(सुलोचना अपने पति के साथ सती हुयी…)
लाय सजीवनि प्राण उवारे…
(गो. तुलसीदास जी)
वधू उर्मिला महासती है…
रात्रि के प्रथम प्रहर पर रघुकुल के गुरु वशिष्ठ जी ने राजमहल में प्रवेश करते ही मुझ से कहा था… इनको किसी ने सूचना दे दी थी कि पवनपुत्र आये हैं ।
मैंने प्रणाम किया गुरु वशिष्ठ जी को ।
हाँ… पवनपुत्र ! इस महासती उर्मिला की वाणी मिथ्या नही हो सकती… सुलोचना तो विधवा होगी ही ।
वैसे पवनपुत्र ! उर्मिला और सुलोचना दोनों ही महान पतिव्रता हैं… पर उर्मिला का पति सयंमी है… जितेन्द्रिय है… और किसी का अहित वो स्वप्न में भी नही सोच सकता…।
पर सुलोचना का पति इंद्रजीत क्रूर, पापात्मा, और सदैव दूसरों का अहित सोचने वाला ही है ।
पत्नी का पातिव्रत कब तक बचाएगा उसे…।
पर यहाँ तो दोनों ही तपस्वी हैं… दोनों ही तपस्या में जीवन बिताने वाले हैं… 14 वर्षों तक वो भी नही सोये… और यहाँ उर्मिला भी नही सोई… लक्ष्मण ने भी निराहार रहकर वनवास को बिताया… और ये… ये उर्मिला तो बड़े-बड़े पतिव्रताओं की आदर्श है ।
गुरु वशिष्ठ की वाणी सुनकर मैंने रघुकुल की इस वधू को प्रणाम किया…।
अब मुझे विलम्ब होगा… मुझे यहाँ से प्रस्थान करना चाहिए ।
प्रभु भी परेशान होंगे… और यहाँ से दूर भी है लंका… मैंने कहा था ।
भरत जी शान्त भाव से सुन रहे हैं… पवनसुत की आत्मकथा को ।
तब भरत भैया ! आपने मुझ से कहा… हे पवनपुत्र ! मेरे बाण पर बैठ जाइये पर्वत के सहित… ये मेरा बाण एक क्षण में ही आपको लंका पहुँचा देगा ।
अभी भी मेरे मन में अहंकार शेष था… कुछ शेष था ।
मेरे भार को… और इस पर्वत के भार को क्या ये बाण उठा सकेगा !
क्या सोच थी मेरी उस समय…
अरे ! प्रभु श्रीराम के मुखारविन्द से मैंने कितनी बार सुना था… मेरा भरत ऐसा… मेरा भरत वैसा… कहते हुए उनके नेत्रों से अश्रु गिरते हुए मैंने कितनी बार देखा था… फिर भी मुझे संशय हुआ ।
पर मैंने प्रभु की कृपा से अपने अंदर उछल रहे अहंकार को समझ लिया…
भरत भैया ! उस समय आपको याद होगा… मैंने आपके चरणों में प्रणाम किया था… और कहा था… आप अगर चाहे तो यहीं से बैठे-बैठे रावण के सहित उसके समूचे परिवार को मार सकते हैं… मुझे पता है… ।
पर मुझे ही आज्ञा दी है प्रभु ने… कि पवनपुत्र ! तुम ही ये कार्य करो… कर तो वही रहे हैं…
बस आप मुझे अब आज्ञा दें… इतना कहते हुए भरत भैया ! मैंने आपके चरणों में प्रणाम किया था ।
आपने मुझे हृदय से लगा लिया था… आहा ! मुझे एक दिव्य शक्ति उसी समय प्राप्त हो गयी थी ।
मैं उड़ चला था… पर्वत लेकर लंका की ओर ।
मुझे बाद में जामबंत ने बताया कि… प्रभु निरन्तर अपनी दृष्टि आकाश में जमाये हुए थे… कोई तारा टूटता हुआ भी देखते थे… तो कहते थे… देखो शायद मेरा हनुमान आ गया !
और जब तुम नही आते थे… तो फिर उनका रुदन शुरू हो जाता ।
वो बाम्बार यही कहते थे… हे भाई लक्ष्मण ! तुम उठो !
तुम्हारे बिना मैं कैसे जाऊँगा… अयोध्या ।
वैसे अगर मैं जाऊँ भी … तो मुझे कोई कुछ कहेगा नही…
पर मेरा राज्याभिषेक होगा… और सब भाई मुझ से आशीर्वाद लेने आयेंगे… भरत माण्डवी… शत्रुघ्न और श्रुतकीर्ति… पर माँ सुमित्रा के साथ सफेद वस्त्रों में जब उर्मिला आएगी… और मुझ से आशीर्वाद मांगेगी… तब मैं क्या कहूँगा… !
क्या ये कहूँगा… कि तेरी मांग के सिंदूर को मैंने ही मिटाया ।
ओह ! अपने स्वार्थ के चलते… अपनी पत्नी को पाने के लिए मैंने उर्मिला तेरे सुहाग को उजाड़ दिया ।
प्रभु उस समय रोते ही जा रहे थे… मुझे ये बात जामबंत ने बताई थी… और उनका रुदन हम सबके लिए असह्य हो रहा था… वानरों का आत्मविश्वास हिल रहा था… और कल युद्ध भी करना था ।
तभी आकाश से… आते हुए तुम दिखाई दिए… मैं ही उछल पड़ा था पहले… और चिल्लाकर बोला था… प्रभु ! पवनपुत्र आ गये… प्रभु के मुख मण्डल पर अब प्रसन्नता दिखी थी मुझे ।
वानरों को उछलते हुए मैंने देखा…
सब चिल्ला उठे थे… जय श्रीराम… जय जय श्रीराम ।
भरत भैया ! मैं पहुँच गया था… रात्रि के तृतीय प्रहर में ।
पर्वत को मैंने रखा… और सुषेण वैद्य का हाथ पकड़ कर ले गया था पर्वत के पास… हे वैद्यराज ! अब आप ही देख लीजिये… इनमें से आपकी बूटी कौन-सी है…
हँस पड़े थे सुषेण… आप तो पूरा ही पर्वत उठा लाये ।
क्या करता तो मैं… मैं समझ नही पा रहा था कि इनमें से संजीवनी बूटी कौन-सी है… इसलिये ।
सीधे चढ़े थे वो पर्वत पर… और बूटी लेकर उसको मसल कर… उसका रस लक्ष्मण जी के मुख में जैसे ही डाल दिया…
आँखें खोली थीं लक्ष्मण जी ने… आहा !
उस समय… इधर देखा न उधर प्रभु ने… सीधे मेरी ओर बढ़े थे और मुझे पकड़ कर अपने हृदय से लगा लिया था…
और अश्रुपात करते हुए बोले थे… रघुकुल आपका आज से ऋणी हो गया… हे हनुमान !
दूसरे दिन कुम्भकर्ण को प्रभु ने एक ही बाण से मृत्यु का ग्रास बना दिया… ।
तब आया था इंद्र जीत…
लक्ष्मण जी के साथ उसका घमासान युद्ध हुआ…
और अन्त्य में उसका मस्तक छेदन करते हुए… उसका वध कर दिया… शेष नाग के अवतार लक्ष्मण जी ने ।
उसका वो शरीर वही पड़ा था युद्ध के मैदान में…
तब मुझे ही प्रभु ने आज्ञा दी… इसके देह को इसकी पत्नी सुलोचना के पास भिजवा दो… वो पतिव्रता है ।
मैं लेकर पहुँचा था सुलोचना के पास ..इंद्रजीत का देह… आकाश मार्ग से ।
वो देखती रही… फिर बोली… मुझे तुम्हारे राम से वार्ता करनी है…
समुद्र के पास में ही चिता तैयार की गयी थी…
मन्दोदरी अपने पुत्र का देह देखकर विलाप करते हुए मूर्छित ही हो गयी थी… रावण ने समझाया था… आसुरी ज्ञान दिया था ।
ये आसुरी ज्ञान क्या होता है ? एक रघुकुल के कुमार ने प्रश्न किया ।
मैंने उत्तर दिया था… जो ज्ञान दूसरों के लिए हो स्वयं के लिये नही… उसे कहते हैं आसुरी ज्ञान ।
समुद्र के किनारे चिता तैयार थी… मैंने वचन दिया था सुलोचना को… कि प्रभु श्रीराम को मैं लेकर आऊंगा ।
सुबेल पर्वत के पास ही… सागर के तट पर चिता तैयार की थी ।
मैं लेकर गया था प्रभु को सुलोचना के पास ।
क्यों मारा मेरे पति को ? मैं पतिव्रता हूँ… मैं तुम्हें श्राप दे सकती हूँ… हे राम !…
क्रोध से भरी हुयी सुलोचना ।
तब बड़े शान्त भाव से प्रभु श्रीराम ने कहा… कोई किसी को नही मार सकता सुलोचना !… उसके पाप कर्म ही उसे लेकर डूबते हैं ।
तुम्हें क्या लगता है… कितनी पतिव्रताओं के पातिव्रत धर्म को तेरे इस पति ने नष्ट किया… क्या उनके आँसू तुम्हें नहीं दिखाई दे रहे ?
तुम मुझे क्या श्राप दोगी… देखो ! इतना कहते हुए प्रभु श्रीराम ने अपना विराट रूप दिखाया… और कहा… इस विराट में तुम्हारा श्राप लग पायेगा ?
प्रभु ने रोष प्रकट करने के बाद अपना शान्त रूप दिखाया… फिर कहा… हे सुलोचना ! तुम मात्र अपने ही बारे में सोच रही हो… पर उनका क्या… जिनके सतीत्व को तुम्हारे पति ने नष्ट किया !
हे राम ! मेरे पति को नर्क न मिले… ऐसी कृपा करो !
शान्त भाव से ये कहते हुए… प्रणाम किया सुलोचना ने ।
जाओ ! अपने पति के साथ पतिलोक में सानन्द रहो…
चिता तैयार थी… प्रभु श्रीराम को प्रणाम करके वो सुलोचना चिता में बैठ गयी… और अपने पति लोक में चली गयी ।
नर्क जाने का कोई मतलब नही था… अनंत शेष के अवतार लक्ष्मण जी के हाथों इंद्र जीत की मृत्यु हुयी थी… इसलिए ।
शेष चर्चा कल…
Harisharan