ऐसी आशीष अब कभी मत दीजियेगा। आपके इस छोटे से भाई में इतना बड़ा आशीर्वाद झेलने का बल नहीं है।’
कभी पूछती—’क्या सीख रहे हैं आजकल आप?’
कभी योद्धा वेष में देखकर प्रसन्न हो उठती-‘हूँ, बलिहारी म्हाँरा वीर थाँरा ई रूप माथे। उरा पधारो आपके काली टीकी लगा दूँ (मैं आपके इस रूप पर बलिहारी, मेरे भाई ! इधर पधारो आपको काला डिठौना लगा दूँ)।’
सदा हँसकर सामने आने वाली उसकी यह निर्मल हृदया बहिन आज यों मुख देकर रो पड़ी तो जयमल तड़प उठा-‘एक बार, एक बार अपने इस छाती में छोटे भाई को हुकम देकर तो देखिये जीजा! मैं आपको यों रोते नहीं देख सकता।’
‘भाई! आप मुझे बचा लीजिये, मुझे बचा लीजिये !’- मीरा भरे गले से हिल्कियों के मध्य कहने लगी- ‘सभी लोग मुझे मेवाड़ के महाराज कुँवर से ब्याहने को उतावले हो रहे हैं। स्त्री के तो एक ही पति होता है भाई! अब गिरधर गोपाल को छोड़ ये मुझे दूसरे को सौंपना चाहते हैं। इस पाप से आप मुझे बचा लीजिये। भगवान् आपका भला करेगा। आपकी गिनती तो अभी से वीरों में होने लगी है। तलवार के घाट उतार मुझे आत्महत्या के पाप से भी बचाओ….! मुझसे यह दुःख अब सहा नहीं जाता। मैं आपके… हाथ जोड़ती हूँ…भाई. मुझे…. बचा लो…. मेरी…. राखी का…. यही मूल्य…. दो मुझे!”
बहिनकी बात सुनकर जयमल सन्न रह गये। यह क्या माँगा जीजा ने? मेरे पौरुष को, मेरी वीरता को, मेरे इस खंग का…. आर्त-रक्षा के स्थान पर भगिनी हन्ता का पुरस्कार ही क्या सर्वप्रथम प्राप्त होना था ? हाय, मन पूछा ही करें जीजा से? अब क्या करूँ? बहिन का दुःख, अपनी असमर्थता और वचन-भंग कष्ट से जयमल असंयत हो उठे। उनकी आँखों से झरते आँसू मीरा के सिर को भिगोने लगे। असहाय स्वर में बोले – ‘जीजा ! मेरी माँ! यह क्या चाहा आपने अपने इस निकम्मे भाई से? यह करवाल…. यह हाथ आप पर उठें, इससे पूर्व जयमल के प्राण देह ही न छोड़ देंगे?’
वे दु:ख से अवश हो बहिन को बाँहों में भर रोते हुए बोले-‘मेरे वीरत्वको धिक्कार है कि आपके किसी काम न आया। आज ही तो बहिन ने मुझसे कुछ माँगा और अकर्मण्य भाई ना कहते तनिक भी न लजाया। मुझे क्षमा कर दीजिये जीजा! अन्यथा छाती फट जायगी….। आज मालूम हुआ कि जयमल महाकंगाल है।’
दोनों भाई-बहिन भूल गये कि श्यामकुंज के द्वार पर एक पराया व्यक्ति, सम्माननीय अतिथि खड़ा आश्चर्य से उन्हें देख और सुन रहा है। उन्हें ज्ञात ही न हुआ कि कब भोजराज उन दोनों के समीप आकर खड़े हो गये।
‘देवी!’– उन्होंने सीधे-सीधे मीरा को ही सम्बोधन किया। उनका स्वर सुनते ही दोनों भाई-बहिन चौंककर अलग हो गये। मीरा ने मुँह फेरकर उघड़ा हुआ सिर ढँक लिया। पलक झपकते ही वह समझ गयी कि यह विनय, अधिकार, तनिक दु:ख और गरिमायुक्त अनचिन्हा स्वर और किसी का नहीं, मेवाड़ के महाराजकुमार भोजराज का है। थोड़े संकोच के साथ उसने उनकी ओर पीठ फेर ली। जयमल ने साफे के पल्ले से आँसू पोंछ सिर झुका लिया।
‘देवी! आत्महत्या महापाप है और गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन भी इससे कम नहीं! इससे सृष्टि का संचालक अप्रसन्न होता है, ऐसा मैंने सज्जनों के मुख से सुना है। आपने जिस चित्तौड़ के राजकुँवरका नाम लिया, वह अभागा अथवा सौभाग्यशाली जन आपके सामने उपस्थित है। इस भाग्यहीन के कारण ही आप जैसी भक्तिमती कुमारी को इतना परिताप सहना पड़ रहा है। उचित तो यही है कि मैं ही देह छोड़ दूँ जिससे सारे कष्ट कट जाय, किन्तु क्या इससे आपकी समस्या सुलझ जायगी? राजपूतों की स्त्रियाँ बाँझ तो नहीं हैं। मैं नहीं तो मेरा भाई दूसरा, वरो की क्या कमी? हम लोगों का अपने गुरुजनो पर बस भी नहीं चलता! वे भी क्या करें? कभी किसी ने सुना कि बेटी बाप के घर कुँवारी बैठी रह गयी हो? पीढ़ियों से जो होता आया है, उसी के लिये तो सब प्रयत्नशील हैं। कहाँ किसी के घर में आप जैसी कन्याएँ उत्पन्न हुई हैं कि कोई अन्य मार्ग उनके लिये निर्धारित हुआ? इस उलझन का मुझे तो एक ही हल समझ में आया है। माता-पिता और परिवार के लोग जो करें, सो करने दीजिये और अपना विवाह ठाकुर जी के साथ कर लीजिये। यदि ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया तो…. तो मैं वचन देता हूँ कि केवल दुनियाँ की दृष्टि में बींद बनूँगा, आपके लिये नहीं। जीवन में कभी भी आपकी इच्छा के विपरीत आपकी देह को हाथ नहीं लगाऊँगा। आराध्य मूर्ति की भाँति…’ भोजराजका गला भर आया। एक क्षण रुककर वे बोले—’आराध्य मूर्ति की भाँति आपकी सेवा ही मेरा कर्तव्य रहेगा। आपके पति गिरधर गोपाल मेरे स्वामी और आप…. आप…. मेरी स्वामिनी।’
भोजराज साफे के पल्ले से आँसू पोंछते हुए पलट करके मन्दिर की सीढ़ियाँ उतर गये। शराबी…. नहीं-नहीं, सर्वस्व हारे हुए जुआरी की भाँति डगमग चाल से वे बाहर आये। अँधेरे में जैसे पथ खोजते हों, ऐसे पाँव घसीटते वे पानी की नाली पर आकर बैठे। दोनों हाथों से अंजलि भर-भर करके मुँह पर पानी छींटने लगे, किन्तु आँसुओं के झरने जो खुले, सो खुले ही रहे; किसी प्रकार ओट लगने में ही न आती थी। विवेक समझा रहा था कि जयमल आते होंगे, उन्हें इन आँसुओं की क्या कैफियत दी जा सकेगी? किन्तु कौन सुने? मन ने तो जैसे नेत्रों की राह बह जाने की सौगन्ध खा ली हो। तभी पीछे से पदचाप सुनायी दी। देह की सारी शक्ति लगाकर वे उठ खड़े हुए और आगे चल पड़े।
जयमल शीघ्रतापूर्वक चलकर समीप आये। उन्होंने देखा-आते समय भोजराज प्रसन्न थे, परन्तु अब तो मुख से उदासी झर रही है। जयमल ने मन-ही-मन सोचा—‘जीजाके दुःख से संभवत: दुःखी हुए हैं, तभी तो ऐसा वचन दिया। कुछ भी हो, इनसे विवाह कर जीजा सुखी ही होंगी।’
और भोजराज? वे सोच रहे थे कि कोई एकान्त स्थान मिले तो अन्तर्दाह बाहर निकले। जयमल को उन्होंने बीच से ही विदा कर दिया।
क्रमशः