[34]हनुमान जी की आत्मकथा

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लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे…
(श्रीतुलसीदास जी)

भरत भैया के साथ आज रघुकुल के कुछ कुमार भी आ गये थे… जिन्हें मेरे ही मुख से मेरी आत्मकथा सुननी थी… कुछ कुमार चंचल भी थे तो कुछ गम्भीर भी थे… चंचल कुमार मेरे पूँछ को हाथों से सहलाते थे और हँसते थे… मुझे उन बालकों की इस चंचलता पर आनन्द आ रहा था… क्यों कि बाल्यावस्था में मैं भी तो अत्यंत चंचल था… चंचल तो अभी भी हूँ… ये कहते हुए हनुमान जी हँसे थे ।

भरत भैया ! इन्द्रजीत को बहुत शक्तियाँ प्राप्त थीं… और विधाता ने एक विशेष शक्ति दी थी… जिसके कारण उसे कोई मार नही सकता था… 12 वर्ष तक… जो निराहार रहा हो… वही इसे मार सकता है… 12 वर्ष तक जिसने नींद नही ली थी… वही इसे मार सकता था… 12 वर्ष तक जिसने ब्रह्मचर्य का पालन किया है… वही इसे मार सकता था… ।

पर अहंकारी इस इन्द्रजीत ने ये सोच लिया था कि 12 वर्षों तक कोई कैसे अनिद्रा और आहार को त्याग सकता है… ऋषि मुनि को छोड़ दिया जाए… वो मुझ से क्यों लड़नें लगे… पर सामान्य मानवी में ये सम्भव ही नही है… ऐसा विचार कर… इसने अपने आपको अमर ही मान लिया था ।

पर इसे क्या पता था कि लक्ष्मण जी में सेवा भाव के कारण ये सब गुण थे… ये सोये कहाँ थे… इन्होंने खाया कहाँ था ! ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन था… सहज ही ।

आज जो लंका के युद्ध में हुआ… वह मेरा भी सोचा नही था ।

इसका सामना हुआ आज अनन्त काल के अवतार लक्ष्मण जी से…

यही तो एक थे… जिन्होंने 12 वर्षों तक न आहार लिया था न नींद ली थी … और पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया था ।

घनघोर संग्राम हुआ लक्ष्मण जी के साथ इन्द्रजीत का ।

एक अंतिम शक्ति थी इन्द्रजीत के पास… जो विधाता ब्रह्मा ने ही इसे प्रदान किया था… और इसका उपचार था संजीवनी का लाना वो भी इस शक्ति के लगने के बाद… सूर्योदय से पहले ।

आज जब देखा इन्द्रजीत ने… ये लक्ष्मण तो मुझे मार ही देगा… तब इसने इस शक्ति का उपयोग किया… सीधे लक्ष्मण जी के वक्ष पर ये शक्ति लगी थी… और मूर्छित हो गए लक्ष्मण जी ।

मैं उधर से जा रहा था… सबको देखते हुए… तभी मैंने देखा… कि इन्द्रजीत किसी को उठाने का प्रयास कर रहा है… मैं गया वहाँ… तो मैंने देखा… ओह ! लक्ष्मण जी मूर्छित हैं…

मैं दौड़ा उस तरफ… मुझे आते हुए जब देखा इन्द्रजीत ने… तो वह भागा… ।

भरत भैया !… मेरा शरीर क्रोध से काँप रहा था… मेरा रूप रोद्र बन गया था… मुझे अगर वह मिल जाता… तो मैं उसे मार ही देता… चाहे कितने भी वर उसे प्राप्त हों… ।

पर वो अपने किसी गुप्त ठिकाने में जाकर छुप गया ।

मैं लौट कर आया… और शेष के अवतार लक्ष्मण जी को उठाकर प्रभु श्रीराम के पास में ले आया था ।

इस प्रसंग को जब सुना कुमारों ने तो चंचल कुमार भी गंभीर हो गए थे ।

फिर आगे क्या हुआ ? उन कुमारों ने ही मुझ से पूछा ।


अनुज लक्ष्मण !… चिल्ला उठे थे प्रभु श्री राघवेन्द्र सरकार ।

वो बारम्बार लक्ष्मण जी के सिर में हाथ फेर रहे थे…

उठ जा ! भाई… उठ जा… देख ! मेरी आज्ञा तुमने आज तक नही टाली… पर आज क्यों मेरी आज्ञा का पालन नही कर रहे… उठ भाई !

नेत्रों से अश्रु धार बह चले थे… प्रभु के ।

वो हिलकियों से रो रहे थे… अपने आराध्य को इस तरह रोते हुए देखना… ओह ! मेरे ऊपर तो मानो बज्रपात ही हो रहा था ।

प्रभु ! आप क्यों रहे हैं… मत रोइये ! मैं काँपते हुए इतना ही बोल पाया था… ।

आप क्यों रहे हैं… अमृत ले आऊंगा मैं… इस ब्रह्माण्ड में जहाँ भी अमृत होगा… उसे मैं ले आऊंगा… आप रोइये मत नाथ !

अच्छा ! पाताल में अमृत है… मैं उन नागों को कुचलते हुए… उनके यहाँ से अमृत ले आऊंगा… पर आप रोयें नहीं प्रभु !

अच्छा ! स्वर्ग में तो अमृत हैं ना… उस अमृत के कलश को ही उठा लाऊँगा…

और मैंने सुना है चन्द्रमा में अमृत है… मैं चन्द्रमा को ही पकड़ ले आऊंगा… और उसे निचोड़ कर लक्ष्मण जी के मुख में डाल दूँगा ।

अगर ये भी आपको ठीक न लगे… तो मैं काल को ही पकड़ कर मसल दूँगा… आज के बाद कोई मरेगा ही नही… ।

पर नाथ ! आप…

फिर मैंने सोचा… भरत भैया ! ये तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं… इस तरह के उपाय इन्हें प्रिय नही होंगे…

तब हार कर मैंने अपने आराध्य के ही चरणों में अपना शीश रख दिया था… आप ही बताइये ना… मैं क्या करूँ ?

तब मेरे पास जामबंत आये… हनुमान ! तुम क्रोध मत करो… पहले शान्त हो जाओ… पर मैं कैसे शान्त होता… मेरे आराध्य रोये जा रहे थे… उनका रुदन मुझ से कैसे सह्य होता ।

तब जामबंत ने मुझ से कहा… कोई वैद्य हो तो उसे ले आओ… ये कार्य करो पवनपुत्र !

मेरी ओर देखा था मेरे प्रभु ने… मानो कह रहे हों… तुम कुछ कर सकते हो… करो !

बस मुझे आज्ञा मिल गयी थी…

मैं जाने लगा किसी वैद्य को खोजने के लिए… ।

पर मुझे विभीषण ने रोका… और कहा… कहाँ जाओगे पवनपुत्र !

तुम्हें पता है वैद्य कहाँ मिलेगा ?

मैं देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों को पकड़ कर ले आऊंगा… मैंने कहा ।

नही… ऐसे क्रोध में कार्य मत करो…

फिर कुछ सोच कर विभीषण ने मुझे कहा… रावण का एक वैद्य है… सुषेण नामक वैद्य… लंका में ही रहता है…

उसे ले आओ…

पर क्या वो आएगा ? जामबंत ने पूछा था विभीषण से ।

क्यों नही आएगा… मैं उसे जैसे भी हो ले आऊंगा ।
मैंने कहा ।

आएगा… क्यों कि वैद्य का न कोई शत्रु होता है… न कोई मित्र… उसका एक ही शत्रु है… वह है रोग… ।

विभीषण ने सन्तुष्ट किया जामबंत को ।

मैं तब तक उड़ चुका था… सुषेण वैद्य को लाने के लिए ।


रात्रि में मैं खोजने लगा था उस वैद्य का घर…

जल्दी-जल्दी में मैंने विभीषण से उसका पता भी नही पूछा था ।

मैं तो लंका का हर स्थान जानता हूँ ना… मैंने आग जो लगाई थी इस लंका में ।

पर मुझे ज्यादा समय नही लगा… वैद्य का घर पता करने के लिए ।

मैं पवनपुत्र हूँ… मैंने घर में प्रवेश करते ही सुषेण वैद्य को अपना परिचय दिया… ।

पर मैं क्या करूँ… क्यों आये हो यहाँ ?

तुम मेरे राजा के शत्रु हो… जाओ यहाँ से ।

इतना बोलकर वो वैद्य तो फिर अपने किसी शोध कार्य में लग गया था…।

ये समय नही था बहस करने का… पहले मैंने सोचा इसे ही उठाकर ले चलूँ… फिर मेरे मन में आया… कोई औषधि अगर इसके घर में छूट गयी… तो मुझे फिर आना पड़ेगा… और बिलम्ब पर बिलम्ब होता जा रहा है… ।

मैंने उसको उसके घर के सहित ही उठा लिया…

जो भी औषधि होगी… घर में ही तो होगी…

श्री राम जय राम जय जय राम…

यही नाम मेरे रोम-रोम से निकल रहा था… मैं शीघ्र ही पहुँच गया था सुबेल पर्वत पर… जहाँ प्रभु अपने अनुज को गोद में लेकर विलाप कर रहे थे ।

सुषेण ! हे वैद्यराज ! देखो ना मेरे अनुज को क्या हुआ है ?

बड़ी वेदनापूर्ण वाणी थी प्रभु की…

मैं क्यों देखूँ… तुम मेरे राजा के शत्रु हो… तो तुम मेरे भी शत्रु हुए … और मुझे इस तरह उठा कर क्यों लाये… सुषेण ने कहा ।

मुझे इतना क्रोध आया उस पर… मैं आगे बढ़ा था… क्रोध में ।

पर मुझे जामबंत ने रोक दिया… ये समय उचित नही है क्रोध करने का पवनपुत्र ! शान्त ! शान्त रहो ।

हे वैद्यराज !… वैद्यों का कौन शत्रु और कौन मित्र !

प्रभु ने ही सुषेण से बातें की…

क्या रोग ही आपका शत्रु नही है ?… हे वैद्य राज ! अपने वैद्य धर्म का पालन करो … ये सामने आपके जो पड़ा है… वो न शत्रु है… न मित्र… ये बस एक रोगी है… इसे स्वस्थ करना ही आपका धर्म है ।

अगर मैंने नही किया तो ? सुषेण प्रभु से जबान लड़ा रहा था ।

मुझे फिर क्रोध आया … मैं फिर आगे बढ़ने लगा… तो जामबंत ने फिर मुझे रोक दिया ।

अगर तुम ने अपने धर्म का पालन नही किया तो यही धर्म तुम्हारे समस्त विद्याओं की सिद्धियों को समाप्त कर देगा… ।

प्रभु श्रीराम ने गम्भीर होकर कहा ।

धर्म की हम रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करता है ।

प्रभु ने धर्म का सार समझा दिया था ।

तब मैंने देखा… सुषेण कुछ शान्त हुआ…

और लक्ष्मण जी की ओर बढ़ा… आँखें देखीं… नाड़ी देखी ।

इन्द्रजीत कुमार ने शक्ति का प्रहार कर दिया है… यही शब्द निकले थे सुषेण के…

फिर वह जाने लगा ।

उपाय तो होगा ना… बताइये वैद्यराज ! प्रभु ने जाते हुए वैद्य को रोककर पूछा ।

है उपाय… पर असम्भव है…

अब मुझ से नही रहा गया… असम्भव को सम्भव करना मुझे आता है… आप बताइये…

संजीवनी बूटी सूर्योदय से पहले आये… पर ये सम्भव नही है ।

सूर्य को खा जाऊँगा… पर संजीवनी लेकर ही आऊंगा ।

मेरी ओर देखा प्रभु ने… मैंने प्रणाम किया उनके चरणों में ।

पर… पर भरत भैया ! मुझे अहंकार हो गया था… उस समय… ये कहते हुए कि “मैं” असम्भव को सम्भव कर दूँगा ।

शेष चर्चा कल…

लाय संजीवनी प्राण उवारे…

Harisharan



Lakshman fainted. (Shri Tulsidas ji)

Today some Kumars of Raghukul had also come along with Bharat Bhaiya… who wanted to hear my autobiography from my own mouth… Some Kumars were playful and some were serious too… The playful Kumars used to caress my tail with their hands and used to laugh… I was enjoying the playfulness of the children… because I was also very fickle in my childhood… I am still fickle… Hanuman ji laughed while saying this.

Brother Bharat! Indrajit had many powers… and the creator had given him a special power… due to which no one could kill him… for 12 years… the one who had been fasting… could kill him… the one who had not slept for 12 years… the same Could have killed it… One who has observed brahmacharya for 12 years… Only he could have killed it….

But this egoistic Indrajit had thought that how can one give up insomnia and diet for 12 years… Rishi Muni should be left out… why did he start fighting with me… but this is not possible in a normal human being… thinking like this … He had considered himself immortal.

But how did he know that Laxman ji had all these qualities due to the sense of service… where did he sleep… where did he eat! Celibacy was followed completely… easily.

What happened today in the war of Lanka… that was not even my thought.

This was faced today by Lakshman ji, the incarnation of eternity…

He was the only one… who neither took food nor sleep for 12 years… and followed complete celibacy.

Indrajeet had a fierce fight with Laxman ji.

Indrajeet had one last power… which was given to him by the creator Brahma… and the remedy for this was to bring Sanjivani and that too after this power was applied… before sunrise.

Today, when Indrajit saw… this Laxman would definitely kill me… then he used this power… this power was applied directly on Laxman ji’s chest… and Laxman ji fainted.

I was going from there… looking at everyone… then I saw… that Indrajeet was trying to lift someone… I went there… then I saw… Oh! Laxman ji is unconscious…

I ran in that direction… When Indrajeet saw me coming… he ran….

Bharat Bhaiya!… My body was trembling with anger… My form had become Rodra… If I had found him… I would have killed him… No matter how many boons he might have….

But he went and hid in some secret place of his.

I came back… and picked up Shesh’s incarnation Laxman ji and brought him to Lord Shriram.

When the Kumars heard this incident, even Chanchal Kumar became serious.

Then what happened next? Only those kumars asked me.

Brother Lakshman!… Lord Shri Raghavendra Sarkar shouted.

He was again and again patting Laxman ji’s head.

Get up! Brother… get up… see! You haven’t avoided my orders till today… but why are you not obeying my orders today… wake up brother!

Tears were flowing from the eyes of the Lord.

He was crying bitterly… To see his adorable crying like this… Oh! It was as if thunder was falling on me.

Lord ! Why have you been… Don’t cry! This was all I could say while trembling.

Why have you stayed… I will bring nectar… Wherever there is nectar in this universe… I will bring it… Don’t cry Nath!

Good ! There is nectar in Hades… I will crush those snakes… I will bring nectar from their place… but you don’t cry Lord!

Good ! There is nectar in heaven, isn’t it? I will pick up the urn of that nectar.

And I have heard that there is nectar in the moon… I will catch the moon itself… and squeeze it and put it in the mouth of Laxman ji.

If you don’t like this too… then I will hold death itself and crush it… No one will die after today…

But Nath! You…

Then I thought… Brother Bharat! This is Maryada Purushottam… Such measures will not be liked by him…

After getting defeated, I had put my head at the feet of my beloved… You tell me… What should I do?

Then Jambant came to me… Hanuman! You don’t get angry… calm down first… but how could I calm down… my loved ones were crying… how could I tolerate their crying.

Then Jambant said to me… If there is a doctor, bring him… Do this work, son of Pawan!

My Lord looked at me… as if saying… you can do something… do it!

I just got orders…

I started going to find a doctor….

But Vibhishan stopped me… and said… Where will you go son of Pawan!

Do you know where to find a doctor?

I will bring back Ashwini Kumar, the physician of the gods… I said.

No… don’t act in such anger…

Then after thinking something, Vibhishan said to me… Ravana has a doctor… a doctor named Sushen… lives in Lanka only…

bring him…

But will he come? Jambant had asked Vibhishan.

Why won’t he come… I will bring him anyway. I said .

Will come… because the doctor has neither an enemy… nor a friend… He has only one enemy… that is disease….

Vibhishan satisfied Jambant.

I had flown till then… to bring Sushen Vaidya.

At night I started searching for that doctor’s house…

In my haste, I did not even ask Vibhishan his address.

I know every place of Lanka, don’t I… The fire I had set in this Lanka.

But it didn’t take me much time to find the doctor’s house.

I am Pawanputra… I introduced myself to Sushen Vaidya as soon as I entered the house….

But what should I do… Why have you come here?

You are the enemy of my king… go from here.

Having spoken this much, the doctor was then engaged in some of his research work….

This was not the time to argue… At first I thought to pick him up and take him away… Then it came to my mind… If any medicine is left in his house… then I will have to come again… and it is getting delayed…

I picked him up along with his house…

Whatever the medicine will be… it will be at home only…

Shri Ram Jai Ram Jai Jai Ram…

This name was emanating from my every pore… I soon reached Subel mountain… where the Lord was mourning with his younger brother in his arms.

Sushen! Hey Vaidyaraj! Look what has happened to my brother?

It was a very painful speech of the Lord.

Why should I see… you are the enemy of my king… then you have become my enemy too… and why did you pick me up like this… said Sushen.

I got so angry at him… I had moved on… in anger.

But Jambant stopped me… This is not the right time to be angry son of wind! Quiet! Keep calm

Hey Vaidyaraj!… Who is the enemy and who is the friend of the doctors!

It was the Lord who spoke to Sushen…

Isn’t the disease itself your enemy?… O Vaidya Raj! Follow your vaidya dharma… This is what is lying in front of you… He is neither an enemy… nor a friend… He is just a patient… It is your duty to heal him.

What if I didn’t? The young man was fighting with Sushen Prabhu.

I got angry again… I started moving forward again… Jambant again stopped me.

If you do not follow your dharma, then this dharma will end all the achievements of your studies….

Lord Shriram said seriously.

If we protect Dharma, Dharma protects us.

The Lord had explained the essence of religion.

Then I saw… Sushen calmed down a bit…

And moved towards Laxman ji… saw the eyes… saw the pulse.

Indrajit Kumar has hit Shakti… These were the words of Sushen…

Then he started leaving.

There will be a solution… Tell me, Vaidyaraj! The Lord stopped the doctor as he was going and asked.

There is a solution… but it is impossible…

Now I can’t do it… I know how to make the impossible possible… You tell me…

Sanjeevani herb should come before sunrise… but it is not possible.

I will eat the sun… but I will bring Sanjivani only.

The Lord looked at me… I bowed down at His feet.

But… But brother Bharat! I had become arrogant… at that time… saying that “I” would make the impossible possible.

Rest of the discussion tomorrow…

Lai Sanjeevani Pran Uvare…

Harisharan

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