maharaj Sugriva was saying to me… but he was referring to Lord Shriram.

The smiling Mukharvind became serious after listening to the words of Prabhu… Sugriva.

Laxman ! I don’t need you… If you want to go, you can go back to Ayodhya… The Lord had said this to his younger brother Laxman earlier.

And anyway you had no work in exile… you go.

Laxman ji was filled with tears after hearing these words of the Lord.

And yes… Maharaj Sugriva! What do you think… If your army is not there then this Ram cannot win Lanka?

Hey ! I am just sitting here… I will even lift my finger… otherwise Ravan along with Lanka will come and drown in this ocean.

Go ! You also go… Sugriva! You have done a great favor to me… that you have brought your army even here… Now this Raghuvanshi Ram does not want your army.

Everyone go away… I can leave everyone… I can leave Sugriva… I can leave my younger brother Laxman…

But who has come to my shelter… how can I leave a refugee?

Brother Bharat! Tears were flowing from my eyes.

How much compassion was there in GOD… how merciful GOD was.

Sugreev had seen this form of the Lord for the first time… he was scared.

Laxman ji is standing with his head bowed….

Go Hanuman! Bring Vibhishan.

Raghukul Nayak had given permission.

Be victorious ! Be victorious ! Be victorious !…

Oh God ! I have come after listening to your wish.

I have come in your shelter… Take this poor Vibhishan in your shelter Nath!

Saying this… Vibhishan had prostrated himself in the sand of the ocean.

Lord ! Vibhishan… Laxman ji said to Lord Shri Raghunath ji.

Where is it?… Ram got up!…

Ran… to hug Vibhishan.

The sand is shining in the sun… the sand of the sea.

Bare feet ran in that.

I saw… The Lord is running… Aha! That glimpse… Bharat Bhaiya! It was wonderful… I said… Vibhishan! See ! GOD is coming to you… GOD is fulfilling his promise…

If someone takes even a single step towards me… then I take a hundred steps towards him….

This is the refuge Vatsal Prabhu Shri Ram!

Have a darshan… there is so much intensity to meet the devotee… there is so much eagerness… in the Lord.

Lord Sri Rama came… Vibhishana then save me save me! They are lying in the steps.

Laxman ji and Maharaj Sugriva ran behind… they also came and stood behind.

Woke up Vibhishan… But Vibhishan is not agreeing to get up.

God raised… Forced…

Wake up Lankesh! Wake up Lankapati!

Hey ! What did this Lord say… He gave the kingdom to Vibhishan.

Sugriv had asked at the same time… You are a surrendered Vatsal… Whoever comes to your shelter, you will take him in your shelter.

Yes… I cannot leave the refugee…

Everyone heard the voice of the Lord.

So what if Ravana also came tomorrow?

Satire was of Sugriva….

You made Vibhishan the husband of Lanka… then yesterday Ravana also came… and took your refuge… where will you give him the kingdom?

of Ayodhya…

I will give the kingdom of Ayodhya to Ravana… and tell Bharat… Let us live in the forest for the rest of our life.

Brother Bharat! Hearing this, tears started flowing from my eyes.

Sugriva realized his mistake.

Seeing the affection of these surrendered Vatsal… Prakriti was giddy.

Rest of the discussion tomorrow…

Soi sampada Vibhishanahin sakuch dinh Raghunath.

Harisharan

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *