‘रावले छोटे भाई रतनसिंहजी की पुत्री के सम्बन्ध का प्रस्ताव लेकर वे श्रीजी के सम्मुख उपस्थित होंगे। सुना यह भी है कि बाईसा सुन्दर, गुणवती, कवि और भक्त हैं। किसी योगी से उन्होंने योग और संगीत की शिक्षा भी पायी है। स्वभाव तो ऐसा है, मानो गंगा का नीर हो।’– पूरणमल ने प्रसन्न स्वरमें कहा।
“तुझे कैसे ज्ञात हुई इतनी सारी बातें?’- पूरणमल की बातें भोजराज के हृदय की प्यासी धरती पर प्रथम मेघ-सी बरसीं, जिसकी एक-एक बूंद आतुरतापूर्वक उन्होंने सोख ली।
“कुछ तो सरदारों की बातों से ज्ञात हुई, कुछ मैंने स्वयं ही इधर-उधर सेवकों-बालकों से जानकारी ली।’
‘क्या आवश्यकता आ पड़ी थी तुझे?’– भोजराज ने देह के कंप से लड़ते हुए पूछा।
‘सरकार ! वे कल हमारी स्वामिनी होंगी। बालकों को, सेवकों को उत्सुकता रहती ही है। यदि यह सब सच है और मेवाड़ को ऐसी महारानी मिल जाय तो सोने को सुगन्ध प्राप्त हो और भाग्य खुल जाये हमारा।’
‘तुझे कुछ बोलनेकी अकल भी है? क्या कह गया तू? पता नहीं, किसको महारानी बनाने के सपने देख रहा है। दाजीराज (पिताजी) को पूछा भी है? वे इस आयु में विवाह करना चाहते भी हैं? कोई राजनैतिक कारण भी दिखायी नहीं देता। मेड़ता से तो पहले ही अच्छे सम्बन्ध हैं, फिर?’–भोजराज ने अनजान बनते हुए कहा।
‘अरे सरकार! यह श्रीजी के विवाह की बात नहीं है।’ पूरणमलको अपनी भूल ज्ञात हुई। वह सुधारते हुए बोला- ‘यह तो राज के सम्बन्ध की बात है।’
हृदय और देह की पुलक को छिपाते हुए भोजराज ने कृत्रिम क्रोध दिखाया “क्यों रे अकल के दुश्मन! पता नहीं, तू कौन-सी बाईसा को मुझसे जोड़कर कब से महारानी-महारानी करके मुझे दाजीराज के सामने ही सिंहासनपर बिठाना चाहता है या उनके कैलाशवास की सूचना भी तुझे किसी ज्योतिषी ने दी है?”
एकदम चौंकने से पूरणमल के हाथ रुक गये। वह घबराकर बोल उठा ‘क्षमा, क्षमा सरकार! मेरे मन में ऐसी दुर्भावना नहीं थी। जाने कैसे जीभ फिसल गयी।’
‘ठीक है, अब जीभ को, बुद्धि की डोरी से बाँधकर रखा कर! समझा? तेरे मुखसे निकली बात मेरे मन की बात समझी जाती है। यह बात समझ ले पूरणमल, कि चित्तौड़ का राज्य एकलिंगनाथ का है। इसके दीवान जिस सिंहासन पर बैठते हैं, त्याग और बलिदान उसकी सीढ़ियाँ हैं। मुझ जैसे सैकड़ों भोज और तुझ जैसे हजारों पूरणमल उसकी मर्यादा पर न्यौछावर किये जा सकते हैं। कभी यह न समझ लेना कि मुझे उस सिंहासन का लोभ है।’
उसी क्षण पूरणमल पर मानो सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया, वह सहमकर बोल उठा–’हुकम सरकार!’
‘अब तो एकाध दिन में विदा लेकर चित्तौड़ चले चलें?’- भोजराज ने कवचकी कड़ियाँ ढीली करनेका संकेत करते हुए कहा।
कड़ियाँ ढीली करके तरकस के फीते बाँधते हुए पूरणमल ने सोचा- ‘कैसा पत्थर मन का है यह युवराज ! न इसे राज्य का लोभ है न सगाई की बात में रुचि। एक मुस्कान भी तो नहीं आयी होठों पर, न ही कुछ पूछा उन बाईसा के विषय में। साधारण युवक तो प्रसन्नता सँभाल ही नहीं पाते। पर ये क्या साधारण व्यक्ति हैं? चार वर्ष से इनकी सेवा में हूँ। कभी व्यर्थ बात और व्यर्थ चेष्टा नहीं देखी। साथियों से विनोद भी करते हैं तो ऐसा कि अन्य को शिक्षा मिले। अन्याय के प्रति जितने असहनशील हैं, गुरुजनोंके प्रति, धर्म और न्याय के प्रति उतने ही सहनशील हैं। राजसिंहासन पर बैठने वाले के हृदय को भगवान् पत्थर का बनाकर धरती पर भेजता है, तभी राज्य चलते हैं। सच भी है, पत्थर के भगवान् ही तो पूजे जाते हैं।’
दूसरे दिन सचमुच ही भोजराज ने वीरमदेवजी से विदा माँगी। यह सुनकर और भतीजे का मलिन मुख देख गिरजाजी ने हँसकर पूछा-‘क्यों बावजी! रणाङ्गण में भी आपको घर याद रहता है?”
‘आप रणकी बात फरमाती हैं भुवासा! चित्तौड़ तो मुझे कैलाश में भी याद आयगा।’— भोजराज ने उत्साह से कहा।
‘और बाई हुकम (माँ) ? विवाह के बाद भी बाई हुकम इतनी ही याद रहेंगी?’ भुवा के सम्मान में उन्होंने मस्तक झुका लिया, पर विवाह की बात सुनते ही एक अश्रुसिक्त मुख अन्तर में उद्भासित हो उठा।यद्यपि वीरमदेवजी की सभी पत्नियों को भोजराज अपने सगे भतीजे से प्रिय लगते, वे सभी उनका दुलार करते न थकतीं, भोज भी उन सभी का समान सम्मान करते, पर अब यहाँ मेड़ता में मन नहीं लगता।
उनका मन तो अब चित्तौड़ में भी नहीं लगता। न जाने क्यों, एकान्त अधिक प्रिय लगने लगा। एकान्त होते ही उनका मन श्यामकुँज के भीतर घूमने लगता। रोकते-रोकते भी वह उन बड़ी-बड़ी झुकी झुकी आँखों, पाटल वर्ण से छोटे-छोटे अधरों, स्वर्ण गौर वर्ण, सुचिकण कपोलों पर ठहरी अश्रु बूँदों, सुघर नासिका, उसमें लगी हीरक कील, कानों में लटकती झूमर, वह आकुल व्याकुल दृष्टि, उस मधुर कंठ-स्वर के चिन्तन में खो जाता। वे सोचते- ‘एक बार भी तो उसने आँख उठाकर नहीं देखा मेरी ओर। क्यों देखे? क्या पड़ी है उसे? उसका मन तो अपने आराध्य में लगा है। यह तो तू ही है, जो खो आया है अथवा पुष्प की भाँति चढ़ा आया है अपना हृदयधन, जहाँ स्वीकृति के कोई आसार नहीं, कोई आशा नहीं।’
लोगों ने भोजराज का बदला हुआ स्वभाव देखा तो सोचा-‘अब महाराजकुमार का बचपन गया। उसकी ठौर यौवन की धीरता ने ले ली है। सम्भवतः विवाह सम्बन्ध की बातों से लाज के कारण एकान्त में रहने लगे हैं।
क्रमशः
Rawle will appear in front of Shreeji with the proposal of relationship with the daughter of younger brother Ratan Singhji. It is also heard that Baisa is beautiful, virtuous, poet and devotee. He has also learned yoga and music from a yogi. The nature is like the water of the Ganges.’- Puranmal said in a happy voice. “How did you come to know so many things?” – Puranmal’s words rained like the first cloud on the thirsty earth of Bhojraj’s heart, every drop of which he eagerly absorbed.
“Some things were known from the words of the Sardars, some I myself took information from the servants and children here and there.’ ‘What need did you have?’- Bhojraj asked while fighting the tremors of his body. ‘Government ! She will be our mistress tomorrow. Children and servants always have curiosity. If all this is true and Mewar gets such a queen, then gold will get fragrance and our luck will open.’ ‘Do you have the sense to say anything? what did you say Don’t know, whom is he dreaming of making as queen. Have you asked Dajiraj (father) as well? Do they even want to get married at this age? There doesn’t seem to be any political reason either. I already have good relations with Merta, then?’-Bhojraj said being ignorant. ‘Hey government! It is not about Shreeji’s marriage. Pooranmal realized his mistake. Correcting himself, he said – ‘This is a matter of Raj’s relation.’
Hiding the twinkle of the heart and body, Bhojraj showed artificial anger, “Why, O enemy of wisdom! Don’t know, since when you want to make me queen-queen by associating with me, which Baisa do you want to make me sit on the throne in front of Dajiraj or his Kailashwas? Has any astrologer given you the information?”
Puranmal’s hands stopped in utter shock. He said in panic, ‘Sorry, sorry government! I did not have such malice in my mind. Don’t know how the tongue slipped. ‘Okay, now keep your tongue tied with the rope of your intellect! understood? The words that came out of your mouth are understood to be the words of my mind. Puranmal should understand that the kingdom of Chittor belongs to Eklingnath. Sacrifice and sacrifice are the steps on the throne on which its Diwan sits. Hundreds of feasts like me and thousands of Puranmals like you can be sacrificed on his dignity. Never think that I am greedy for that throne.’
At the same moment, as if hundreds of pitchers of water fell on Puranmal, he said with awe – ‘Hukam Sarkar!’ ‘Now take leave for a day or so and go to Chittor?’- said Bhojraj indicating to loosen the links of the armour.
Loosening the links and tying the strings of the quiver, Puranmal thought – ‘ What a stone mind this prince is! He is neither greedy for the kingdom nor interested in the matter of engagement. Not even a smile came on his lips, nor did he ask anything about those Baisa. Ordinary youths cannot handle happiness at all. But are these ordinary people? I have been in his service for four years. Never saw any wasteful talk or wasteful effort. Even if he jokes with his companions, it is such that others get an education. As intolerant as they are towards injustice, they are equally tolerant towards teachers, religion and justice. God makes the heart of the person sitting on the throne and sends it to the earth, only then the kingdom runs. It is also true, only the gods of stone are worshipped.
On the second day, Bhojraj really asked Veeramdevji to leave. Hearing this and seeing the dirty face of the nephew, Girjaji asked laughingly – ‘Why Bavji! Do you remember home even in the battlefield?” ‘You are talking nonsense, Bhuvasa! I will remember Chittor even in Kailash.’— Bhojraj said enthusiastically. ‘And Bai Hukam (mother)? Will Bai Hukam be remembered to this extent even after marriage?’ He bowed his head in respect of Bhuva, but as soon as he heard about the marriage, a tearful face erupted inside. Although all the wives of Veeramdev ji loved Bhojraj more than their real nephew, they all did not get tired of caressing him, Bhoj also loved them all. Respected equally, but now I don’t feel like medta here.
Now his mind doesn’t even feel in Chittor. Don’t know why, I started liking solitude more. As soon as he became lonely, his mind started wandering inside Shyamkunj. Even while stopping, she could see those big slanting eyes, lips smaller than Patal varna, golden gaur varna, teardrops standing on her cheekbones, sweet nostrils, diamond studded in it, chandelier hanging in her ears, that insane distraught look, Got lost in the thought of that sweet voice. They used to think- ‘He didn’t look at me even once. Why see? What is wrong with her? His mind is engaged in his worship. It is you who has lost or has offered your heart’s wealth like a flower, where there is no chance of acceptance, no hope.’ When people saw the changed nature of Bhojraj, they thought – ‘Now Maharajkumar’s childhood is gone. The patience of youth has taken its place. Probably because of the shame of marriage, they have started living in solitude. respectively