मीरा चरित *भाग- 16*

राठौड़ वीर दूदाजी सचमुच बहुत भाग्यशाली थे। यौवनकालमें वे उद्भट योद्धा थे, अन्तः सलिला भक्ति-भागीरथी अब वार्धक्यमें जैसे कूल तोड़कर प्रवाहित हो रही थी। भाग्य और भगवान् दोनों ही उन्हें सानुकूल थे, तभी तो उच्चकोटि के संत महानुभावोंका घर बैठे उन्हें संग और सेवाका बारम्बार अवसर प्राप्त होता। इसपर मानो इतना ही सौभाग्य पर्याप्त न मानकर प्रभुने उन्हें मीरा जैसी भक्तिमती पौत्री एवं जयमल जैसा प्रचण्ड वीर और परम भक्त पौत्र प्रदान किया, जिन्होंने बाबोसाका नाम भी इतिहास और भक्त-जगत में चिरस्मरणीय बना दिया।

प्रथम दिनके विश्रामके अनन्तर दूसरे दिन प्रातः दूदाजी मीराको लेकर श्रीनिवृत्तिनाथजीके कक्षमें गये। देखा कि महात्माकी झोली और आसन पड़े हैं, किन्तु वे स्वयं नहीं हैं। प्रहरीसे पूछनेपर ज्ञात हुआ कि वे नगरसे बाहर कदाचित् दूदासरकी ओर पधारे हैं। शीघ्र ही पहुँचनेकी दृष्टिसे वे मीराके साथ अश्वासीन हुए। वल्गा और एड़ीका संकेत पाते ही स्वामीभक्त अश्व नगर द्वारकी ओर दौड़ चला। जब दूदासर पर दृष्टि पड़ी तो उन्होंने उतरकर अश्वको वृक्षसे बाँध दिया। मीराका हाथ थाम वे दूदासरके निकट पहुँचे। प्रात:कालका सुगंधित शीतल समीर मंद गतिसे प्रवाहित हो रहा था। दूर क्षितिजपर उदित भूमि-तिलकने अपनी प्रभासे सरोवरके जलपर मानो पारदर्शी स्वर्ण पट फैला दिया हो। वृक्षोंपर लदे पक्षी उनके स्वागतमें स्तुति-गान कर रहे थे। कहीं पास ही गायों और बछड़ोंके रँभानेके स्वर सुनाई दे रहे थे। प्रकृतिका यह स्वच्छ शांत स्वरूप सहज ही अंतर्मुख होनेको बाध्य-सा करने लगता था। सरोवरके पश्चिम तटपर अवस्थित अश्वत्थके नीचे बनी वेदीपर महात्मा ध्यानस्थ आसीन थे दूदाजीने पौत्रीके साथ थोड़ी दूरसे उन्हें प्रणाम किया और ऐसे स्थानपर बैठे कि आँख खुलनेपर वे सहज ही दिखायी दे जायँ। दूदाजी जप करने लगे और मीरा ध्यानसे महात्माकी ध्यान-मग्न प्रशान्त मुखमुद्रा देखने लगी।

‘अहा! कैसी शांत अवस्था है इनकी! संसारकी सारी हलचल और देहके सुख-दुःखसे पूर्णतः निरपेक्ष! कैसा अच्छा हो, यदि चाहते ही ऐसी अवस्था प्राप्त की जा सके। ऐसी अवस्था होनेपर कभी प्रतिकूलता अपने लक्ष्यकी प्राप्तिमें व्याघात न बन सकेगी। महात्माजी चैतन्य हो जायँ और बाबोसा आज्ञा दें तो वह उपाय अवश्य ही पूछूँगी’ -मीराने सोचा।

उसी समय ‘जय सच्चिदानन्द’ कहते हुए महात्माजीने आँखें खोलीं। आसन छोड़कर उन्होंने पाँव वेदीसे नीचे लटका दिये। उनकी चेष्टासे लगा, अभी उन्हें राजमहल पहुँचनेकी कोई शीघ्रता नहीं है। त्वरापूर्वक दूदाजी उठे और उनके चरणोंके समीप मस्तक रखा-‘दूदा राठौड़ प्रणत है प्रभु!’ मीराने भी पीछेसे आकर उनका अनुकरण किया-
‘मीरा मेड़तणी श्रीचरणोंमें प्रणत है भगवन्!’ महात्माने हाथ उठाकर दो बार ‘ऊँ’ का उच्चारण किया। उन्होंने संकेतसे मीराको समीप बुलाया। वह विनयपूर्वक समीप जाकर खड़ी हो गयी और नेत्र उठाकर उनकी ओर देखा। महात्माने उसे एक बार ऊपरसे नीचेतक देखा। उनकी दृष्टि उसके नेत्रोंकी ओर गयी। सरल ज्योतिपूर्ण उन नेत्रोंको देखकर उनकी विचित्र स्थिति हो गयी, मानो अद्वैताचार्यने प्रथम बार निमाईको देखा अथवा जनक ने विश्वामित्रके साथ आये राम को देखा! उनके तपः पूत निर्मल हृदयमें वात्सल्य स्नेह का छोटा-सा स्रोत फूट पड़ा। यद्यपि इन्होंने इससे पहले भी एक बार मीरा को देखा था, उस समय भी उन्हें यह साधारण नहीं लगी थी, फिर भी उनके शांत हृदयमें स्नेहकी कहीं कोई उर्मि नहीं उठी थी। अपने को सँभालकर उन्होंने पूछा।
‘कुछ कहना चाहती हो पुत्री?’

‘हुकम!’ मीराने हाथ जोड़कर विनययुक्त स्वरमें पूछा-
‘अभी आँख बंद करके आप क्या सोच रहे थे?’
‘मैं तो भजन कर रहा था बेटी!’

‘आपके पास तो इकतारा, तानपूरा, करताल या मृदंग कुछ भी नहीं है और न ही मुखसे आप कुछ बोल या गा रहे थे। हमारे यहाँ पहुँचने का भी आपको ज्ञान न हुआ। बिना बोले और बिना वाद्योंके भी भजन क्या किया जा सकता है? आपके ठाकुरजी कहाँ हैं महाराज? आप उन्हें साथ नहीं रखते? मैंने तो सब संतोंके साथ ठाकुरजी देखे हैं। बाबा बिहारीदासजी के भी ठाकुरजी हैं।’

‘मेरे ठाकुरजी मेरे भीतर ही रहते हैं। उन्हें कहीं से लाना अथवा ले जाना नहीं पड़ता।’

‘वह तो आपने बताया था पहले कि अन्तर्यामी रूपसे वह निर्गुण ब्रह्म हैं। क्या आप उन्हींका भजन कर रहे थे?’

‘भजन तो भजन होता है बेटी ! निर्गुण, सगुण किसी का हो, ईश्वरका ही होता है।’

‘ऐसा भजन मुझे भी सिखा देंगे आप? गाकर भजन करना तो थोड़ा थोड़ा आ गया है मुझे।’

‘तनिक गाओ तो बेटी!’

आज्ञा पाकर मीराने भैरवी रागमें पदका गायन आरम्भ किया। लय, रागकी शुद्धता, स्वरकी मधुरता और भावोंकी अभिव्यक्ति ने महात्माको विदेह बना दिया। संगीत शास्त्रके रहस्य-ज्ञाता योगी श्रीनिवृत्तिनाथजी के लिये मीराके गुण, योग्यताको जान लेना कठिन नहीं था। पद पूरा होनेपर उन्होंने दूदाजी से मीरा के विषयमें अनेक प्रश्न पूछे। दूदाजी जितना जानते थे, उत्तर दिया। इस समय तक राजपुरोहित जी, संत श्रीबिहारीदासजी और कई राजपुरुष आ गये थे। थोड़ी देर तक सत्संग होता रहा।अनुकूल वातावरण, दूदाजीका प्रेम, आतिथ्य और मीराकी असाधारण योग्यता देखकर श्रीनिवृत्तिनाथजी ने मेड़तामें रहकर मीराको योगकी शिक्षा देना स्वीकार कर लिया। इससे सभी आनन्दित हुए।

बारात में हाथी पर बींद…….

‘भाबू! ये इतने लोग सज-धज करके गाजे-बाजेके साथ कहाँ जा रहे हैं?’
‘यह तो बारात आयी है बेटा!’- उत्तर देती हुई माँकी आँखोंमें सौ-सौ सपने तैर उठे।

‘बारात क्या होती है भाबू! यह इतने गहने पहनकर हाथी पर कौन बैठा है?’

‘यह तो बींद है बेटी! बीनणी (बहू) को ब्याहने जा रहा है। अपने
नगर सेठजी की बेटी हैं न, उससे विवाह होगा इसका।’
माँने दूल्हेकी ओर देखते हुए कहा।
‘सभी बेटियोंके वर होते हैं क्या? सभीसे ब्याह करने बींद (वर) आते हैं?’- मीराने पूछा !

‘हाँ बेटा! बेटियोंको तो ब्याहना ही पड़ता है। बेटी बापके घर नहीं खटती। चलो, अब नीचे चलें।’- माँ ने बेटी को झरोखे से उतारने का उपक्रम किया।
उस ओर ध्यान न देकर मीराने पूछा-‘तो मेरा बींद कहाँ है भाबू?”

‘तेरा वर?’ माँ हँस पड़ी—’मैं कैसे जानूँ बेटी, कि तेरा वर कहाँ है! जहाँके लिये विधाताने लेख लिखे होंगे, वहीं जाना पड़ेगा। जहाँ के काले तिल खाये होंगे, वहीं तेरा वर होगा। ले चल अब, उतर नीचे।’ उन्होंने दोनों हाथ फैलाये उसे उठानेको।

‘नहीं’, वह उछल करके दूर खड़ी हो गयी- ‘मुझे बताइये, मेरा वर कौन है?”

‘नीचे चल। वहाँ म्होटा भाभा हुकम (बड़ी माँ अर्थात् ताई) को पूछना।’

“नहीं, नहीं, नहीं! मुझे कहीं नहीं जाना; किसीसे नहीं पूछना, आप ही बताइये मेरा वर कौन है, मेरा वर कौन है?”- मीरा धप्पसे भूमि पर बैठ गयी। उसकी आँखों में आँसू भर आये। हाथ-पाँव पटकती वह बोली-‘बताओ, मेरा वर कौन है?’
क्रमशः



Rathore Veer Dudaji was very fortunate indeed. He was a fierce warrior in his youth, but now in his old age, Salila Bhakti-Bhagirathi was flowing like breaking the cool. Both fate and God were favorable to him, that’s why sitting in the house of high-class saints and great personalities, he would have got repeated opportunities of company and service. On this, as if this much luck was not enough, the Lord blessed him with a devotional granddaughter like Meera and a fiercely brave and supreme devotee grandson like Jaimal, who made Babosaka’s name memorable in history and in the world of devotees.

After the rest of the first day, on the second day in the morning, Dudaji took Meera and went to Shree Nivrittinathji’s room. Saw that Mahatma’s bag and seat were lying, but he himself was not there. On asking the guard, it was known that they had probably come out of the city towards Dudasar. With a view to reach soon, he was assured with Meera. As soon as he got the signal of Valga and Eddy, the devotee of Swami ran towards Ashwa Nagar gate. When he saw Dudasar, he got down and tied the horses to the tree. Holding Meera’s hand, they reached near Dudasar. The fragrant cool breeze of the morning was flowing slowly. The land-tilak rising on the far horizon has spread a transparent golden curtain on the water of the lake with its light. The birds loaded on the trees were singing praises to welcome him. The mooing of cows and calves could be heard somewhere nearby. This clean and calm form of nature seemed to compel me to be introverted easily. The Mahatma was meditating on the altar built under Ashwattha located on the west bank of the lake. Dudaji along with her granddaughter bowed down to him from a distance and sat at such a place that he could be easily seen on opening his eyes. Dudaji started chanting and Meera started looking at Mahatma’s meditatively calm face.

‘Aha! What a calm state they have! Completely detached from all the upheavals of the world and the pleasures and pains of the body! How good it would be, if such a state could be attained at will. With such a state, adversity will never become an obstacle in the attainment of one’s goal. If Mahatmaji becomes Chaitanya and Babosa orders, then I will definitely ask for that solution’ – Meera thought.

At the same time Mahatmaji opened his eyes saying ‘Jai Satchidanand’. Leaving the seat, he hung his feet down from the altar. From his efforts, it appeared that he is in no hurry to reach the palace. Dudaji quickly got up and kept his head near his feet – ‘Duda Rathod Pranat hai Prabhu!’ Meera also came from behind and followed him. ‘God is bowing down at the feet of Meera Medtani!’ The Mahatma raised his hand and uttered ‘Om’ twice. He signaled Meera to come near. She humbly went near and stood and looked at him raising her eyes. The Mahatma once looked at him from top to bottom. His gaze went towards her eyes. Seeing those eyes full of light, he was in a strange state, as if Advaitacharya saw Nimai for the first time or Janak saw Ram who came with Vishwamitra! A small source of affectionate affection burst forth in his pure heart. Although he had seen Meera once before, he did not find her ordinary at that time, yet no spark of affection had arisen in his calm heart. Taking care of himself, he asked. ‘Do you want to say something daughter?’

‘Hukm!’ Meera asked in a polite voice with folded hands- ‘What were you thinking just now with your eyes closed?’ ‘I was doing bhajan, daughter!’

‘You don’t have Iktara, Tanpura, Kartal or Mridang, nor were you speaking or singing anything with your mouth. You didn’t even know about our reaching here. What bhajan can be done without speaking and without instruments? Where is your Thakurji Maharaj? you don’t keep them? I have seen Thakurji with all the saints. Baba Biharidasji also has Thakurji.

‘My Thakurji lives within me only. They don’t have to be brought or taken from anywhere.

‘ You had told earlier that He is Nirguna Brahman in the innermost form. Were you worshiping him?’

‘Bhajan is a bhajan daughter! Be it someone’s nirgun, sagun, it belongs to God only.

Will you teach me such a hymn too? I have come a little bit to do bhajan by singing.

‘Sing at least daughter!’

After getting permission, Meera started singing the pada in Bhairavi raga. The purity of rhythm, melody, sweetness of voice and expression of feelings made Mahatma Videha. It was not difficult for Yogi Shrinivrittinathji, the connoisseur of music science, to know Meera’s qualities and abilities. On completion of the post, he asked Dudaji many questions about Meera. Dudaji answered as much as he knew. By this time Rajpurohit ji, Saint Shribiharidasji and many royal men had arrived. The satsang continued for some time. Seeing the congenial atmosphere, Dudaji’s love, hospitality and Meera’s extraordinary ability, Shrinivrittinathji accepted to teach yoga to Meera while staying in Merta. This made everyone happy.

Bind on the elephant in the procession.

‘Bhabu! Where are these many people going with all the decorations and music?’ ‘This is the wedding procession, son!’- Hundred dreams floated in mother’s eyes while replying.

What is a procession, Bhabu! Who is sitting on the elephant wearing so many ornaments?’

‘This is just a drop, daughter! He is going to marry Binani (daughter-in-law). Our Nagar is Sethji’s daughter, isn’t she, he will marry her.’ Mother said looking at the groom. ‘Do all daughters have grooms? Bind (bride) comes to marry everyone?’- asked Meera!

‘Yes son! Daughters have to get married. Daughter does not stay at father’s house. Come on, let’s go down now.’- The mother took the initiative to get the daughter off the window. Ignoring him, Meera asked – ‘So where is my bindu, bhabu?’

‘Your groom?’ Mother laughed – ‘ How do I know daughter, where is your groom! Wherever the creator has written the articles, one has to go there. Wherever you have eaten black sesame seeds, your groom will be there. Come on now, get down.’ He spread both his hands to lift it.

‘No’, she jumped up and stood away – ‘Tell me, who is my bridegroom?’

‘Come on down. Ask Mhota Bhabha Hukam (elder mother means Tai) there.’

“No, no, no! I don’t want to go anywhere; don’t ask anyone, you tell me who is my groom, who is my groom?”- Meera slapped and sat on the ground. Tears welled up in his eyes. Slamming her hands and feet, she said – ‘Tell me, who is my groom?’ respectively

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