शरतपूर्णिमा भगवान् श्रीकृष्ण और गोपियाँ

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श्री हरि:
शरतपूर्णिमा की चाँदनी रात में जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी बाँसुरी बजानी आरम्भ की, तब उसकी मधुर एवं चिताकर्षक ध्वनि को सुनकर गोपियाँ जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में श्रीकृष्ण से मिलने के लिये वेगपूर्वक चल पड़ीं | यह प्रेम की ऐसी विलक्षण स्थिति थी कि स्वयं गोपियों को ही पता नहीं था कि हम कौन हैं ! कहाँ जा रही हैं ! क्यों जा रही हैं ! भगवान् का सब कुछ दिव्य है, अलौकिक है, चिन्मय है ! अत: उनकी बाँसुरी भी दिव्य थी और उसकी ध्वनि भी | उस दिव्य ध्वनि को सुनने पर गोपियों में भी जड़ता नहीं रही और वे चिन्मय होकर चिन्मय से मिलने के लिये चल पड़ीं !
‘काम’ (लौकिक श्रृंगार) – में स्त्री और पुरुष दोनों ही एक – दूसरे से सुख लेना चाहते हैं, एक-दूसरे को अपनी और आकर्षित करना चाहते हैं | इसलिये उनमे विशेष सावधानी रहती है और वे अपने शरीर को सजाते हैं | परन्तु ‘प्रेम’ में सुख लेने का, अपनी और खींचने का किंचिन्मात्र भी भाव न होने से यह सावधानी नहीं रहती, प्रत्युत अपने शरीर की भी विस्मृति हो जाती है, इसलिये गोपियाँ अपने को सजाना, श्रृंगार करना भूल गयीं और वंशी ध्वनि सुनते ही वे जैसी थीं, वैसी ही अस्त-व्यस्त वस्त्रों के साथ चल पड़ीं। यह प्रेम हैं


उस समय कुछ गोपियों को उनके पति, पुत्र आदि ने अथवा पिता, भाई आदि ने घर में ही बन्द कर दिया, जिससे उनको घर से निकलने का मार्ग नहीं मिला | मार्ग न मिलने पर उन गोपियों की क्या दशा हुई – इस विषय में श्रीशुकदेवजी महाराज कहते हैं –
‘उन गोपियों के ह्रदय में अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण के असह्य विरह का जो तीव्र ताप हुआ, उससे उनका अशुभ जल गया और ध्यान में आये हुए श्रीकृष्ण का आलिंगन करने से जो सुख हुआ, उससे उनका मंगल नष्ट हो
‘यद्यपि उन गोपियों की श्रीकृष्ण में जारबुध्दि थी, फिर भी एकमात्र परमात्मा (श्रीकृष्ण)-के साथ सम्बन्ध होने से उनके सम्पूर्ण बन्धन तत्काल एवं सर्वथा नष्ट हो गये और उन्होंने अपने गुणमय शरीर का त्याग कर दिया |
अगर उपर्युक्त श्लोकों पर विचार करते हुए ऐसा मानें कि भगवान् के विरह की तीव्र जलन से गोपियों के पाप नष्ट हो गये – ‘धुताशुभा:’ तथा ध्यानजनित सुख से पुण्य नष्ट हो गये – ‘क्षीणमंगला:’ और इस प्रकार पाप-पुण्य से रहित (मुक्त) होकर वे भगवान् से जा मिलीं तो यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती | कारण कि विरह और मिलन पाप-पुण्य से ऊँचा उठने पर ही होते हैं | पाप-पुण्य से होने वाले सुख-दुःख तो प्राकृत हैं, पर भगवान् को लेकर होने वाले सुख-दुःख (मिलन-विरह) प्राकृत नहीं हैं, प्रत्युत अलौकिक हैं | भगवान् का विरह और मिलन तो गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर होता है, पर पाप और पुण्य गुणों के सम्बन्ध से होते हैं | गुणों से सम्बन्ध न हो तो पाप-पुण्य हो सकते ही नहीं | भगवान् के प्रेम में होने वाले सुख-दुःख को अर्थात मिलन-विरह को पाप-पुण्य का फल कहना वास्तव में उनकी निन्दा है | भगवान् के सम्बन्ध से योग होता है, भोग नहीं होता | भोग तो पापों का कारण है



Mr. Hari: When Lord Krishna started playing his flute on the moonlit night of Saratpurnima, hearing its sweet and enthralling sound, the gopis, in the same state as they were, hurried to meet Sri Krishna. It was such a wonderful state of love that even the gopis themselves did not know who we were! Where are you going! Why are you leaving? Everything of the Lord is transcendental, supernatural, chinmaya! Therefore his flute was also divine and so was its sound. On hearing that divine sound, even the gopis did not have any inertia and they went to meet Chinmaya in a mindful way. In ‘Kama’ (cosmic makeup) – both men and women want to take pleasure from each other, want to attract each other to themselves. That’s why they have special care and they decorate their body. But because of not having the slightest sense of taking pleasure in ‘love’, not having the slightest sense of pulling oneself and oneself, this care is not taken, instead of forgetting even their own body, so the gopis forgot to adorn themselves, adorn themselves and as soon as they heard the sound of Vanshi, they She walked with her messy clothes as she was. it’s love ,

At that time some gopis were locked up by their husband, son etc. or by their father, brother etc. in the house itself, so that they could not find a way out of the house. What happened to those gopis when they did not get the way – Shri Shukdevji Maharaj says in this regard – The intense heat in the hearts of those gopis due to the unbearable separation of their dearest beloved Shri Krishna caused their inauspicious burns, and the happiness that came from embracing Shri Krishna, who had come in meditation, destroyed their Mars. ‘Though those gopis had an intellect in Sri Krishna, yet because of their relationship with the only Supreme Soul (Shri Krishna), their entire bondage was immediately and completely destroyed and they renounced their virtuous body. If considering the above verses it is believed that the sins of the gopis were destroyed by the intense burning of separation from the Lord – ‘Dhutashubah’ and the virtues were destroyed by the pleasure of meditation – ‘Ksinamangalah’ and thus devoid of sin-virtue ( After being liberated, she joined the Lord, then this thing does not seem reasonable. Because separation and union take place only after rising above sin and virtue. Pleasures and sorrows arising out of sins and virtues are Prakrit, but the pleasures and sorrows (Milan-Virah) related to the Lord are not Prakrit, but supernatural. The separation and union of the Lord takes place when there is separation from the qualities, but sin and virtue take place through the relationship of the qualities. If there is no relationship with virtues, then there can be no sin and virtue. To call happiness and sorrow in the love of the Lord, that is, union and separation, as the result of sin and virtue, is actually a blasphemy. There is yoga in relation to God, but there is no enjoyment. indulgence is the cause of sins

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