एक ने अपनी बारी आते ही कहा—’मारो मत अन्नदाता! मैंने कूकड़ो बोलताँ (मुर्गा बोलते) पेलाँ ही इण झरोखा शू एक जणा बस्तर थाम नीचे उतरतो देख्यो। वो कढ़ाव रे भड़े जाय अठी-उठी देखतो जावे अर दोई-दोई हाथा शू खावा लागो । म्हँने तो धूजणी छूटगी, ज्यूँ आँख्या मींच लीधी, पाछो चढ़तो देख्यो जद साँस वापरी।’
‘कौनसे झरोखे से उतरा वह?”
‘वह झरोखा, अन्नदाता!’- उसने हाथ के संकेत से बताया।
‘झूठ तो नहीं बोल रहा? बात झूठ निकली तो खाल खींचकर भूस भरवा दूँगा।’
सरदार ने पता लगाया तो मालूम हुआ कि इस महल में तो जवाँईसा और बाईसा पौढ़े थे रात को। अब कौन किसको कुछ कहे? किसके धड़ पर दो सिर हैं कि खास जवाईसा के लिये ऐसी बात मुख से निकाले? पर बात छिपी नहीं, सरकती हुई गणेश ड्योढ़ी में पहुँची और वहाँ से राजमाता के कानों में पड़ी। क्रोध से उनका गौर मुख आरक्त हो उठा। उन्होंने श्रीजी को संदेश भेजा।
महाराणा ने पधारकर अभिवादन किया-‘अन्नदाता! हुकम बखशावें।’
‘अपनी बहिन के लिये तुम्हें मेड़ते के अतिरिक्त कहीं राजपूत का बेटा नजर नहीं आया? मेरी पितृहीन पुत्री को तुमने घोड़े की रातिब खाने वालों को सौंप दी?’
सारी बातें सुनकर दीवानजी ने कहा-‘हुजूरकी नाराजगी मेरे सिर माथे। मुझे एक दिनका समय दें। कल प्रातः आपको निवेदन करूंगा कि जवाँईसा कैसे हैं?’
‘कैसे हैं सो तो दिखायी दे गया है न! इन्हीं की भतीजी लाने की और सोच रहे हो, सो नहीं होगा। बेटी डूबी सो डूबी, पोता नहीं डुबाने दूँगी।’
‘जैसा आपका हुकम होगा वही होगा, बाई हुकम! अब मुझे आज्ञा हो।’ दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही अन्तःपुर में सूचना पहुँची कि हाथी पागल होकर गणेश ड्योढ़ी पर खड़ा है, अत: जवाँई राणा से निवेदन है कुत्ता बारी (छोटे द्वार) से बाहर पधार जायँ ।
थोड़ी देर में खबर पहुँची कि छोटे जवाँईसा बाहर पधार गये हैं। महाराणा तो मेड़तिया राठौड़ की राह देख रहे थे। हाथी की बात सुनते ही वीरमदेवजी की चढ़ गयी- ‘क्यों, कुत्ताबारी से क्यों?’
‘हाथी पागल हो गया है सरकार! पकड़ में नहीं आ रहा।’–सेवक ने हाथ जोड़ करके निवेदन किया।
‘मैं देखूँ? ऐसा कैसा पागल है कि महावतों और चित्तौड़ोंके बसमें नहीं आ रहा।’
एक-दो ने और बरजने का प्रयत्न किया, किन्तु वे ‘अरे देखने तो दो’ कहते हुए ड्योडी में आ गए और बंद द्वार खोल दिया। इन्हें देखते ही हाथी झपटा।
उसने उन्हें लपेटने को सूँड बढ़ायी। वे कूदकर एक ओर हो गये, पर सूँड़ पकड़कर जोर से मरोड दी। हाथी चिंघाड़ उठा। क्रोध से तिलमिलाकर हाथी पुनः बढ़ा। उन्होंने कनपटी पर घूंसा मारा। हाथीको चक्कर-सा आ गया। अब सांप और नेवले का खेल होने लगा। हाथी उन्हें सूँड़ में लपेटने, दाँत से छेदने और पैर से रौंदने के प्रयत्न में था और वे उसकी पकड़ में न आकर उसे थकाकर वश में करने का प्रयत्न कर रहे थे। बचने के प्रयत्न में कहीं-न-कहीं उसकी दुखती रग पर घूँसा जड़ देते। तमाशा देखने के लिये भीतर से दासियों और बाहर से महावतों, चाकरों और राजपूतों की भीड़ जमा हो गयी। महाराणा की आज्ञा से कई लोग तीर धनुष, भाले और गुर्ज लिये खड़े थे कि यदि हाथी जवाँईसा को पकड़ ले तो उसे तुरंत मार दिया जाय।
अंत में वीरमदेवजी ने हाथी की सूँड़ पकड़कर मरोड़ दी और मरोड़ते ही गये। वह चिंघाड़ता हुआ भूमि पर जा गिरा। तब उन्होंने मस्तक पर अपना दाहिना पाँव अड़ाकर हाथों से खींचकर उसके दाँत उखाड़ लिये। उन्हीं दाँतों को ऊपर उठाकर सिर पर प्रहार किया और हाथी के मुख से रक्त की नाली-सी बह चली। वह शांत हो गया।हाथी के मुख से आती गंध से वीरमदेवजी समझ गये थे कि यह पागल हुआ नहीं, इसे दारू पिलाकर पागल किया गया है। क्यों? यह प्रश्न मन में उठते ही घोड़ों की रातिब का कड़ाह याद हो आया। उन्होंने मन-ही-मन दीवानजी की बुद्धि की प्रशंसा की और निश्चय कर लिया कि हाथी को वश में करने के बदले मारना ही है। दोनों दाँत हाथ में लिये ही वे महाराणा के समीप गये और उनके सम्मुख फेंककर बोले- ‘दीवानजी! जानवराँ ने दारू पाय र म्हाँरो बल कँई परखो? कदी काम पड़े तो याद करावजो। चित्तौड़ के खातिर माथो कटा दूँ ला (दीवानजी! जानवरों को शराब पिलाकर हमारे बल की क्या परीक्षा करते हैं? कभी विपत्ति आये तो याद करियेगा। चित्तौड़ के लिये अपना माथा कटा दूँगा) ।’
*महाराणा ने उठकर उत्साह और स्नेह से बहनोई को बाँहों में भरकर वक्ष से लगा लिया। इस खुशी में गोठ (दावत) और नजर न्यौछावर हुई। इस घटना ने सिसौदियों के मन में मेड़तियों का मान बढ़ा दिया। उस वंश की बेटी अब इस कुल में आये, यह हर्ष और सम्मान की बात मान ली गयी। महारानियाँ अपनी दुलारी ननद गौरलदे से मीरा के विषय में पूछतीं और वे उसके रूप-गुणों की प्रशंसा करते न थकती।
‘वह भगवान की बड़ी भक्त है भाभीसा!’ एक दिन उन्होंने साहस करके कह दिया- ‘अपने भगवान् के सामने उसे कुछ नहीं सूझता। सभी गुण हैं, पर वह भक्ति को सबसे प्रधान मानती है। उसके गुण भी भगवान के लिये ही हैं। जैसे वह कवियत्री है, पर अपने इस गुण का प्रयोग वह भगवान के भजन रचने में ही करती है। आप श्रीजी से निवेदन कर दीजिये; कहीं ऐसा न हो कि बाद में विवाद उठे। मैं तो दोनों ओर से बँधी हूँ।’
बात महाराणा ने भी सुनी। उन्होंने कहा- ‘अरे, भक्ति है कहाँ? किसी भाग्यवान को ही मिलती है वह। चिंता की बात नहीं, हमारे तो दोनों हाथों में लड्डू है। यदि वह संसारी है तो ऐसी सुन्दर सुशील बहू मिलेगी और भक्त है तो हमें तार देगी।’
क्रमशः
One said when it was his turn—’Don’t kill me, food giver! I saw a man coming down from the window just before the cock crowed. He would get up and look at the embroidery and start eating shoes with both hands. I saw him climb back when I lost my breath.
‘Which window did he come down from?’
‘That window, Annadata!’- he said with a hand gesture. ‘You are not lying are you? If it turns out to be a lie, I will skin it and stuff it with straw.’ When Sardar inquired, he came to know that in this palace, Jawaisa and Baisa were grown at night. Now who should say something to whom? Who has two heads on his torso that he should utter such a thing for a special spectacle? But the matter was not hidden, Ganesha reached the entrance while sliding and from there it fell into the ears of Rajmata. His face became enraged with anger. He sent a message to Shreeji. Maharana came and greeted – ‘Food giver! Please forgive the orders.
‘Didn’t you see a Rajput’s son anywhere other than medte for your sister? You handed over my fatherless daughter to the horse-riders?’ After listening to all the things, Dewanji said – ‘Huzoor’s displeasure is on my head. Give me one day’s time. Tomorrow morning I will request you that how is Jawaisa? ‘How are you? It has been seen, hasn’t it? You are thinking of bringing his niece, that will not happen. My daughter drowned, I will not let my grandson drown.’ ‘It will be as you command, bye Hukam! Now I have permission.’ On the second day, before sunrise, information reached the inner city that the elephant had gone mad and Ganesh was standing on the porch, so Jawaani Rana was requested to come out of the dog bari (small gate). In a short while the news reached that the younger Jawaisa had come out. Maharana was waiting for Medatiya Rathore. On hearing about the elephant, Veeramdev got angry – ‘Why, why by dog fighting?’
‘The elephant has gone mad’ Can’t catch it.’-The servant pleaded with folded hands. ‘Shall I see? How mad is he that he is not able to control the Mahavats and Chittor.’ One or two tried to barge in, but they came into the dugout saying ‘Hey let me see’ and opened the closed door. The elephant pounced on seeing them. He extended his trunk to wrap them. They jumped to one side, but grabbed the trunk and twisted it vigorously. The elephant screamed. Shaking with anger, the elephant reared up again. He punched the temple. The elephant felt dizzy. Now the game of snake and mongoose started. The elephant was trying to wrap them in its trunk, pierce them with its teeth and trample them with their feet and they were trying to tame them by tiring them out of their grip. In an attempt to escape, somewhere or the other he would have punched his aching vein. A crowd of mahouts, servants and Rajputs gathered from inside and outside to watch the spectacle. By the order of Maharana, many people were standing with arrows, bows, spears and gurjas that if the elephant catches Jawaisa, then he should be killed immediately.
In the end, Veeramdev ji twisted the elephant by holding its trunk and kept on twisting. He fell on the ground screaming. Then he pulled his right foot on the head and pulled it out with his hands. Raising the same tusks, he hit the head and blood gushed out of the elephant’s mouth. He became calm. Veeramdev understood from the smell coming from the mouth of the elephant that it had not gone mad, it had been made mad by drinking alcohol. Why? As soon as this question arose in my mind, I remembered the cauldron of the horse carriage. He praised Dewanji’s intelligence in his heart and decided that instead of taming the elephant, he had to kill it. Taking both the teeth in hand, he went near Maharana and threw them in front of him and said – ‘Diwanji! The animals got drunk and where to test my strength? If it is of some use, make me remember. Chittor ke khatir matho kata doon la (Diwanji! Why do you test our strength by making animals drink alcohol? If any calamity comes, remember me. I will cut my head for Chittor).’
Maharana got up and embraced his brother-in-law with enthusiasm and affection and hugged him. In this happiness, Goth (feast) and Nazar were sacrificed. This incident increased the prestige of the Medtis in the minds of the Sisaudis. It was accepted as a matter of joy and respect that the daughter of that clan should now come into this clan. The queens used to ask their beloved sister-in-law Gouralde about Meera and she could not get tired of praising her beauty.
‘She is a great devotee of God Bhabhisa!’ One day he boldly said – ‘ He does not understand anything in front of his God. There are all qualities, but she considers devotion to be the most important. His qualities are also for God only. Like she is a poet, but she uses this quality of hers only in composing hymns to God. You request Shreeji; Lest it happen that disputes arise later. I am bound from both sides.’
Maharana also heard the matter. He said- ‘Hey, where is devotion? Only the lucky ones get it. Don’t worry, we have laddoos in both hands. If she is worldly, then such a beautiful Sushil daughter-in-law will be found and if she is a devotee, then she will wire us. respectively