भाग-1 हनुमान जी की आत्मकथा

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अतुलित बल धामं हेम शैलावदेहम्…
(श्री रामचरितमानस)

रास्ते भर हनुमान जी को ही कहता रहा… उन्हें उनके श्री सीता राम जी की कसम देता रहा… बजरंग बाण का पाठ करता रहा ।

हनुमान जी तो कृष्णावतार में भी साथ में रहे हैं… अर्जुन के रथ की ध्वजा में हनुमान जी ही तो थे… कपि ध्वज !

ये स्वयं श्री हनुमान जी ही कह रहे हैं… अपनी आत्मकथा…

अपने चरित्र को वही गा रहे हैं


मुझे असीम वात्सल्य देने वालीं मेरी माँ मैथिली… और मेरे प्राण सर्वस्व मेरे परम आराध्य श्री राघवेंद्र सरकार…

कुछ ही महिने तो बीते हैं जब मेरे प्रभु श्री राम अयोध्या की गद्दी पर विराजे ।

राम राज्य आ गया है यहाँ अयोध्या में …

सबको वापस भेज दिया श्री रघुनाथ जी ने… अंगद, जामवन्त, सुग्रीव, नल नील और लंका के लंकेश विभीषण ।

मुझे हँसी आती है… मुझे भी कह रहे थे मेरे प्रभु…

हे पवन सुत ! आप भी जाओ…

मैं हँसा… फिर थोड़े ही देर में मेरे नयनों से अश्रु बहने लगे थे !

चरण पकड़ लिए मैंने… और कहा- कहाँ जाऊँ ?

इससे ज्यादा मैं बोल न सका था ।

हाँ… मेरी माँ मैथिली ने मुझे बड़े स्नेह से कहा… यहीं रहो !

प्रभु ! माँ… माँ ही होती है… माँ के समान तो पिता भी नही होते ।

आप भगाना चाह रहे थे… पर माँ मुझे नही जाने देंगी… है ना माँ !

जगत जननी माँ मैथिली के कोमल कर मेरे सिर पर वात्सल्य की वर्षा कर रहे थे… मैं हनुमान ! धन्य हो गया था उस दिन !


सब ने मिल जुल कर राज्य का भार ले लिया… प्रभु श्री राम ने सबको कार्य सौंप दिया था… लक्ष्मण, शत्रुघ्न, इन दोनों ने ही सब सम्भाला था… बस रह गए थे भरत भैया !

पता नही क्यों ? मुझे इन्हें “भैया” कहने में आंनद आता है…

वैसे मैं इन्हें प्रभु से किंचित् भी कम नही मानता… पर इन्हीं ने मेरी आदत बिगाड़ दी… मुझे टोक-टोक कर …”प्रभु” नहीं… “भैया” कहो…।

अब मेरी जीव्हा पर भरत “भैया” ही नाम आता है…।

अच्छा ! मैं बताता हूँ… हम दोनों को प्रभु श्री राम ने कोई कार्य भार नही दिया… वैसे सेवा के लिये सदैव तैयार हैं हम दोनों ।

सेवा भी अब क्या ?

माता मैथिली हर समय साथ ही हैं प्रभु श्री राघवेंद्र के… अब जाओ महल में तो लड्डू ही खिलाती हैं… माता…।

सेवा कहाँ करने देती हैं…।

स्वयं करती हैं सेवा… तो वहाँ से भी मैं चल देता हूँ ।

हाँ… इन्तजार रहता है… साँझ का… अवध के साँझ का ।

क्यों कि साँझ के समय… रघुकुल के उद्यान में भरत भैया आते हैं ।

मैं तो साष्टांग प्रणाम करता हूँ… उन्हें… जमीन पर लेट ही जाता हूँ ।

पर भरत भैया बहुत संकोची हैं… बड़े प्रेम से उठाते हैं मुझे और अपने हृदय से लगा लेते हैं… आहा ! कितना शीतल हो जाता है मेरा हृदय…।

हम लोग श्री राम कथा सुनते हैं… उस दिव्य उद्यान में बैठ कर ।

वक्ता तो मैं ही होता हूँ… और श्रोता मेरे भरत भैया !

वो रोते रहते हैं राम कथा सुनकर… और मैं सुनाते हुए रोता हूँ ।

क्या आनन्द आता है… अवर्णनीय है वो रस तो।


हनुमान जी ! आज अपने बारे में कुछ बताओ !

क्या ? मैं चौंक गया… भरत भैया ! आप ये क्या कह रहे हैं ?

“कथा” सुननी चाहिये… “व्यथा” नही… कथा तो प्रभु श्री राम की है… हम लोगों की तो व्यथा ही है… व्यथा क्या सुनना ?

पर मेरे कहने से भरत भैया कहाँ मानने वाले थे…

आज जिद्द ही कर बैठे… नहीं… भक्त की भी कथा होती है…

और तुम भक्त ही नही… भक्त शिरोमणि हो ।

मैं हँसा… सुबह कोई मेरा नाम ले तो आहार नही मिलता… मैं बन्दर… भैया ! बन्दर की आत्मकथा सुनोगे ?

भरत भैया हँसे… पवन नन्दन ! आपकी पूँछ क्यों है ?

और पूँछ के साथ साथ ये घनी रोमावलीयाँ क्यों हैं ?

मैंने उत्तर दिया – भरत भैया ! मैं बन्दर हूँ… कपि हूँ… इसलिए मेरे पूँछ है !

हँसे थे भरत भैया भी… ना ! आप बन्दर नही हो… बन्दर नीचे धोती की काँछ थोड़े ही बाँधता है ?

वस्त्र और जनेऊ थोड़े ही धारण करता है… आप तो वेद वेदान्त सबके ज्ञाता हैं… हम सबकी तरह आप सन्ध्या नित्यकर्म सब करते हैं… फिर ये सब और बन्दर तो करते नहीं है ?

अब मुझे संकोच हो रहा था… भरत भैया सब जानते हुए भी…

पर अब मुझे बोलना ही था… जब सुनना चाहते हैं मेरे बारे में भरत भैया ! तो मैं सुनाऊंगा… अपनी आत्मकथा सुनाऊंगा ।

फिर हँसी आती है… इसमें मेरा क्या है ? इसमें भी तो प्रभु श्री राम का ही गुणगान है ।

भरत भैया ! हम लोग उपदेवता हैं ।

उपदेवता देवता से थोड़े निम्न होते हैं… उपदेवताओं में अनेक जातियां होती हैं… वानर, रीछ, नाग, किन्नर यक्ष…

इनमें से जिसकी मुखाकृति पृथ्वी के पशुओं से मिलती है… उसे उसी पशु के नाम से पुकारा जाता है… पर ये पशु नही हैं…

भरत भैया ! जैसे- जामवन्त जी की आकृति कुछ-कुछ पृथ्वी के भालुओं से मिलती थी… तो उन्हें उसी तरह पुकारा गया ।

मेरी आकृति कुछ-कुछ पृथ्वी के बन्दरों से मिलती है…।

और हाँ… भरत भैया ! ये आकृतियाँ उपदेव जातियों के पुरुषों में ही पाई जाती हैं… बाकी स्त्रियां तो मानव स्त्री के समान ही सुंदर होती हैं ।

भरत भैया बड़े प्रसन्न होकर मेरी आत्मकथा सुन रहे थे ।

उनको प्रसन्न जानकर मैं भी उत्साह से सुना रहा था…

हम लोग अन्य रूप भी धारण कर सकते हैं… कैसा भी रूप… सुंदर से सुंदर रूप…

फिर आप मानव रूप में ही क्यों नही रहते सदैव ?

ये प्रश्न जैसे ही सुना मैंने… मैंने भरत भैया के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया… और हाथ जोड़कर कहा… आपकी सेवा के लिये ।

स्वामी का जो रूप हो… वही सेवक का हो, शोभा कहाँ देगा ।

मैं बन्दर रूप में ही रहूंगा… तो पवित्र अपवित्र का दोष भी नही लगेगा मुझे ।

और मुझे ये सब रुचता भी नही है… भरत भैया ! मेरे लिए तो सेवा मुख्य है… ये आचार विचार… नही ।

पर मानव देह में तो ये आवश्यक है… पर मेरे इस बन्दर देह में नही ।

इसलिए मैंने इस वानर देह को ही धारण किया है… सेवा के लिए ।

आज तो मैं इतना ही बोला… फिर श्री राम जय राम जय जय राम !

इतना कहकर… मैं चुप हो गया ।

भरत भैया भी मौन होकर “राजीव नयन” के ध्यान में बैठ गए थे…

फिर चलते हुए बोले… पवन नन्दन ! अब आगे… जन्म से लेकर अभी तक की सारी घटना मुझे सुनाना… इतना कहते हुये मेरे हाथ जोड़ लिए थे… भरत भैया ने ।

नहीं ! भैया !… मैंने उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया था ।

शेष चर्चा कल…

जय जय जय हनुमान गोसाईं
कृपा करहुँ गुरुदेव की नाईं ।

Harisharan

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