आखिर विदाई का दिन भी आया। चारों ओर दहेज जमा करके बीच में पलंग पर मीरा और भोजराज को बिठाया गया। रतनसिंह और झालीजी गाँठ जोड़कर परिक्रमा देने लगे। जैसे ही सातवाँ फेरा हुआ, भोजराज ने सास की चुनरी का छोर थाम लिया। रतनसिंह ने पन्ना और मोतियों का कंठा भोजराज के गले में पहनाया। माताओं, काकियों, भौजाइयों ने गले मिलकर आँसू ढारते हुए नारी धर्म की शिक्षा दी। भाइयों सहित वीरमदेवजी आये और शगुन रूप में सबने मीरा के हाथ में स्वर्ण मुद्राएँ दीं। माँ ने चाँदी के सिक्के पल्ले में बाँधे। मीरा ने चरणों में प्रणाम किया तो रतनसिंह बड़े भाइयों की उपस्थिति को भूल गये-वे अपनी एकमात्र पुत्री को गले से लगाकर रो पड़े। वीरमदेवजी ने कहा-
‘ससुराल में माँ-बाप को बेटी के कारण ही यश प्राप्त होता है। तुम स्वयं समझदार हो। बड़ों का सम्मान, छोटों को दुलार और समान पद-वय वालों को स्नेह देना। पितृ और पति दोनों कुलों का सम्मान बढ़े, वैसा व्यवहार करना।’ उन्होंने मीरा के सिर-पीठ पर हाथ फेरा।
फिर भोजराज से वीरमदेवजी ने कहा- ‘बेटी में कोई अवगुण नहीं है, पर भक्ति के आवेश में कुछ नहीं सूझता। आप ध्यान रखावें। हमने इसे आपको सौंपी है। इसकी भलाई-बुराई, इसकी लाज आपकी लाज है।’
भोजराज ने आँखें नीची करके मौन स्वीकृति दी। उसी समय चर्वादार ने राजकरण नामक पूरा ऊँचा स्वर्णालंकारों और मखमली जीन से सज्जित श्वेत अश्व आँगन में ला खड़ा किया। पैरों में बँधी पैंजनियाँ बजाता और लगाम चबाता हुआ राजकरण ललित गति से नाच रहा था। भोजराज उछलकर उसपर सवार हुए। सूर्य की रश्मियों में उनका मणि-मौर चमक उठा। उनका रूप देखकर स्त्रियाँ नजर के टोटके करने लगीं। ऐसा लगता था मानो जनकजी की पौरि पर लक्ष्मण जी अश्वासीन खड़े हों। थोड़ी दूर जाकर फिर वापस लौट लौटकर उन्होंने घोड़े पर बैठे-बैठे ही सात बार अपनी सभी सासों को अभिवादन किया। आभूषणों और स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा-सी हो गयी। सेवकों ने बटोरकर थैलों में भर लिया। सिसकियों के मध्य विदाई गीत के स्वर लहरा उठे-
पेंचा आपने सोवै जवाँईसा मोती राज ने सोवै, देखे राज रा सासरियारा लोग।
हाँ ओ सेली वाला जवाँई सा, घोड़ा खुलता फेरो सा बागाँ ढीली मेलो सा।
डोरा राज ने सोवै चित्तौड़ा मूंदड़ी ऊपर, म्हाँरा नानी बाई रीझ्या सा।
हाँ ओ सेली वाला जवाँई सा, घोड़ा खुलता मेलो सा बागाँ ढीली मेलो सा।
कडुला राज ने सोवै हिन्दवाणी सूरज लंगर ऊपर,म्हारा मीरा बाई रीझ्या सा।
हाँ ओ सेली वाला जवाँई सा,घोड़ा खुलता फेरो सा बागाँ ढीली मेलो सा।
उसी समय रोती हुई मीरा के पास माँ ने आकर पूछा-‘बेटी! तेरे दाता हुकम (वीरमदेवजी) ने दहेज में कुछ भी कसर नहीं रखी है, फिर भी बेटी, कुछ और चाहिये तो कहो।’
मीरा ने कहा
दैरी माई अब म्हाँको गिरधर लाल।
प्यारे चरण की आन करति हौं और न दे मणिलाल।
नातो सगो परिवारो सारो म्हाँने लागे काल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर छवि लखि भई निहाल।
‘ठाकुर जी भले ही ले जा बेटा पर उनके पीछे पगली होकर अपना कर्तव्य न भूल जाना।देख ये कार्तिकेय जैसे गुणवान और सुंदर पति मिले हैं।सदा इनकी आज्ञा में रहना, इनकी सेवा करना।सास नणद का आदर करना।दास दासियों पर कृपा दृष्टि रखना।सदा सबकी प्रिय बनकर रहना।’
भाभियों और बहिनों ने उसे मियाने ( पालकी डोली) में बिठाया।मंगला ने सिहाँसन सहित गिरधर लाल को उसके हाथ में दे दिया।मियाने के चारों ओर हाछ में चँवर पंखे झारी पानदान श्रंगार पेटिका आदि सेवा की सामग्री लिए वस्त्रालंकारों से सजी धजी एक सौ एक दासियाँ खड़ी थीं।देवताओं को धोक देकर मंगल वाद्य ध्वनि के साथ बरात विदा हुई।जैसे ही भोजराज के अश्व ने सिंहपौर पार की, अटारी पर खड़ी स्त्रियों के कंठ मुखर हो उठे-
वायरिया (पवन)रे थोड़ो धीमे मंथरो बाज
चढ़ताँ जवायाँ रा दीखे सेलड़ा रे।
म्हाँरी झीणी केशर लो ऐ म्हाँरी मूँधी केशर ऐ।
छापरिया रे थोड़ो चौड़ौ व्हे,
चढ़ता चित्तौड़ रा दीखे घुड़ला रे।
म्हाँरी झीणी केशर लो ऐ म्हाँरी मूँधी केशर ऐ।
डूँगरिया रे थोड़ा नीचे व्हे,
चढ़तौ सिसोदियाँ रा दीख्ये मौरला रे।
म्हाँरी झीणी केशर लो ऐ म्हाँरी मूँधी केशर ऐ।
चढ़तौ साँवरिया री दीखे तुर्रा रे।
बड़ी धूमधाम से बारात ने चित्तौड़ में प्रवेश किया।महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित विजय स्तम्भ पर एकलिंग नाथ का भगवा ध्वज फहरा रहा था।नर नारियों के हर्ष की सीमा नहीं थी।राजमार्ग के दोनों ओर लोगों के ठट्ट लगे थे।वर वेश में भोजराज रत्नसिंह के साथ विशाल गजराज पर विराजित थे।उनके पीछे दादा (राणासांगा के काका) सूरजमल और सारंगदेव चँवर डुला रहे थे।अटारियों से होती पुष्पवृष्टि, वाद्यों की मंगल ध्वनि और विप्रों के शुभ आशिर्वाद के साथ शुभ मुहुर्त में उन्होंने राजमहल के द्वार पर हाथी से उतर कर मीरा के साथ महल में प्रवेश किया।प्रवेश के समय मीरा को देहरी की ठोकर लगी।’खम्मा अन्नदाता’ कहते हुये दासियों ने सम्हाँल लिया।स्त्रियाँ गीत गा रहीं थीं-
काली काली काजरिये की रेख जी।
कोई काला तो बादल में चमके बिजली।
मेतड़िया री मूमल हालो तो ले चाँलू म्हाँरे देस।
सीस तो मूसल रो बाजणियो नारेल सा।
चोटी तो मूमल री वासक नाग जी,
राठौराँ री मूमल हालो तो ले चाँलू म्हाँरे देस।
ललवट तो मूमल रो टीकी राचणी राज।
कोई आँख तो मूमल री केरी फाँक री,
कमधजिया री मूमल हालो तो ले चाँलू म्हाँरे देस।
नाक तो मूमल रीसूवा केरी चाँच जी,
कोई दाँत तो मूमल रा दाड़िम बीज हो,
राठौराँ री मूमल हालो तो ले चाँलू म्हाँरे देस।
और
लाड़ी यो घर यो द्वार माँग ऐ, म्हाँरी मायल हेलो राल।
थूँ तो राणाजी सुसरा माँग, थूँ तो सोलंकणी सासू माँ ऐ
म्हाँरी मायल हेलो राल।
लाड़ी यो घर यो द्वार माँग ऐ, म्हाँरी मायल हेलो राल।
थूँ तो रतनसिंह देवर माँग, थूँ तो उदा नणमल माँग ऐ,
म्हाँरी मायल हेलो राल।
लाड़ी यो घर यो द्वार माँग ऐ, म्हाँरी मायल हेलो राल।
थूँ तो कुँवरसा वर माँग, थूँ भोजाजी कंत माँग ऐ,
म्हाँरी मायल हेलो राल।
लाड़ी यो घर यो द्वार माँग ऐ, म्हाँरी मायल हेलो राल।
नगारखाने की नौबत और शहनाई लोगों के कान फाड़े डालती थी।दमामणियाँ बधावे गा रहीं थीं।
क्रमशः