मीरा के हाथ से वस्त्र, सुई गिर पड़ी, हाथ गोद में गिर पड़े और सिर से साड़ी सरक गई।पाटल पाँखुरी से होठ खुल गये और उनमें से श्वेत दंत पंक्ति झाँक उठी।भोजराज ने गौर से देखा कहीं भी दिखावा नहीं था।भोजराज को मन हुआ उठकर थोड़ा जल पिला दें पर अपनी विवशता स्मरण कर वैसे ही बैठे रहे। कुछ क्षणों के बाद देह में चेतना के लक्षण दिखाई दिए।अर्धनिमिलित दृगों के पलक पटल उघड़े।उनमें पहचान की क्षमता आई।उन्होंने आँचल से मुँह पोछा।भोजराज को देखकर दृष्टि झुका ली।
‘आप कुछ फरमा रहीं थीं’- भोजराज ने याद दिलाया।
‘हुकुम क्या अर्ज कर रही थी?’ वे मुस्कराई- ‘मैं तो पागल हूँ, आपको कोई अशोभनीय बात तो अर्ज नहीं कर दी।”
‘नहीं हुकुम आप ठाकुर जी से विवाह की बात बता रही थी कि कक्ष में पधारने पर आपने प्रणाम किया और…….।”
‘हूँ’-मीरा खोये स्वर में बोलीं, उनकी दृष्टि जैसे दूर जा लगी- ‘रात को नींद खुल गई’- उनका कंठ फिर गद्गद् हुआ पर उन्होंने संवरण कर लिया- ‘लगा कोई मेरे साथ सोया है।चौंककर आँखे खोली तो देखा कि मेरे सिरहाने एक भुजा लगी है, कमल दृगों की बड़ी बड़ी पलकें मुँदी हुई, घुँघराले केश मुख के आसपास छितराये हुये,कुछ अलकें ललाट पर झुक आईं थीं।होठों पर मुस्कान, एक बाँह मेरी पीठ पर, वह सुगन्धित श्वास, वह देह गन्ध, इतना आनन्द कैसे संभाल पाती मैं।चेतना छोड़ गई। प्रातःकाल सबने देखा गँठजोड़ा, हथलेवे का चिन्ह, गहने, वस्त्र, चूड़ा। चित्तौड़ से आया चूड़ा तो मैंने पहना ही नहीं – गहने, वस्त्र सब ज्यों के त्यों रखे हैं।’
‘मैं यहाँ से आये पड़ले को देख सकता हूँ ?” भोजराज बोले।
‘अभी मंगवाती हूँ।’- मीरा ने मंगला और मिथुला को पुकारा।दोनों दासियाँ उपस्थित हुईं तो फरमाया- ‘अठे शूँ आयो पड़ला कणी पेटी में है? वा उँचा तो ला मंगला।
‘मिथुला, थूँ जो द्वारिका शूँ आयो वणी पड़ला री पेटी उँचा ला।’
दोंनों पेटियाँ आयीं तो उन्होंने दासियों को ही हुकुम दिया- ‘सामग्री खोलकर अलग-अलग रख दो।’
आश्चर्य से भोजराज ने देखा। सब कुछ एक सा- फिर भी चित्तौड़ के महाराणा का सारा वैभव द्वारिका से आये पड़ले के समक्ष तुच्छ था। श्रद्धा पूर्वक भोजराज ने सबको छुआ। सब यथा स्थान पर रख दासियाँ चली गई तो भोजराज ने उठकर मीरा के चरणों में माथा धर दिया।
‘अरे यह, यह क्या कर रहे हैं आप ?” मीरा ने चौंककर कहा और पाँव छुड़ाने का प्रयत्न किया।
‘अब आप ही मेरी गुरु हैं, मुझ मतिहीन को पथ सुझाकर ठौर-ठिकाने पहुँचा देने की कृपा हो।” गदगद कण्ठ उच्चारण को ठीक से ध्वनि नहीं पा रहा था। उनके नेत्रों से कई अश्रुओं की बूँदे मीरा के अमल धवल चरणों का अभिषेक कर उठीं।
मीरा का हाथ सहज ही भोजराज के माथे पर चला गया- ‘उठकर विराजिये। प्रभु की अपार सामर्थ्य है। शरणागत की लाज उन्हें ही है। कातरता भला आपको शोभा देती है ? कृपा करके उठिये।’
भोजराज ने अपने को सँभाला। वे वापस गद्दी पर जा विराजे और साफे से अपने आँसू पौंछने लगे। मीरा ने उठकर उन्हें जल पिलाया।
‘आप मुझे कोई सरल उपाय बतायें। पूजा-पाठ, नाचना-गाना, मँजीरे या तानपुरा बजाना मेरे बस का नहीं है।’- भोजराज ने कहा।
‘यह सब आपके लिए आवश्यक भी नहीं है।’ मीरा हँस पड़ी- ‘बस आप जो भी करें, प्रभु के लिए करें और उनके हुकम से करें, जैसे सेवक स्वामी की आज्ञा से अथवा उनका रूख देखकर कार्य करता है। जो भी देखें, उसमें प्रभु के हाथ की कारीगरी देखें। कुछ समय के अभ्यास से सारा ही कार्य उनकी पूजा हो जायेगी।’
‘युद्ध भूमि में शत्रु संहार, आखेट में जानवरों का वध, न्यायासन पर बैठकर अपराधियों को दण्ड देना भी क्या उन्हीं के लिए है ?’
‘हाँ हुकम’- मीरा ने गम्भीरता से कहा- ‘नाटक में पात्र मरने और मारने का अभिनय नहीं करते क्या? नाटक में तो मरने और मारने वाले दोनों ही जानते हैं कि तलवारें लकड़ी की हैं।न मैं मरूँगा और न वह मुझे मारेगा’
‘किंतु मैं तो आध मन की भारी सांग लेकर लोगों के मस्तक प्रात: से साँयकाल तक ऐसे काटता रहता हूँ मानों किसान खेती की फसल काटता है।उनके मुंड कटे धड़ से रक्त उबल उबल कर धरती को सींचता रहता है।सोचता हूँ कि एक दिन ऐसे ही इस देह का रक्त भी मेरी मातृभूमि को सिक्त कर देगा।’
‘उन्हीं पात्रों की भातिं आप भी समझ लीजिए कि न मैं मारता हूँ न वे मरते हैं, केवल मैं उन्हें उनके गंदे वस्त्र से प्रभु की आज्ञा से उन्हें मुक्ति दिला रहा हूँ। यह देह वस्त्र ही तो है।जब इस देह से बहुत सी देहों को भय उपस्थित हो जाता है तो उसे बदलना प्रभु आवश्यक मानते हैं और किसी को या आपको निमित्त बनाकर उस देह रूपी वस्त्र को फाड़कर नष्ट कर देते हैं।तब वह आत्मा नवीन देह धारण करके शुभ कर्म के लिए प्रस्तुत हो जाती है।इस प्रकार देह ही देह को नष्ट व उत्पन्न करती है।आत्मा तो विशुद्ध परमात्मा का अंश है।इसमें राग द्वेष क्रोध मोह कैसे आ सकते हैं।यह सब त्रिगुण के खेल हैं।जगत तो प्रभु का रंगमंच है। जो सर्वत्र हैउसमें अवकाश कैसे और कहाँ से आयेगा।दृश्य भी वही है और द्रष्टा भी वही है। अपने को कर्ता मानकर व्यर्थ बोझ नहीं उठायें। कर्त्ता बनने पर तो कर्मफल भी भुगतना पड़ता है, तब क्यों न दानकिया( मजदूर) की तरह जो वह चाहे वही किया जाये। मजदूरी तो कर्ता बनने पर भी उतनी ही मिलती है, जितनी मजदूर बनने पर, साथ ही स्वामी की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। अवश्य ही यह ध्यान रखने की बात है कि जो पात्रता आपको प्रदान की गयी है, उसके अनुसार आपके अभिनय में कमी न आने पाये।’
दासी ने कुँवर रतनसिंह के पधारने की सूचना दी।
‘उनसे भीतर पधारने की अर्ज कर’- मीरा ने दासी से कहा।
रतनसिंह ने भीतर प्रवेश कर भाई भाभी को करबद्ध सिर झुकाकर अभिवादन किया।उन्हें देख मीरा खड़ी हो गई।उनके अभिवादन के उत्तर में हाथ जोड़कर मुस्करा कर कहा- ‘पधारो लालजी सा। वारणा लूँ ( मैं बलिहारी) कैसे पथ भूल पड़े आज?’
क्रमशः
Clothes, needle fell from Meera’s hands, her hands fell in her lap and the saree slipped from her head. The lips parted and the white teeth peeped out of them. Bhojraj looked carefully, there was no pretense anywhere. I felt like getting up and drinking some water, but remembering my compulsion, I kept sitting like that. After a few moments, signs of consciousness appeared in the body. The eyelids of the half-closed eyes opened. The ability to recognize came in them. ‘You were saying something’ – Bhojraj reminded. ‘What was Hukum asking for?’ ‘No Hukum, you were telling about marriage to Thakur ji that on entering the room you bowed down and…..’ ‘Yes’- Meera spoke in a lost voice, her vision seemed to go away- ‘I woke up at night’- her voice was hoarse again but she covered up- ‘It felt like someone had slept with me. One arm rests on my head, big eyelashes of lotus eyes are shaved, curly hair scattered around the face, some strands are bent on the forehead. Smile on lips, one arm on my back, that fragrant breath, that body odor, How could I handle so much joy. Lost consciousness. In the morning everyone saw the knot, the mark on the palm, the ornaments, the clothes, the bangles. I didn’t even wear the bangle that came from Chittor – the ornaments, clothes are all kept as they were.’ “Can I see the old man from here?” said Bhojraj. ‘I will order now.’- Meera called out to Mangala and Mithula. When both the maids were present, he said- ‘Athe Shun ayo padla kani patti hai hai? Or higher then la Mangala. ‘Mithula, thun jo Dwarka shu aayo vani padla ri peti uncha laa.’
When both the boxes came, he ordered the maids only – ‘Open the contents and keep them separately.’ Bhojraj looked with surprise. All the same – yet all the splendor of the Maharana of Chittor was paltry in front of the Padle who had come from Dwarka. Bhojraj touched everyone with devotion. When the maids left everything in place, Bhojraj got up and bowed his head at Meera’s feet. “Hey, what are you doing?” Meera said in shock and tried to free herself from her feet. ‘Now you are my teacher, please show me the path to reach the abode.” Got up
मीरा का हाथ सहज ही भोजराज के माथे पर चला गया- ‘उठकर विराजिये। प्रभु की अपार सामर्थ्य है। शरणागत की लाज उन्हें ही है। कातरता भला आपको शोभा देती है ? कृपा करके उठिये।’ भोजराज ने अपने को सँभाला। वे वापस गद्दी पर जा विराजे और साफे से अपने आँसू पौंछने लगे। मीरा ने उठकर उन्हें जल पिलाया। ‘आप मुझे कोई सरल उपाय बतायें। पूजा-पाठ, नाचना-गाना, मँजीरे या तानपुरा बजाना मेरे बस का नहीं है।’- भोजराज ने कहा। ‘यह सब आपके लिए आवश्यक भी नहीं है।’ मीरा हँस पड़ी- ‘बस आप जो भी करें, प्रभु के लिए करें और उनके हुकम से करें, जैसे सेवक स्वामी की आज्ञा से अथवा उनका रूख देखकर कार्य करता है। जो भी देखें, उसमें प्रभु के हाथ की कारीगरी देखें। कुछ समय के अभ्यास से सारा ही कार्य उनकी पूजा हो जायेगी।’ ‘युद्ध भूमि में शत्रु संहार, आखेट में जानवरों का वध, न्यायासन पर बैठकर अपराधियों को दण्ड देना भी क्या उन्हीं के लिए है ?’ ‘हाँ हुकम’- मीरा ने गम्भीरता से कहा- ‘नाटक में पात्र मरने और मारने का अभिनय नहीं करते क्या? नाटक में तो मरने और मारने वाले दोनों ही जानते हैं कि तलवारें लकड़ी की हैं।न मैं मरूँगा और न वह मुझे मारेगा’ ‘किंतु मैं तो आध मन की भारी सांग लेकर लोगों के मस्तक प्रात: से साँयकाल तक ऐसे काटता रहता हूँ मानों किसान खेती की फसल काटता है।उनके मुंड कटे धड़ से रक्त उबल उबल कर धरती को सींचता रहता है।सोचता हूँ कि एक दिन ऐसे ही इस देह का रक्त भी मेरी मातृभूमि को सिक्त कर देगा।’ ‘उन्हीं पात्रों की भातिं आप भी समझ लीजिए कि न मैं मारता हूँ न वे मरते हैं, केवल मैं उन्हें उनके गंदे वस्त्र से प्रभु की आज्ञा से उन्हें मुक्ति दिला रहा हूँ। यह देह वस्त्र ही तो है।जब इस देह से बहुत सी देहों को भय उपस्थित हो जाता है तो उसे बदलना प्रभु आवश्यक मानते हैं और किसी को या आपको निमित्त बनाकर उस देह रूपी वस्त्र को फाड़कर नष्ट कर देते हैं।तब वह आत्मा नवीन देह धारण करके शुभ कर्म के लिए प्रस्तुत हो जाती है।इस प्रकार देह ही देह को नष्ट व उत्पन्न करती है।आत्मा तो विशुद्ध परमात्मा का अंश है।इसमें राग द्वेष क्रोध मोह कैसे आ सकते हैं।यह सब त्रिगुण के खेल हैं।जगत तो प्रभु का रंगमंच है। जो सर्वत्र हैउसमें अवकाश कैसे और कहाँ से आयेगा।दृश्य भी वही है और द्रष्टा भी वही है। अपने को कर्ता मानकर व्यर्थ बोझ नहीं उठायें। कर्त्ता बनने पर तो कर्मफल भी भुगतना पड़ता है, तब क्यों न दानकिया( मजदूर) की तरह जो वह चाहे वही किया जाये। मजदूरी तो कर्ता बनने पर भी उतनी ही मिलती है, जितनी मजदूर बनने पर, साथ ही स्वामी की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। अवश्य ही यह ध्यान रखने की बात है कि जो पात्रता आपको प्रदान की गयी है, उसके अनुसार आपके अभिनय में कमी न आने पाये।’
The maid informed about the arrival of Kunwar Ratan Singh. ‘Request him to come inside’- Meera said to the maid. Ratan Singh entered inside and greeted his brother and sister-in-law with bowed head. Meera stood up on seeing him. In response to his greeting, folded hands and smiled and said- ‘Come Lalji Sa. Will I be warned (I am Balihari) how did you forget the path today?’ respectively