(मैंने रामायण महाकाव्य लिखा था – हनुमान)
बुद्धिमतां वरिष्ठम्…
(गो. श्री तुलसी दास)
आपने रामायण महाकाव्य का भी लेखन किया था ?
भरत जी ने आज पूछ लिया मुझ से…
हाँ भरत भैया ! मैंने लिखा था… क्या करता ? मेरे पास में उन दिनों समय ही समय था… क्यों कि प्रभु श्रीराम के निज कक्ष में मैं जा नही सकता था… वैसे किसी द्वार पाल की हिम्मत नही थी कि मुझे रोक दे… पर माँ मैथिली ने ही मुझे कह दिया था… कार्य हो तभी आया करो पवनपुत्र !
अब कार्य मेरा क्या होगा ? सेवा…
पर मैं एक वानर… क्या जानूँ कि ये मर्यादा नही है… ऐसे ही किसी के निज कक्ष में चले जाना…
तब मैंने विचार किया… कि क्यों न प्रभु की कथा का लेखन किया जाए ।
इस विचार ने मेरे मन में आनन्द की धारा बहा दी थी…
मैं तुरन्त उड़ कर चला जाता था… दक्षिण में सागर किनारे ।
और मेरा लेखन चलता था… पर्वत की बड़ी-बड़ी शिलाओं में…
लेखनी थी… मेरी तर्जनी ऊँगली का नख…
भरत भैया ! सच में बड़ा आनन्द आता था… मैं अपने आपको ही भूल जाता… कभी मेरे अश्रु प्रवाह चलते रहते… तो कभी मैं हँसता…।
कैसी प्रभु की लीला थी ना… एक वानर को उन्होंने कवि बना दिया था… मैं कवि बन गया था…।
ये कहते हुए हनुमान जी हँसे थे ।
आज कल आपकी कथा का लेखन कर रहे हैं हनुमान !
प्रभु ने जब मुझे एक बार अपनी सभा में खोजा तो लक्ष्मण जी ने कहा ।
मैं उसी समय आ गया था प्रभु की सभा में… और आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया ही था कि…
क्या आप सच में रामायण काव्य लिख रहे हैं ?
भरत भैया ! ये प्रश्न मुझ से किया था आदिकवि वाल्मीकि ने ।
वो आज वहाँ उपस्थित थे ।
मैं क्या लिखूंगा !… मुझे कहाँ ये सब लेखन आता है… बस कुछ उकेर रहा हूँ… और वो भी प्रभु की कृपा से… मैंने इतना ही कहा ।
क्या मैं देख सकता हूँ… कि कैसा काव्य लिखा है आपने ?
आदि कवि वाल्मीकि ने फिर मुझ से पूछा ।
मैंने आदिकवि से कहा… आप भी ना ! मुझ वानर का लिखा हुआ काव्य भला क्या होगा !
मैंने इतना कहा… और प्रभु के चरणों में बैठ गया ।
नही नही… मुझे देखना है आपके द्वारा लिखा हुआ काव्य !
आदि कवि जिद्द पकड़ कर बैठ गए थे आज ।
दिखा दो ना पवनपुत्र ! ऋषि वाल्मीकि को अपना काव्य !
प्रभु की आज्ञा भला मैंने आज तक टाली है ।
पर आपको दक्षिण चलना होगा… सागर किनारे ।
पर आप चिन्ता न करें एक घड़ी में ही मैं आपको ले जाऊँगा…
मैंने उन्हें अपने कन्धे पर बिठाया और लेकर चल दिया ।
ये देखिये आदिकवि !
मैंने कुछ भी लिख दिया है… मुझ वानर को क्या आता है लिखना !
मैंने ये कहते हुए उन शिलाओं को दिखाया आदिकवि वाल्मीकि को… जिनमें मैंने रामायण काव्य लिखा था ।
वो देखते रहे… पढ़ते रहे…
पर ये क्या ! वो एकाएक रोने लगे थे… मुझे तो पहले लगा कि शायद भाव में रो रहे हैं… पर जब मैंने उनके रुदन को देखा… तो मुझे भाव नही लगा… ।
मैंने उनके चरणों का स्पर्श किया… और कहा… आप क्यों रो रहे हैं क्या इनमें कुछ गलत लिख दिया है मैंने ?
नही पवनपुत्र ! ये बात नही है… बात ये है कि एक रामायण महाकाव्य मैं भी लिख रहा हूँ… लिख क्या रहा हूँ… लिख चुका हूँ ।
पर तुम्हारे इस महाकाव्य के आगे मेरा काव्य तो कुछ नही है ।
हे पवनपुत्र ! मैंने सोचा था कि मेरा काव्य जगत में सर्वश्रेष्ठ होगा… मेरे काव्य के आगे किसी का काव्य टिक नही पायेगा ।
पर तुम्हारे सामने !
भरत भैया ! ऋषि वाल्मीकि फिर रुदन करने लगे थे एक बालक की तरह…।
आप ऐसा न कहें… आप मेरे श्रद्धेय हैं… आप आज्ञा करें मैं क्या करूँ ?
बिना समय गवांये… वो बोल दिए… इन शिलाओं को सागर में डाल दो… और सागर के तल में डालो ताकि देवों के हाथों में भी न पड़े ।
मुझे कहाँ प्रतिष्ठा चाहिये थी… मैं तुरन्त उठा और शिलाओं को एक के ऊपर एक रख कर… सागर में डाल आया ।
हे आदि कवि ! अब तो आप प्रसन्न होइये ।
मैंने हाथ जोड़कर कहा ।
तब तो उनका रुदन रुकने की जगह और बढ़ गया…
ओह ! आप कितने महान हैं पवनपुत्र ! पर मैं ?
रामायण जैसे महाकाव्य का लेखक आज ईर्ष्या से ग्रस्त हो गया ।
ये क्या हुआ मुझे ? दूसरों को उपदेश देने वाला ऋषि वाल्मीकि आज स्वयं ईष्यालु हो चला । आदि कवि को आत्मग्लानि हो गयी थी ।
नही ! हे आदि कवि ! आपने जो किया वो ठीक ही किया है ।
रामायण को मैं इस शिला में ऐसे ही रख देता… तो कोई पक्षी विष्ठा कर देता… कोई अपने पग रख देता… मेरे आराध्य के चरित्र में अगर किसी के पग पड़ जाते तो ये अपराध ही तो होता ना !
आपने तो मुझे पाप से बचाया है…
पर भरत भैया ! आदि कवि का रुदन रुका ही नही…
उन्हें अपराध बोध हो चला था…।
मैंने उन्हें बहुत समझाया… कि मेरे प्रभु की प्रेरणा से ही सब हो रहा है… मेरा लिखना भी प्रभु की प्रेरणा थी… और उन सबको सागर के तल में डाल देना… ये भी प्रभु की प्रेरणा ही है ।
कृपा करें आप इस तरह का अपराध बोध न पालें…
ये कहते हुए मैंने उनके चरणो में प्रणाम किया…
फिर उन्हें अपने हृदय से लगाया… तब जाकर वो कुछ शान्त हुए थे ।
ये सुनते हुए भरत जी उठे… उनके नेत्रों से अश्रु निरन्तर बह रहे थे… हनुमान जी ! आप महान हैं… आपने सच में अपने “हनुमान” नाम को सार्थक किया है ( जिसने अपने मान को मारा… उसी का नाम है हनुमान )… आपने सब कुछ श्रीराम के चरणों के चढ़ा दिया है… आपकी जय हो… आपकी जय हो… ये कहते हुए भरत भैया ने मुझे अपने हृदय से लगा लिया था ।
हम दोनों के ही नेत्रों से अब अश्रु प्रवाहित हो रहे थे…
शेष चर्चा कल…
जय जय जय हनुमान गुसाईं…
Harisharan