सखियों के श्री कृष्ण रस बिहारी जी

निकुञ्ज में बैठी सखियाँ परस्पर श्रीकृष्ण की चर्चा करती हुई हार गूंथ रही थीं। इतने में ही उधर से एक महात्मा आ निकले। महात्मा से सखियों ने पूछा-स्वामीजी ! हमारे श्रीकृष्ण कहीं छिप गये हैं, हम वन में उन्हें ढूँढ़ रही हैं। आप महात्मा हैं, उन्हें कहीं देखा हो तो बतलाइये, वे कहाँ हैं ?
महात्मा— तुम भगवान् श्रीकृष्ण की बात पूछती हो ?
सखियाँ-हाँ, हम अपने प्यारे भगवान् श्रीकृष्ण की बात पूछती हैं।
महात्मा–अरी ! तुम बड़ी पगली हो। क्या भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार निकुञ्ज में बैठकर फूल गुँथने से मिलते हैं ? यदि भगवान् को पाना चाहती हो तो इस नखशिख श्रृंगार का त्याग करके तपस्विनी बनो। वेणी बाँधना छोड़ो, पहले व्रत-उपवास तप और ध्यान में लगी रहकर उनकी आराधना करो।
सखियाँ- (डरकर) ‘स्वामीजी ! हम वेणी बाँधने के लिये फूल गूंथ रही हैं। वेणी न बाँचेंगी तो हमारे रसिक शेखर को बड़ा दु:ख होगा। उनका स्वभाव हम जानती हैं। हम उपवास करके शरीर सुखाने लगेंगी तो वे कभी प्रसन्न न होंगे। सिर के केश मुड़वा लेंगी तो आँसुओं की धारा से धोये हुए प्रियतम के अरुण चरणकमलों को फिर किस चीज से पोछेंगी। हम योग-याग करके उन्हें क्यों भुलाने जायँ ? वे तो पराये नहीं हैं। वे हमारे स्वामी हैं। तब हम उनकी सेवा ही क्यों न करें ? साधू बाबा ! यह तो बताओ, तुम्हारे वे कृष्ण कौन हैं और उनसे तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?’
महात्मा- अरी ! तुम भी बड़ी बावली हो। श्रीकृष्ण भी क्या दो-चार हैं। वे भगवान् एक ही सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर और सर्वनियन्ता हैं, वे राजराजेश्वर हैं, न्यायकर्ता हैं; वरदाता हैं और दण्डधारी हैं। उनके प्रसन्न होने पर सम्पत्ति, रूठने पर विपत्ति मिलती है। हम न मालूम कितना कष्ट उठाते हैं तब भी उन्हें प्रसन्न नहीं कर पाते। डरते हैं, कहीं उनका कोई नियम भङ्ग न हो जाय।
सखियाँ- (प्रसन्न होकर) बड़ी विपदा टली। आपके श्रीकृष्ण दूसरे हैं।
महात्मा- अच्छा बतलाओ, तुम लोगों के श्रीकृष्ण कैसे हैं ?
सखियाँ- साधू बाबा ! वे चाहे कोई हों, हमारे प्राणनाथ नहीं हैं। हमारे श्रीकृष्ण तो श्यामसुन्दर हैं। वे हमारे प्रियतम हैं, हमारे स्वामी हैं। जब हम उन्हीं की प्रेयसियाँ हैं तब वे हमें दण्ड क्यों देंगे ? कुपथ्य-सेवन से रोग हो जाने पर यदि हमारे स्वामी कोई कड़वी दवा खिलावें तो क्या इसे दण्ड कहते हैं ? क्या स्नेह का नाम ही दण्ड है ? यह तो प्राणनाथ का परम प्रसाद है। तुम लोग पुरुष हो, राजसभा में जा सकते हो, राजा को कर देते हो, हम पर यदि कोई कर लगता होगा तो उसे प्राणनाथ आप ही भर देंगे। हमें दण्ड और पुरस्कार से क्या मतलब! हम तो तुम्हारे उस राजेश्वर कृष्ण को देखकर डर जायँगी। हमारे श्रीकृष्ण राजा नहीं हैं, वे तो रसिक शेखर हैं। हमने अपने देह, मन, प्राण सब उन्हीं के चरणों में सौंप दिये हैं। हमारे प्राणनाथ तो इस निकुञ्जभवन में ही कहीं छिपे हैं। वे कहीं जाते नहीं, हमसे यों ही खेल किया करते हैं। तुमने कहीं देखा है तो कृपा करके बतलाओ।।
सखियोंकी प्रेम भरी सरल बातें सुनकर महात्मा का हृदय द्रवित हो गया, उनकी आँखों में प्रेमाश्रु भर आये। उन्होंने कहा-‘अच्छा, तुम अपने श्रीकृष्ण के स्वरूप का तो कुछ वर्णन करो।’
स्वरूपकी याद दिलाते ही सखियों के हृदय आनन्द से भर गये, उनके मुखकमल खिल उठे और भगवान् के स्वरूप का वर्णन करते-करते प्रेमातिशयता के कारण देह की सुधि-बुधि भूलकर वे नाच उठीं। उनके प्रेम से प्रभावित होकर महात्माजी भी अपने-आपको न रोक सके और श्रीकृष्ण के नाम का कीर्तन करके नाचने लगे।
ऐसे प्रेमी भक्त अपने भगवान् को जहाँ रखना चाहते हैं, वहीं उन्हें रहना पड़ता है। इसलिये भक्तों का यह कहना कि भगवान् वृन्दावन को छोड़कर एक पग भी कहीं नहीं जाते, सर्वथा सत्य ही है।

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