शंकर सुवन केसरी नन्दन…
(हनुमान चालीसा)
आपके जन्म के बारे में लोग कई बातें कहते हैं… कोई कहता है आपको अंजनी नन्दन… कोई पवनपुत्र… कोई केसरी नन्दन…
और तो और हे हनुमान जी ! लोग तो आपको रुद्रावतार भी कहते हैं ।
साँझ के समय अवध के रघुकुल उद्यान में… भरत जी और हनुमान जी नित्य की तरह आज फिर मिले थे ।
पर ये क्या आज मात्र भरत जी ही नही आये थे… सुमन्त्र जी भी थे और उनके पुत्र भी… भगवान राघवेंद्र के बाल सखा भी थे…
और स्वयं हनुमान जी अपनी आत्मकथा सुना रहे हैं… ये सुनकर आज ये सब लोग आ गये थे ।
उत्सुकता बढ़ रही थी… भरत जी ने बिना इधर-उधर की बातें कहे… सीधे पूछ लिया… हे हनुमान जी ! आप अपने जन्म के बारे में कुछ कहें !
प्रणाम किया हनुमान जी ने सबको… साष्टांग प्रणाम किया था अपने भरत भैया को ।
फिर सुनाने लगे… अपनी आत्मकथा… हनुमान जी महाराज ।
भरत भैया ! मैं ही हूँ एकादश रुद्रावतार !
ये कहते हुए हनुमान जी का मुखमण्डल अत्यंत तेजयुक्त हो गया था ।
सृष्टि के प्रारम्भ में… एक ऋषि हुए जिनका नाम था “शिलाद” ।
शिव के परमभक्त थे… शिव के ही ध्यान में परमतल्लीन रहते थे ।
हाँ गृहस्थ थे… पर सन्तान उत्पत्ति की ओर इनका ध्यान ही नही गया था ।
एक दिन इनकी पत्नी ने ही इनसे कहा… प्रभु ! सन्तान के बिना गृहस्थ का सुख ही क्या है ?
महर्षि शिलाद का ध्यान इस तरफ कभी गया ही नही…
ये तो सोच कर बैठ गए थे… कि चलो रूद्र उपासना में जो-जो आवश्यकता होती है… पत्नी उसे पूरा कर देती है… जैसे जल इत्यादि रखना… आसन… प्रसाद… और कुटिया की साफ-सफाई… अतिथि की सेवा ।
पर इन भोले ऋषि शिलाद को क्या पता था कि गृहस्थ में ये भी आवश्यक है… सन्तान !
पत्नी ने समझाया… आपको आवश्यकता नही है सन्तान की… पर ऊपर पितृ लोग तो प्रतीक्षा में होंगे ही ना ?
ओह ! बात सही है… शिलाद ने विचार किया…
क्या यही समय उचित है सन्तान की प्राप्ति का…?
नही… इस तरह तो पशु भी सन्तान उत्पत्ति करते हैं…
पर मुझे पुत्र ऐसा वैसा नही चाहिए… महावीर पुत्र चाहिए ।
लग गए थे शिव की आराधना में…।
भोले भाले थे ऋषि शिलाद… और इष्ट भी तो भोला बाबा ही थे ।
हो गए प्रसन्न… कह दिया… माँगो वर हे ऋषि !
चरणों में शीश झुकाते हुए मुँह से निकल गया ऋषि के…
आप के जैसा पुत्र चाहिये !
महादेव हँसे… मेरे जैसा ? अब महर्षि ! मेरे जैसा तो मैं ही हूँ ।
तो स्वयं ही शिलाद की पत्नी के कुक्षि में प्रवेश कर गए महारूद्र ।
समय बीतने पर एक बालक ने जन्म लिया…
भरत भैया ! वो बालक मैं था ।
हनुमान जी ने कहा ।
मेरे पिता ने मेरा नाम रखा… नन्दी !
पर मैं जैसे-जैसे बड़ा होता गया… मैंने भी अपने अंशी महारुद्र की आराधना शुरू कर दी थी।
बहुत प्रसन्न हुए महादेव मुझ पर… और उन्होंने मुझे नाम दिया नन्दीश्वर ।
मैं कैलाश पर ही रहता था… समस्त महादेव के गणों का मैं मुखिया था… पर एक दिन…
एक दिन क्या ? सुमन्त्र जी ने पूछा ।
हनुमान जी ने कहा… साकेतधाम से भगवान श्री राघवेन्द्र सरकार पृथ्वी पर अवतरित हो रहे हैं… मैंने सुना ।
क्यों कि उस समय सभी देवी देवता इस अवतार में सम्मिलित होने के लिये पृथ्वी पर आ रहे थे ।
फिर रूद्र ही क्यों बचें ? उन्हें भी इस अवतार में सम्मिलित होना ही चाहिये ।
मुझे आज्ञा मिली महारुद्र की… जाओ !
और जाकर इस रामावतार में अपनी भूमिका से परब्रह्म श्रीराघवेन्द्र का रंजन करो…।
तो मैं आ गया… मैंने जन्म लिया माँ अंजनी की कोख से…
माँ अंजनी वानर राज केसरी की पत्नी थीं… और मेरे पिता केसरी अत्यंत बलशाली थे… हनुमान जी बता रहे हैं…
फिर हँसते हुए बोले… ये सारी बातें मुझे मेरी माँ अंजनी ही बताया करती थीं… उन्हें नारद जी ने बताया था ।
मुस्कुराते हुए भरत जी सुन रहे हैं…
थोड़ी देर में बोले भरत जी – क्या रघुकुल से भी तुम्हारा कोई रिश्ता है ?
हनुमान जी हँसे…
आप क्या सुनना चाहते हैं मैं समझ गया भरत भैया !
आँखें बन्द करके बोलने लगे थे हनुमान जी…
चक्रवर्ती सम्राट श्री दशरथ जी के कोई सन्तान नही थी…
गुरुदेव वशिष्ठ जी के कहने पर एक यज्ञ का आयोजन किया था…
भरत भैया ! उस यज्ञ में… श्रृंगी ऋषि को बुलाया गया था… जो आप लोगों के बहनोई भी लगते हैं… आपकी बहन हैं एक शान्ता… उनके ही ये पति हैं ।
भरत जी ने मुस्कुराते हुए… हाँ… में सिर हिलाया ।
बड़े ही प्रेम से… पूर्ण श्रद्धा से आहुति दी थी उस यज्ञ में… चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी ने ।
अग्नि देव प्रकट हुए… और उन्होंने चरु दिया…
महाराज दशरथ जी ने उस चरु को लेकर सूँघा… और अपनी तीनों रानियों में बाँट दिया था ।
श्री कौशल्या जी, श्री सुमित्रा जी और श्री कैकेई जी…
माँ सुमित्रा जी बड़ी भावुक हैं… चरु के हाथ में आते ही उन्हें भाव आ गया… वो भाव में डूब गयीं…।
ओह ! अब मेरे कोख से पुत्र होगा… और ये अत्यंत बलशाली होगा… महावीर होगा… ऐसा विचार करते-करते आँखें बन्द हो गयीं सुमित्रा जी की… भरत भैया ! तभी आकाश मार्ग से एक गिद्धि उड़ती हुयी आई… और सुमित्रा जी के हाथ का चरु लेकर उड़ गयी…।
हनुमान जी अब आगे का प्रसंग बड़े ही रसीले अंदाज में सुना रहे थे ।
अब तो सुमित्रा जी रोने लगीं… उनके नेत्रों से झर-झर आँसू बहने लगे… अब मेरा क्या होगा… मेरे हाथ का चरु तो वो गिद्धि ले गयी… अब मेरे कोई पुत्र नही होगा ।
पर तुरन्त माँ कौशल्या जी ने अपने भाग का आधा चरु सुमित्रा जी को दे दिया… सुमित्रा जी ने उसे खा लिया ।
पर केकैयी माँ ने भी अपने भाग का आधा सुमित्रा जी को दिया था… इसलिए तो सुमित्रा जी के दो पुत्र हुए ।
सुमन्त्र जी और उनके पुत्र… अन्य राज परिवार के कुमारों ने ये प्रसंग सुनकर बड़े ही प्रेम से तालियाँ बजाईं…।
पर हनुमान जी ! आप कहाँ हैं यहाँ ? इस प्रसंग में ?
भरत भैया ने फिर पूछ लिया ।
हाँ… भरत भैया ! सुमित्रा जी के हाथ से चरु लेकर वो गिद्धि आञ्जनेय नामक पर्वत पर गयी…
वहाँ मेरी माँ अंजनी तपस्या कर रही थीं… हनुमान जी ने कहा ।
गिद्धि बोलना चाह रही थी… उस पर्वत पर बैठ कर… तभी गिद्धि के मुख से वो चरु गिर गया…
दिव्य तेज़ युक्त वो चरु जब गिर रहा था… तब पवन देव ने देख लिया… ये कोई साधारण चरु नही है… तो माँ अंजनी के गर्भ में उसे पहुंचाने के लिए पवन ने अपनी शक्ति लगाई…
और चरु मेरी माँ अंजनी के मुख में चला गया…
हँसते हुए हनुमान जी बोले- भरत भैया ! मैंने बचपन में पूछा था अपनी माँ से… माँ ! मुख कैसे आपका खुला रहा…?
तो मेरी माँ ने मुझे बताया था… कि समाधि में… और नींद में आदतन मेरा मुख खुला ही रहता है। इसी के चलते मुख से होकर मेरी माँ के गर्भ में वो चरु चला गया… और फिर समय के बाद मेरा जन्म हुआ था… हनुमान जी ने बताया।
सब शान्त होकर सुन रहे हैं…
मेरे पिता केसरी जो वानर राज थे… बहुत बलवान थे… वो पाताल में गए थे… जब आये तब मेरे जन्म का समय हो रहा था ।
वो नाचे थे… मेरे पिता, नाग लोग से जितनी बहुमूल्य मणियाँ लाये थे… उन सबको लुटा दिया था ।
और जब मेरा जन्म हुआ… तब तो… मेरी माँ कहती है… पवन देव भी झूम उठे थे… मोतियाँ मुक्ता माल… न जाने कहाँ-कहाँ से उड़ा लाये थे… और आञ्जनेय पर्वत पर लाकर रख दिया था…।
भगवान रूद्र स्वयं आये थे मेरे जन्म होने पर… विधाता आये थे…
भगवान नारायण आये थे… पर मेरा ध्यान तो बस अपने राघवेन्द्र सरकार के चरणों में ही था… मेरे मुँह से “राम” यही शब्द निकल रहा था… मेरी माँ कहती हैं ।
भरत जी उठे… और बोले- जिस चरु से हमारा जन्म हुआ… उसी चरु से हनुमान जी आपका भी जन्म हुआ है… फिर तो हम भाई-भाई ही हुए ना ? ये कहते हुए अपने गले से लगा लिया था मुझे भरत भैया ने ।
ना ! मैं तो दास ही हूँ… मुझे तो दास बनने में ही सुख मिलता है… मुझे गर्व है… कि मैं प्रभु श्री राघवेन्द्र का दास हूँ ।
अच्छा ! हनुमान जी ! हमने सुना है… आपने सूर्य को फल समझ कर खा लिया था बचपन में ? भरत जी ने पूछा ।
मैं खूब हँसता रहा… हाँ भरत भैया !
शेष चर्चा कल…
पवन तनय बल पवन समाना…
बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना ।