रनिवास में कानाफूसी…..
राज्याभिषेक के समय वीरमदेवजी की आयु अड़तीस वर्ष थी। संवत् १५५३ में राणा रायमल की पुत्री और साँगाजी की बहिन गिरजाजी से जो सम्बन्ध हुआ, इससे इन दोनों राज्यों में घनिष्ट मित्रता हो गयी। दूदाजी के देहान्त के बाद मीरा बहुत गम्भीर हो गयी। उसके सबसे बड़े सहायक और अवलम्ब दूदाजी के न रहने से उसे अकेलापन खलने लगा। यह तो प्रभु की कृपा और दूदाजी की भक्ति का प्रताप था कि पुष्कर आने वाले संत मेड़ता आकर दर्शन देते। इस प्रकार मीरा को अनायास सत्संग प्राप्त होता। धीरे-धीरे रनिवास में इसका भी विरोध होने लगा—’लड़की बड़ी हो गयी है, अत: इस प्रकार देर तक साधुओं के बीच में बैठे रहना और भजन गाना अच्छा नहीं है।’
‘सभी साधु तो अच्छे नहीं होते।’
‘पहले की बात और थी। तब अन्नदाता हुकम साथ रहते थे और मीरा भी छोटी ही थी। अब वह चौदह वर्ष की सयानी हो गयी है। विवाह हो जाता तो एकाध वर्ष के भीतर माँ बन जाती।’
‘आखिर कब तक कुँवारी रखेंगे इसे? कल आसपास के लोग ताना मारेंगे कि “अरे अपने घर में देखो, घर में जवान बेटियाँ कुँवारी बैठी तुम्हें रो रही हैं। तब आँख खुलेगी काका-बाबाओं की।’
एक दिन झालीजी ने श्यामकुँज में आकर मीरा को समझाया- ‘बेटी ! बड़ी हो गयी है तू। इस प्रकार साधुओं के पास देर-देर तक मत बैठा कर ! रनिवास में जो बातें होती हैं, उन्हें सुन-सुन करके मैं घबरा उठती हूँ। मुझपर दया कर! उन बाबाओं के पास ऐसा क्या है, जो किसी साधु के आने की बात सुनते ही तू दौड़ जाती है? यह रात-रात भर जागना, रोना-गाना; क्या इसीलिये भगवान ने ऐसे रूप-गुण दिये हैं? क्या अपने से बड़ों का, माँ-बाप का कहा मानना कर्तव्य नहीं है?’
‘ऐसी बात मत फरमाओ भाबू! भगवान् को भूलना और सत्संग छोड़ना, दोनों ही अब मेरे बस की बात नहीं रही। जिस बात के लिये गर्व होना चाहिये, उसी बात के लिये माँ! आप मन छोटा कर रही हैं।’
‘मैं क्या करूँ बेटी! तेरी बात भी मुझे ठीक लगती है, पर महलों में जिधर जाओ, यही बात सुनायी देती है।’
‘क्या कुँवरसा (पिताजी) हुकम भी यही फरमाते हैं?’
‘वे हैँ कहाँ यहाँ? वे तो सेना लेकर भोजा सिंहावत से लड़ने कुड़की पधारे है’
‘क्यों माँ! वे तो अपने वंश के हैं न, फिर उनसे युद्ध क्यों?’
‘बहुत समयसे भोजाजी सरजोरी कर रहे थे, पर अन्नदाता हुकम की बीमारी के कारण सब चुप थे। अब तेरे दाता हुकम (वीरमदेवजी) ने उन्हें ठिकाने लगाने भेजा है।’
‘उन्हें मार देंगे कुँवरसा?’
‘नहीं, यही हुकम है कि कुड़की की जागीर छीनकर, उन्हें निकाल दिया जाय।’
‘इससे तो अच्छा यह होता कि उन्हें यहीं कोई पद देकर रख लेते। कुड़कीसे निकालने पर वे किसी विरोधी से जा मिलेंगे।’- मीरा ने कहा।
“बराबर वाले कभी दबकर नहीं रहते हैं। दो नाहर एक जंगल में नहीं खटते बेटी! मैंने तुझसे जो कहा, उसपर ध्यान दे। कौन साधु कैसा है, कौन जाने? कल कुछ हुआ तो मुख में कालिख तो लगेगी ही, तुम्हारे ये अर्जुन-भीम जैसे पितृव्य कहीं साधु की हत्या या कन्या के रक्तसे हाथ न रंग लें।”
‘भाबू! कितनी दूर तक सोच गयीं आप? मेरे उज्ज्वल वंश में दाग लगे, इससे पूर्व ही मैं देह छोड़ दूँगी। आप निश्चिन्त रहें, ऐसा कुछ नहीं होगा।’ उसने तानपूरा उठाया-
म्हाँने मत बरजे ऐ माय साधाँ दरसण जाती।
राम नाम हिरदै बसे माहिले मन माती।
माय कहे सुन धीयड़ी कौने गुणाँ फूली।
लोक सोवै सुख नींदड़ी, थूं क्यूं रैणज भूली।
गैली दुनिया बावली जाँ कूँ राम न भावै।
जाँ के हिरदै हरि बसै वाँ कूँ नींद न आवै।
चौबारयाँ री बावड़ी, ज्याँका नीर न पीजे।
हरि नाले अमृत झरै बाँ की आस करीजे।
रूप सुरंगा रामजी मुख निरखहि लीजे।
मीरा व्याकुल बिरहिणी, अपणी कर लीजे।
माता उठकर चली गयीं। मीरा को समझाना उनके बस का न रहा। मीरा भी उदास हो गयी। किससे अपने मन की बात कहे! बार-बार उसे दूदाजी याद आते। प्रभु की इच्छा समझकर वह मन को धीरज देती और राजमहल की बातों और घटनाओं को उदासीन भाव से देखा-सुना करती। रनिवास की स्त्रियों के आग्रह से वीरमदेवजी मीरा की सगाई के लिये प्रयत्न करने लगे।इन्हीं दिनों अपनी गर्भवती भुवा गिरजाजी को लेने चित्तौड़ से कुँवर भोजराज अपने परिकरों के साथ मेड़ता पधारे; रूप और बल की सीमा, धीर वीर, समझदार बालक, बीसेक वर्ष की आयु। जिसने भी देखा, सराहना में मुखर हो गया। जहाँ देखो, लोग यही चर्चा करते-‘ऐसी सुन्दर जोड़ी दीपक लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगी। कुछ मत सोचो, आँख मूँदकर घोड़े-नारियल भेज दो। भगवान ने मीरा को जैसे रूप-गुणों से सँवारा है, वैसा भाग्य भी दोनों हाथों से दिया है।’…. आदि-आदि।
भीतर-ही-भीतर यह तय हुआ कि गिरजाजी के साथ ही यहाँ से पुरोहित जी जाये बातचीत करने। यदि दीवानजी का रूख अनुकूल लगे तो गिरजाजी को लाने के लिये जब यहाँ से वीरमदेवजी चित्तौड़ पधारें, तो बात पक्की करके साथ-ही-साथ लगन भेजकर विवाह माँड दें। इन युद्धों के दिनों में जीवन का क्या भरोसा? किया सो ही काम और भजे सो ही राम। पश्चिम दिशा में उगा धूमकेतु बाबर धीरे-धीरे दिल्ली की ओर सरक रहा है सो कौन जाने क्या हो ? हवा के पंखों पर उड़ती हुई ये बातें मीरा के कान तक भी पहुँचीं। वह व्याकुल हो उठी। मन की व्यथा वह किससे कहे? जन्मदात्री माँ ही जब दूसरों के साथ जुट गयी हैं तो अब रहा ही कौन? मन के मीत को छोड़कर मन की बात समझे भी कौन? भारी हृदय, भरी आँखें और रुँधा गला ले उसने मन्दिर में प्रवेश किया—‘मेरे स्वामी! मेरे गोपाल! मेरे सर्वस्व ! मैं कहाँ जाऊँ? किससे कहूँ? मुझे बताओ, ये तुम्हें अर्पित तन-मन क्या अब दूसरों की संपत्ति बनेंगे? यज्ञ का पुरोडाश क्या गधे आरोगेंगे? अब सिंह का भाग सियार भोग लगायेंगे? मेरे साँवरे! मुझे बताओ मैं क्या करूँ? मैं तो तुम्हारी हूँ! तुम सँभाल लो, अथवा आज्ञा दो कि इसे बिखेर दूँ। अनहोनी मत होने दो मेरे प्रियतम! मैं तो तुम्हारी चाकर हूँ। जैसी आज्ञा हो, वही करूँ।’
क्रमशः