(तब ऋषि ने मुझे श्राप दिया था – हनुमान)
सुनतहिं भयहुँ पर्वताकारा…
(श्रीरामचरितमानस)
अयोध्या के उस राज उद्यान में, भरत जी आज सरजू के दर्शन करके… अभी पहुँचे ही थे… कि बरगद के एक विशाल वृक्ष के नीचे विजय मन्त्र का जाप करते हुए… श्री हनुमान जी दिखाई दिए ।
नहीं… नहीं… विजय मन्त्र का जाप नही कर रहे थे हनुमान जी… ये मन्त्र तो उनके रोम-रोम से प्रकट हो रहा था… हनुमान जी का रोआँ-रोआँ विजय मन्त्र से गूँज रहा था…
यही है विजय मन्त्र जो श्री हनुमान जी को अत्यंत प्रिय है…
“श्री राम जय राम जय जय राम”
भरत जी की उपस्थिति से ही हनुमान जी उठ गए थे…
भरत भैया के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया था हनुमान जी ने ।
भरत जी ने आनन्दित होकर अपने हृदय से लगाया…
फिर दोनों परम भक्त बैठ गए आमने-सामने ।
भाभी माँ मैथिली की खोज में दक्षिण दिशा में जाने वाली सेना में आप भी थे ना ? भरत जी ने पूछा ।
बड़ी नम्रता से सिर झुकाकर हनुमान जी ने… “हाँ” कहा ।
फिर आप तुरन्त क्यों नही गए… सागर पार ? भरत जी फिर बोले- नहीं नहीं… मेरे कहने का अभिप्राय ये है कि… आप को जामवन्त द्वारा शक्ति याद दिलाने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी थी ?
मुझे तो लगता है… आप में इतनी शक्ति है… कि आप रावण को भी मार कर आ जाते लंका से… फिर क्यों ? मैंने सुना है… कि सब लोग हताश निराश हो गए थे सागर किनारे… कोई जाने की हिम्मत नही कर रहा था… और आप अकेले जाकर बैठ गए थे सागर को देखते हुए… एकान्त में। तब जामवन्त ने आपको आपकी शक्ति की याद दिलाई थी… ये शक्ति याद दिलाना… क्यों ? भरत जी ने हनुमान जी से पूछा ।
हाँ… भरत भैया ! ये सही बात है… मैं अपनी शक्ति भूल गया था… हनुमान जी ने कहा ।
पर क्यों ? भरत जी का प्रश्न सही था… हनुमान जैसे बुद्धिमानों में सर्वश्रेष्ठ… और उसे विस्मृति हो जाए… अपनी शक्ति की ?
हनुमान जी मुस्कुराये… मैं बचपन में बहुत चंचल था ।
आप चंचल थे ? पर आप तो हमें गम्भीर ही दिखाई दिए हैं !
भरत जी ने कहा ।
मैं उपदेवता हूँ तो क्या हुआ… पर हूँ तो वानर ही ना ?
चंचल ही नही… महाचंचल ! ये कहते हुए हनुमान जी अब हँसे ।
केसरी कुमार को आनन्द आ रहा था… अपने भरत भैया के नेत्रों में उस चरित्र को जानने की उत्सुकता देखकर…
भरत भैया ! मैं वन में निर्भय घूमा करता था… मुझे क्या डर… हाँ… डरते थे मुझसे जंगल के हिंसक पशु… मैं कहीं भी देख लेता कोई हिंसक पशु छोटे पशु को मार रहा है… तो फिर मैं उसकी अच्छे से खबर लेता था ।
इसलिये जंगल में हिंसक पशु मुझ से डरते थे…
मुझे खरगोश और हिरण बहुत प्यारे लगते थे…
मैं हाथियों से बहुत आनंद लेता था… उनके पीछे के दोनों पैरों को उठा देता था… वो चिंघाड़ते थे… मुझे उनकी चिंघाड़ से हँसी आती थी… पर भरत भैया ! मैं किसी को कष्ट नही देता था… बस ऐसे ही विनोद करना… हास्य करना… मुझे अच्छा लगता ।
बालक ही तो था ना भरत भैया ! उस समय मैं ?
एक पर्वत से दूसरे पर्वत की चोटी पर छलांग लगाना… ये भी मेरा प्रिय खेल था… पर पर्वत की चोटी भरभरा के टूट जाती थी… तब मुझे विधाता ब्रह्मा को कोसने का बड़ा मन करता… कि ये ब्रह्मा मजबूत पर्वत क्यों नही बनाते… मेरे चढ़ते ही टूट जाते हैं ।
हाँ भरत भैया ! मुझे ऋषियों के आश्रम बहुत अच्छे लगते थे… अब भी लगते हैं… उनके आश्रमों में वास करना… और जब वह ऋषि ध्यान में लीन हो जाते… तब मैं जाकर उनकी गोद में बैठ जाता था ।
भरत भैया ! बालक ही तो था ना… समझ कहाँ थी इतनी कि ऋषियों की गोद में नही बैठना चाहिए… वह भी ध्यान के समय ।
ये सुनते हुए… हनुमान जी के मुख मण्डल में भरत जी ने जब देखा… तब बाल सुलभता स्पष्ट दिखाई दे रही थी ।
अब वानर ही तो था ना मैं… और वह भी बच्चा वानर…
वानर बड़ा भी हो जाए तो चंचलता नही जाती… मैं तो बालक ही था…।
नहीं नहीं… भरत भैया ! किसी का अहित या किसी को कष्ट देने के लिए ये सब मैं नही करता था… मुझे ऋषियों के आश्रम प्रिय लगते थे… मुझे ऋषि लोग प्रिय लगते थे… उनकी दिनचर्या प्रिय लगती थी… उनके वसन… उनके मृगचर्म, उनकी यज्ञ शाला…।
जब वो स्नान इत्यादि के लिए… नदी या जलाशय में जाते थे तब मैं उनके वल्कल को पहनता था… पर पहनते समय फट जाते थे उनके वस्त्र… मैं क्या करूँ ?
मैं उनके कमण्डलु उठाता था… और उनका अनुकरण करते हुए चलता था… तो मेरे हाथ से उनके कमण्डलु टूट जाते थे…।
उनके मृग चर्म लेकर अपने ऊपर डालता था… फिर उनसे खेलता था… तब खेलते-खेलते मृग चर्म भी फट जाते थे… बालक था ना उस समय मैं… बालक में बुद्धि कहाँ होती है । ये बात बड़ी मासूमियत से कही थी अंजनी कुमार ने… तब भरत जी खूब हँसे थे… खूब ।
अब भरत भैया ! आप ही बताओ… मनुष्य का बालक भी मल-मूत्र का वेग आने पर… जहां तहाँ त्याग देता है… फिर मैं तो वानर था ।
मुझे उस समय क्या समझ थी ! कहाँ मल-मूत्र का विसर्जन करना है… कहाँ नही ? अब तो समझता हूँ… ये कहकर हनुमान जी हँसे… भरत जी बोले… आप सब समझते हैं ।
अब भरत भैया ! मैं जब देखता था कि ऋषि मुनि ही यज्ञ करते थे…
तब मेरे मन में भी आता कि मैं भी यज्ञ करूँ… मुझे शौक था ये सब करने का… मैं मन ही मन में सोचता था… कि केवल जटाजूट वाले ऋषि मुनि ही यज्ञ कर सकते हैं क्या ? मैं क्यों नही ?
फिर नजर बचाकर जब यज्ञ में आहुति देने के लिए बैठता… उनके पात्र उठाकर… उन्हीं की तरह मन्त्र पढ़ने का अभिनय करता… तब वह ऋषि मेरे पास दौड़े-दौड़े आते… तब मैं भाग जाता…
अब जल्दी जल्दी में… भागते हुए… कभी ऋषि का कमण्डलु टूट जाता… कभी कुछ फूट जाता…।
पर मेरे प्रति ऋषियों का बड़ा स्नेह रहा… वह मेरे प्रति स्नेह ही रखते थे… पर मेरी चंचलता से उनका नुकसान तो हो ही रहा था ना !
मुस्कुराते हुए भरत जी सुन रहे हैं पवन पुत्र की आत्मकथा ।
अपने लाल को समझाओ !
कभी-कभी आ जाते ऋषि मुनि मेरे पिता और माँ को उलाहना देने के लिए…।
हमारे कमंडलु तोड़ दिए हैं इसने… हमारे पहनने वाले वल्कल… हमारे मृगचर्म… सब फाड़ दिए हैं ।
मेरी माँ अंजनी मेरी ओर देखती… पर मुझे मना भी नही कर सकती थी… उसे लगता था मैंने मना किया तो ये ऋषिओं के आश्रमों में नही जाएगा… फिर कहीं और गया तो बिगड़ जाएगा मेरा ये लाड़ला… इसलिये मात्र ऋषियों को हाथ जोड़ लेती थी… और नेत्रों में आँसुओं को भर कर कहती… क्षमा कर दें…।
बालक है ये… इसे आप क्षमा कर दें ।
पर एक दिन…
एक दिन एक ऋषि… बड़े तपस्वी थे… सदैव भजन पूजा पाठ यज्ञ इत्यादि के सिवा और कुछ ये जानते ही नही थे…
गम्भीर थे… और समस्त ऋषि मुनि इनका बहुत आदर करते थे ।
एक दिन मैं गया इनकी कुटिया में… ये ऋषि स्नान के लिए बाहर गए थे ।
तब मैंने इनके वल्कल पहन लिये… इनके कमण्डलु को हाथ में लेकर…
मृगचर्म को ओढ़कर इनके ही जैसे चलने का अभिनय कर रहा था…
तभी मुझे मल-मूत्र का वेग उठा…
मैं चाहता तो रोक सकता था… पर भरत भैया ! बालक ही तो था ना… और वह भी वानर बालक ! वहीं कर दिया मल-मूत्र विसर्जन ।
ऋषि आये… देखा !
उन्हें दुःख हुआ… मेरा हाथ पकड़ कर मेरी माँ अंजनी के पास ले गए… मैं चाहता तो हाथ छुड़ाकर भाग जाता… या उनके हाथ ही न आता… पर मुझे भी उस दिन लगा… कि मुझ से कोई बहुत बड़ा अपराध बन गया है… मैं अपराधी तो था ही… एक ऋषि का अपराध कर दिया था… सिर झुकाये मैं उनके पीछे-पीछे चलता रहा ।
देवी अंजनी ! इसे सम्भालो ! बताओ… इसे क्या दण्ड दूँ मैं आज ।
गम्भीर स्वर में बोले थे वो ऋषि…।
क्या किया है मेरे इस लाल ने… हे ऋषि !
मेरी माँ के प्रश्न पर… मेरी सारी करतूत खोल कर रख दी… ऋषि ने… कि कैसे मैने उनके पवित्र स्थल को अपवित्र कर दिया था ।
मेरी माँ अंजनी ! हाथ जोड़कर उन ऋषि के सामने खड़ी थीं…
आप ऐसी कृपा करें… ये बालक चंचलता छोड़कर कुछ शास्त्र अध्ययन में लग जाए… ये कहते हुए रो रही थी मेरी माँ ।
देवी अंजनी ! इसे अपने बल का… वेग का… अभिमान है…!
असीम शक्ति, असीम पराक्रम के वेग ने इस बालक को उद्दण्ड बना दिया है… पर आज इसका उपाय हम करेंगे ! ऋषि ने कहा ।
आप इसके असीम शक्ति और असीम पराक्रम का उपाय करेंगे ?
काँप गयी थीं मेरी माँ अंजनी…
आप डरिये मत… आपका ये बालक समस्त त्रिभुवन का रक्षक है… सबका आराध्य होगा ये… देवी अंजनी ! इसका अनिष्ट करने का विचार किसी भी सात्विक चित्त में आ ही नही सकता ।
पर ये संयमित रहे… ये करना आवश्यक है ।
फिर कुछ देर तक वो ऋषि सोचते रहे… फिर कमण्डलु से जल लेकर श्राप देते हुए… गम्भीर वाणी में बोले…
तू अपने बल पराक्रम को भूल जा ! …और तब तक भूल जा जब तक कोई तुझे याद न दिलाये ।
इतना कहकर वो ऋषि चले गए…
मैं गिर गया मूर्छित होकर धरती पर…।
कब मेरी मूर्च्छा टूटी मुझे याद नही… पर मैं उस समय अपनी माँ अंजनी की गोद में ही था… मैं शान्त हो गया था…।
वन के जीव-जन्तु उस घटना के बाद मेरे पास में आते थे… मुझे प्यार करते थे… मैं न अब उन्हें भगाता था… न उन्हें परेशान करता था… मैं अपने बल-पराक्रम को भी भूल चुका था ।
हाँ भरत भैया ! मुझे उस समय याद दिलाया… जामवन्त ने ।
सागर के किनारे… तब मुझे स्मरण आया था सब कुछ ।
इतना कहकर शान्त हो गए पवन पुत्र ।
भरत जी देखते रहे थे हनुमान जी का मुखारविन्द ।
हनुमान जी के रोम-रोम से फिर विजय मन्त्र प्रकट होने लगा था ।
श्री राम जय राम जय जय राम !
शेष चर्चा
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर…
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर…