मीरा के प्रभु गिरधर नागर।
आय दरस धो सुख के सागर।
आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी। सखियाँ उसे धीरज देनेके लिये कीर्तन करने लगी-
वृज जीवन नंद लाल, पीत वसन पुष्प माल।
मोर मुकुट तिलक भाल, जय जय लोचन विशाल।
कुछ समय बाद वह फिर गाने लगी, चम्पाने मृदंग और मिथुला ने मँजीरे सँभाल लिये-
जोहने गुपाल करूँ ऐसी आवत मन में।
अवलोकत बारिज वदन बिबस भई तन में।
मुरली कर लकुट लेऊँ पीत वसन धारूँ।
पंखी गोप भेष मुकुट गोधन सँग चारूँ।
गुरुजन कठिन कानि कासों री कहिये।
हम भईं गुल काम लता वृन्दावन रैना।
पसु पंछी मरकट मुनि श्रवण सुनत बैना।
गुरुजन कठिन कानि कासों री कहिए।
मीरा प्रभु गिरधर मिली ऐसे ही रहिये।
उसकी आँखें मुँद गयीं। निमीलित पलकों तले लीला-सृष्टि विस्तार पाने लगी। वह गोप सखा के वेशमें आँखों पर पट्टी बाँधे श्यामसुन्दर को ढूँढ़ रही है। उसके हाथ में कभी वृक्ष का तना, कभी झाड़ी के पत्ते आ जाते है। वह थक गई और व्याकुल हो पुकार उठी– “कहाँ हो गोविंद! आह मैं नही ढूंढ पा रही हूँ। श्यामसुन्दर! कहाँ हो..कहाँ हो..कहाँ हो..??”
तभी गढ़परसे तोप छूटी। चारभुजानाथ के मन्दिरके नगारे, शंख, शहनाई एक साथ बज उठे। समवेत स्वरों में उठती जय ध्वनि ने दिशाओं को गुँजा दिया।
‘चारभुजानाथ की जय! गिरिधरण लाल की जय! गढ़बोर पति की जय ! बोल छौगाला छैलकी जय!’
उसी समय मीराने देखा-जैसे सूर्य-चन्द्र भूमिपर उतर आये हों, उस महाप्रकाश के मध्य शांत स्निग्ध ज्योतिस्वरूप मोर मुकुट पीताम्बर धारण किये सौन्दर्य-सुषमा-सागर श्यामसुन्दर खड़े मुस्करा रहे हैं। वे आकर्ण दीर्घं दृग, उनकी वह हृदयको मथ देनेवाली दृष्टि, वे कोमल अरुण अधर-पल्लव, बीच में तनिक उठी हुई सुघड़ नासिका, वह स्पृहा-केन्द्र विशाल वक्ष, पीन प्रलम्ब भुजाएँ, कर-पल्लव, कदली खंभ-सी पीताम्बर परिवेष्टित जंघाएँ, जानु शोभाखान पिंडलियाँ और नूपुर मंडित चारु चरण।
एक दृष्टि में जो देखा जा सका…. फिर तो दृष्टि तीखी धार-कटार से उन नेत्रों में उलझकर रह गयी। क्या हुआ? क्या देखा? कितना समय लगा? कौन जाने? समय तो बेचारा प्रभु और उनके प्रेमियों के मिलन के समय प्राण लेकर भाग छूटता है, अन्यथा अपनी उपस्थिति का ज्ञान कराने के अपराध में कहीं अपना अस्तित्व ही खतरे में न पड़ जाय, यह आशंका उसे चैन नहीं लेने देती, अतः प्रभु-प्रेम पान के लिये वह प्रेमी की चरण रज में अपने को विलीन करके ही शांति पाता है। दाहिने हाथ की वंशी बायें हाथ में लेकर श्यामसुन्दर ने अपना दाँया हाथ मीरा की ओर बढ़ाया, उसका हाथ थाम तनिक अपनी ओर खींचा। वह तो अनायास ही प्राणहीन पुत्तलिका की भाँति उनके वक्ष पर आ गिरी।
‘इतनी व्याकुलता क्यों; क्या मैं कहीं दूर था?’
अपना कपोल उसके मस्तक पर टिकाकर उन्होंने स्नेहसिक्त स्वरमें पूछा।
प्रातः मूर्छा टूटनेपर मीराने देखा कि सखियाँ उसे घेर करके कीर्तन कर रही हैं। उसने तानपूरा उठाया। सखियाँ उसे सचेत हुई जानकर प्रसन्न हुई। कीर्तन बंद करके वे भजन सुनने लगीं-
म्हारा ओलगिया घर आयाजी।
तन की ताप मिटी सुख पाया, हिलमिल मंगल गाया जी।
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूँ मेरे आनंद छाया जी।
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ, भौं का दरद मिटाया जी।
चंद कूँ निरख कुमुदणि फूलै, हरिख भई मेरी काया जी।
रग रग सीतल भई मेरी सजनी, हरि मेरे महल सिघाया जी।
सब भक्तन का कारज कीन्हा, सोई प्रभु मैं पाया जी।
मीरा बिरहणि सीतल भई, दुख दुंद दूर नसाया जी।
इस प्रकार आनन्द-ही-आनन्द में अरुणोदय हो गया। दासियाँ उठकर उसे नित्यकर्मके लिये ले चलीं।
वृन्दावनविहारी के लिये संदेश……
श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव सम्पन्न होनेके पश्चात् बाबा बिहारीदासजी ने वृन्दावन जाने की इच्छा प्रकट की। भारी मनसे दूदाजी ने स्वीकृति दी। यह बात मंगला ने आकर मीरा को बतायी। सुनकर ऐसा लगा मानो किसी ने काँटा चुभा दिया हो। ठाकुरजी की ओर देखकर बोली- ‘अपने निजजनों-प्रेमीजनों के बीच निवास दो गोपाल! तुम्हारी चर्चा और उनके अनुभव सुनने से प्राणों की ज्वाला ठंडी होती है। अब अच्छा नहीं लगता यह सब, मुझे…. ले…. चलो…. ले…. चलो…. प्रिय!’
मंगला सिर झुकाये सुनती रही। उसी समय मिथुलाने आकर बताया कि बाबा बिहारीदासजी बाईसा की वर्षगाँठ तक रुकनेके लिये राजी हो गये हैं। मीरा उठकर बाबाके पास चली। मंगलाने आगे आकर सूचना दी। मीरा ने कक्षमें जाकर उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया- ‘बाबा! आप पधार रहे हैं?’ उसने भरे गले से पूछा।
‘हाँ बेटी! वृद्ध हुआ अब तेरा यह बाबा। अंतिम समय तक वृन्दावनमें श्रीराधामाधव के चरणों में ही रहना चाहता हूँ।’
‘बाबा! मुझे यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे भी…. ।’ – मीराने दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर रोते हुए कहा-‘मुझे भी ले चलिये न बाबा!’
‘श्रीराधे! श्रीराधे!’—बिहारीदासजी कुछ बोल नहीं पाये। उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा। कुछ समय पश्चात् उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरते कहा— ‘हम सब स्वतंत्र नहीं हैं पुत्री! वे जब जहाँ जैसा रखना चाहें…., उनकी इच्छामें ही प्रसन्न रहें। भगवत्प्रेरणा से ही मैं इधर आया। सोचा भी नहीं था कि यहाँ ऐसा रत्न पा जाऊँगा! इतने समय तक रहूँगा यहाँ! तुम्हारी संगीत शिक्षा में मैं तो निमित्तमात्र रहा। तुम्हारी बुद्धि, श्रद्धा, लगन और भक्ति ने मुझे सदा ही आश्चर्यचकित किया है। तुम्हारी सरलता, भोलापन और विनय ने हृदयबके वात्सल्य पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया। राव दूदाजी के प्रेम, विनय और संत-सेवा के भाव, इन सबने मुझ विरक्त को भी बाँध लिया है। जब-जब जानेका विचार किया, एक अव्यक्त पीड़ा हृदय में उठ खड़ी होती किन्तु बेटा! जाना तो होगा ही।’
‘बाबा! मैं क्या करूँ? मुझे आशीर्वाद दीजिये कि…. ।’– मीरा की हिचकी बँध गयी– ‘मुझे भक्ति प्राप्त हो, अनुराग प्राप्त हो, श्यामसुन्दर मुझपर प्रसन्न हों!’ उसने बाबाके पैर पकड़ लिये।
बाबा कुछ बोल नहीं पाये, उनकी आँखों के आँसू चरणों पर पड़ी मीरा के सिर को सिक्त करते रहे। फिर भरे गले से बोले- ‘श्रीकिशोरीजी और श्यामसुन्दर तुम्हारी मनोकामना पूरी करें! बेटी! मैं जब एक ओर तुम्हारी भाव-भक्ति को और दूसरी ओर समाज के बंधनों का विचार करता हूँ तो मेरे प्राण व्याकुल हो उठते हैं। बार-बार प्रभुका स्मरण करके उनसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरी बेटी का मंगल हो, मंगल हो ! चिन्ता न करो पुत्री!
क्रमशः
Meera’s lord Girdhar Nagar. Come and wash the ocean of happiness.
Tears started flowing from the eyes. The friends started doing kirtan to give him patience.
Vraj Jeevan Nand Lal, Peet Vasan Pushpa Mal. Peacock Crown Tilak Bhal, Hail Hail Lochan Vishal.
After some time she started singing again, Champane Mridang and Mithula took care of the manjire-
Johne Gupal karoon ki aawat in mind. Avlokat Barij Vadan Bibas Bhai Tan Mein. Let’s take wood by doing murli, let’s wear yellow clothes. Pankhi gop disguised as a crown, feed with Godhan. Gurujan, say hard things. Hum bhai gul kaam lata vrindavan raina. Animals, Birds, Markat Muni Shravan Sunat Baina. Gurujan, tell me what is difficult. Meera Prabhu Girdhar Miley, stay like this.
His eyes closed. Leela-creation started getting expansion under Nimilit eyelids. She is looking for Shyamsundar in the guise of Gopa Sakha with a bandage on his eyes. Sometimes the trunk of a tree, sometimes the leaves of a bush comes in his hand. She was tired and distraught and cried out — “Where are you Govind! Ah I am not able to find. Shyamsundar! Where are you.. where are you.. where are you..??”
Only then the cannon was fired from the fort. The nagaras, conch shells and shehnai of Charbhujanath’s temple rang together. The sound of Jai rising in the voices echoed in the directions. Hail to Charbhujanath! Hail to Giridharan Lal! Hail Garhbor husband! Say Chhaugala Chailki Jai!
At the same time, Meera saw that as if the Sun and the Moon had descended on the earth, in the middle of that great light, the beauty-Sushma-Sagar Shyamsundar, wearing the peacock crown Pitambar, in the form of calm light, were smiling. Those long eyes, that heart-wrenching sight of his, those soft arun adhar-pallav, the graceful nose slightly raised in the middle, that spruha-center huge chest, pin-overhanging arms, kar-pallav, Kadali pillar-like Pitambar surrounded thighs, Janu Shobhakhan Pindaliya and Nupur Mandit Charu Charan.
What could be seen at a glance…. Then the sight got entangled in those eyes with a sharp edge. What happened? What did you see? how long did it take Who knows? Time runs away by taking life at the time of the meeting of the poor Lord and His lovers, otherwise the fear that his existence may be in danger in the crime of making his presence known, does not allow him to take peace, therefore, the Lord-love drink Therefore, he finds peace only by merging himself in the feet of the lover. Taking Vanshi of his right hand in his left hand, Shyamsundar extended his right hand towards Meera, held her hand and pulled her towards him. She unintentionally fell on his chest like a lifeless effigy. ‘Why so much distraction; Was I somewhere far away?’ He asked in an affectionate voice by resting his cheek on her head.
On waking up in the morning, Meera saw that her friends were singing kirtans around her. He picked up the tanpura. The friends were happy to know that she had become alert. Stopping the kirtan, she started listening to hymns-
My Olgia came home. The heat of the body was erased and I found happiness. Hearing the sound of the cube, the peacock was delighted, so my joy shadowed me. Magan Bhai Mil Prabhu Apna Soon, Bhaun Ka Dard Mitaaya Ji. Chand koun nirkh kumudani phulai, harikh bhai meri kaya ji. Rag Rag Seetal Bhai Meri Sajni, Hari Mere Mahal Sighaya Ji. I have done the work of all my devotees, so I have found the Lord. Mira Birhani Sital Bhai, Dukh Dund Dur Nasaya Ji.
In this way, Arunodaya happened in joy-in-joy. The maids got up and took her for her routine.
Message for Vrindavanvihari……
After the completion of Shri Krishna’s birth anniversary, Baba Biharidasji expressed his desire to go to Vrindavan. Heavy MNS Dudaji approved. Mangala came and told this to Meera. On hearing it, it felt as if someone had pricked it with a thorn. Looking at Thakurji, she said- ‘Give Gopal a residence among your near and dear ones! Hearing your discussion and their experiences, the flame of life cools down. I don’t like all this now. Take…. Let us go…. Take…. Let us go…. Dear!’
Mangla kept listening with her head bowed. At the same time Mithula came and told that Baba Bihari Dasji has agreed to stay till the anniversary of Baisa. Meera got up and went to Baba. Mangla came forward and informed. Meera went to the room and bowed down at his feet – ‘Baba! Are you coming?’ she asked with a full throat.
‘Yes daughter! Now this baba of yours has become old. I want to stay at the feet of Shriradhamadhav in Vrindavan till the end.’
‘Dad! I don’t like anything here. Me too…. , Covering her face with both hands, Meera said while crying – ‘Take me too, don’t you Baba!’
‘Shree Radhe! Shriradhe!’—Biharidasji could not say anything. Tears started coming from his eyes. After some time, he put his hand on her head and said – ‘ We are not all free daughter! Whenever and wherever they want to keep…., be happy in their wish only. I came here only by divine inspiration. Never thought that I would find such a gem here! I’ll be here for so long! I was only instrumental in your music education. Your intelligence, faith, passion and devotion have always amazed me. Your simplicity, innocence and modesty have established monopoly over the affection of the heart. Rao Dudaji’s love, humility and sense of saint-service, all these have bound even the detached one. Whenever I thought of leaving, an unspoken pain would rise in my heart, but son! Will have to go.
‘Dad! What should I do? Bless me that…. ‘- Meera hiccuped – ‘May I get devotion, may I get affection, may Shyamsundar be pleased with me!’ He held Baba’s feet.
Baba could not say anything, the tears in his eyes kept moistening Meera’s head lying at his feet. Then said with a full hug – ‘ May Shri Kishoriji and Shyamsundar fulfill your wishes! Daughter When I think of your devotion on the one hand and the bonds of the society on the other, my soul gets disturbed. Remembering the Lord again and again, I pray to him that my daughter may be blessed, may she be blessed! Don’t worry daughter! respectively