मीरा चरित भाग- 75

उस दिन मीरा मन्दिर में नहीं पधारी।रसोई बंद रही। दासियों के साथ समवेत स्वर में कीर्तन के बोलों से महल गूँजता रहा। मिथुला का सिर गोद में लेकर मीरा गाने लगी-

सुण लीजो विनती मोरी, मैं सरण गही प्रभु तोरी।
तुम तो पतित अनेक उतारे, भवसागर से तारे।

और

हरि मेरे जीवन प्राण अधार।
और आसरो नाहीं तुम बिन तीनों लोक मँझार॥
तुम बिन मोहि कछु न सुहावै निरख्यो सब संसार।
मीरा कहे मैं दासी रावरी दीजो मती बिसार॥

बाईसा हुकम’- मिथुला ने टूटते स्वर में कहा- ‘आशीर्वाद दीजिये कि जन्म-जन्मान्तर में भी इन्हीं चरणों की सेवा प्राप्त हो।’
‘मिथुला’- मीरा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये कहा- ‘तू भाग्यवान है।प्रभु तुझे अपनी सेवा में बुला रहे हैं। उनका ध्यान कर, मन में उनका नाम जप।दूसरी ओर से मन हटा ले। जाते समय यात्रा का लक्ष्य ही ध्यान में रहना चाहिए, अन्यथा यात्रा निष्फल होती है।ले, मुँह खोल, चरणामृत ले।’
‘बाईसा हुकम ! देह में बहुत जलन हो रही है। ध्यान टूट-टूट जाता है।’
‘पीड़ा देह की है मिथुला ! तू तो प्रभु की दासी है। अपना स्वरूप पहचान। पीड़ा की क्या मजाल है तेरे पास पहुँचने की?वस्त्र फटने से जैसे देह को पीड़ा नहीं होती, वैसे ही देह की पीड़ा आत्मा को स्पर्श नहीं करती पगली।इस पद के अनुसार ध्यान कर तू-

जब सों मोहि नन्दनन्दन दृष्टि पर्यो माई।
तब तें लोक परलोक कछु न सोहाई॥
मोरन की चँद्रकला सीस मुकुट सोहे।
केसर को तिलक भाल तीन लोक मोहे॥
कुण्डल की झलक अलक कपोलन पै छाई।
मनो मीन सरवर तजि मकर मिलन आई॥
कुटिलभृकुटि तिलक भाल चितवन में टोना।
खंजन अरू मधुप मीन भूले मृग छौना॥
सुन्दर अति नासिका सुग्रीव तीन रेखा।
नटवर प्रभु भेष धरें रूप अति विसेषा॥
अधर बिम्ब अरूण नैन मधुर मंद हाँसी।
दसन दमक दाड़िम दुति चमके चपला सी॥
छुद्र घंटि किंकणी अनूप धुनि सुहाई।
गिरधर के अंग अंग मीरा बलि जाई॥

‘जय …..ज …. य….. श्री….. कृ…..ष् ….ण……।’- मिथुला के प्राण पिंजर छोड़ गये।चंपा चमेली गोमती मंगला आदि दासियों ने अपनी स्वामिनी के चारों ओर जैसे घेरा सा बना लिया।मिथुला की मृत्यु ने उन्हें पुकार कर कह दिया कि आने वाली दासियाँ कैसी हैं।उनका बस चलता तो वे उन्हें ड्योढ़ी में ही प्रवेश न करने देतीं, किंतु बाईसा तो फरमाती हैं कि जो आये उसे आने दो और जो जाना चाहे उसे जाने दो।

एक दिन चम्पा मीरा के बिछौने समेट रही थी।उसने देखा कि चद्दर के नीचे काँच के टुकड़े बिछे हुये हैं।उसका हृदय उछलकर मुँह को आ गया।दौड़ती हुई वह भीतरी महल में पहुँची।मीरा स्नान कर रही थीं।उसने विकलता भरे स्वर में पुकारा- ‘बाईसा हुकुम, बाईसा हुकुम’
उसका व्याकुल स्वर सुनकर मीरा ने उसकी ओर मुँह फेरकर पूछा- ‘क्या हुआ चम्पा? तू इतनी घबरा क्यों रही है?’
‘आपको कहीं चोट तो नहीं आई? काँच तो नहीं चुभा आपको?’
‘कैसे, कहाँ चोट लगती मुझे और काँच ही क्यों चुभते? दिन में ही कोई स्वप्न देख लिया है तूने?’- मीरा ने हँसकर कहा।
उनका बात अनसुनी करके चम्पा ने उनकी पीठ पैर हाथ सब अच्छी तरह देखे, फिर आश्वस्त होकर आँखों में आँसू लिए भरे कंठ से बोली- ‘आपके बिछौने में काँच की किरचैं बिछी हैं।रात को पौढ़ते समय चुभी होगीं।’
‘मुझे तो कुछ नहीं चुभा।प्रभु के साथ जब मैनें पँलग पर पैर रखा तो बिछौने पर फूलों के चित्र बने हुये थे।तू मत घबरा, मेरे प्रभु की लीला का पार नहीं है।बड़े कौतुकी हैं मेरे नाथ, तू जा अपना काम कर।’
‘रात को बिछौना किसने सँवारा?’
‘मैनें’- गंगा ने कहा।
‘इसके बाद रामूड़ी राजूड़ी गुलाब भूरी इनमें से कोई भीतर गई था?’
‘नही, पर हाँ गुलाब गई थी पालो रखवा’
‘क्या वह तू नहीं रखसकती थी हिया फूटी।वह राँड पानी में कुछ मिलाकर आई होगी? जा जाकर धोने के मिस कलसी फोड़ दो।’
‘अब इन चारों को झाड़ू बुहारी, जाजीम झड़कने, बर्तन माँजने और भीतरी ड्योढ़ी के पहरे पर रखो’- चमेली ने कहा।
‘यह राँड भूरकाँ है न, जरूर कोई टोटका टमना जानती है।देखो न, उसकी आँखे कैसी लाल लाल रहतीं हैं।’- गोमती ने कहा- ‘कुँवराणीसा, कुँवराणासा कह कह करके पास पास खिसकती जाती है।बाईसा हुकुम तो बिलकुल भोली हैं।’
‘नहीं, बाईसा हुकुम के सब काम अब हम ही करेगीं।’
उन्होंने सारे कार्य स्वत: बाँट लिए।मेड़ते से आये श्री गजाधरजी जोशी का वर्ष भर के पश्चात देहांत हो गया।एक एक करके मीरा के सारे बाहरी अवलम्ब टूट गये।श्रीजोशी जी के बेटे मंदिर में भगवान की पूजा अर्चना करने लगे।

हिंदू वेश में दर्शनार्थी नवाब…….

मेड़तणीसा के दान धर्म, दया ममता, भजन-वन्दन की प्रसिद्धि फैलती जा रही थी। महाराणा विक्रमादित्य ने बहुत प्रयत्न किया कि उनका सत्संग छूट जाये, परन्तु पानी के बहाव और मनुष्य के उत्साह को कौन रोक पाता है। सारंगपुर के नवाब ने मीरा की ख्याति सुनी और वह अपने मन को रोक नहीं पाया। यद्यपि महाराणा रतनसिंह के समय संधि वार्ता हो चुकी थी, परंतु अब महाराणा विक्रमादित्य राजगद्दी पर आसीन थे।वे कब क्या कर बैठेंगे, इसका कोई ठिकाना न था।अतः वेश बदल कर अपने वजीर के साथ वह मीरा के दर्शन करने के लिए हाजिर हुआ।एक दिन दो सवार किले की चढ़ाई चढ़ रहे थे।उनके घोड़े कीमती और पानीदार थे।साधारण हिंदू वेश में होते हुये भी उनकी तेजस्वी मुखमुद्रा बता रही थी कि वे किसी बड़े घर के हैं।
‘मीराबाई रो मंदर क्याँ है?’ – उन्होंने मालवी भाषा में पूछा।
‘थोड़ा आगे जाकर दाँये हो जाओ।मालवा रा हो?’- पथ बताने वाले ने पूछा।
‘हूँ’- कहकर वे दोनों आगे चल दिये।
मंदिर के सामने चंदोवा तना हुआ था, जिसके नीचे कई स्त्री पुरूष बैठे थे।भीतर सभामंडप भी भरा हुआ था।
दोनों सवारों ने, जहाँ अन्य लोगों के ऊँट और घोड़े बँधे हुये थे, वहीं अपने घोड़ों को बाँध करके मंदिर में प्रवेश किया।किनारे किनारे चल कर वे साधु-सन्तों के पीछे बैठ गये। मीरा निज मन्दिर के बाँयी ओर विराजित थीं। घूँघट न होते हुये भी सिर के पल्लू से उसने भोहौं तक का ललाट ढका हुआ था।उसके सामने तानपुरा रखा था।पीछे थोड़ी जगह छोड़ कर चार दासियाँ बैठी हुईं थीं।चम्पा अपने हाथ में पोथी और कलम लिए थी।
क्रमशः

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