‘गणगौर पूजने का मुहूर्त आ गया है बावजी हुकुम, रात को ही भाभी म्हाँरा को कहलवा दिया था।सबेरे नर्मदा जीजी को भेजा, अब तीसरी बार मैं स्वयं आई हूँ।वहाँ सभी प्रतीक्षा कर रहें हैं और मुहूर्त टला जा रहा है।’
‘इन्होंने क्या कहा’ भोजराज ने पूछा।
‘इन्होंने तो फरमाया है कि मेरे पति ठाकुर जी हैं।पहले इनकी सेवा करके फिर समय बचे तो दूसरों की भले कर लूँगी।मेरा सुहाग अमर है, मुझे किसी की चिंता नहीं है।तब मैनें पूछा कि बावजी हुकुम तुम्हारे क्या लगते हैं? तो इन्होंने फरमाया कि उन्हीं से पूछ लीजिए।’
‘बात तो इन्होंने सच ही कही उदा, जिसका सुहाग अमर है, तू ही बता, वह क्यों सुहाग माँगती फिरेगी?’ – भोजराज ने मुस्करा कर कहा।
‘आप भी बावजी हुकुम’- उदयकुँवर बाईसा ने आश्चर्य से भाई की ओर देखा।
‘जा बहिन जा’- भोजराज नीचे उतर आये।बहिन की पीठ पर हाथ रखते हुये बोले- ‘अपन भक्ति और भक्तों की बातें नहीं समझ सकते।इसलिए वे जैसे कहें वैसा ही कर लेना चाहिए।’
‘हूँ, कर लेना चाहिए। यह बहू है कि बछैरा।’- वह तुनक कर चलीं गईं।
इस घटना ने जैसे घर में आग लगा दी।सास ननदों के क्रोध की सीमा नहीं रही।भोजराज सांयकालीन अभिवादन के लिए माँ के पास गये तो उन्होंने बेटे को अपने पास बिठा लिया।
‘बीनणी को तुम कुछ कहते वहीं बेटा? यह अपने घराने की रीत मर्यादा सब तोड़ चली।किसी की बात को कुछ नहीं समझती।छोटे बड़े किसी का कोई मान सम्मान नहीं उसकी दृष्टि में? ‘- सोलंकिणी जी ने कहा।
‘बाई हुकुम, मैं आपसे क्या निवेदन करूँ? मैं आपका बालक हूँ।छोटे मुँह बड़ी बात कहते लाज लगती है मुझे।आज जब बात चल पड़ी है तो अर्ज करता हूँ कि दाजीराज ने यह विवाह सम्बन्ध मेड़तियों की भक्ति और वारता पर रीझ करके किया है’- वे कुछ क्षण रूक कर फिर बोले- ‘भक्तों को अपने भगवान के अतिरिक्त कहीं कुछ दिखाई नहीं देता।भगवान के सिवा उन्हें कोई सगा नहीं लगता।कोई उन्हें अपना पराया नजर नहीं आता।जिस मनुष्य को अपनी देह का भी भान नहीं रहता, उस पर मान करके हम क्या पायेगें? कोई भला बुरा कह कर भी क्या करेगा, क्या पायेगा? क्लेश और कलह ही तो बढ़ेगा और क्या? उधर तो ऐसा है जैसे बहरे के सम्मुख गीत गाओ।सारी रात उबालो तब भी बरफ जैसा ठंडा।फिर बाई हुकुम, जैसे उनको भगवान के अतिरिक्त कोई नहीं दिखता, वैसे ही भगवान भी भक्तों के सामने दुनियाँ भूल जातें हैं।भक्तों का बुरा सोचने और करने पर भगवान नाराज होते हैं।अपन तो दोनों ओर से मरे।इसलिए मेरी अर्ज है कि जो हो रहा है, वह होने दीजिए।कहीं ऐसा न हो कि मेवाड़ पर विपत्तियों के बादल घिर आयें।दाजीराज को निवेदन कराये कि रतनसिंह का विवाह करवा दें जिससे स्त्रियों का मन इधर से हट कर उस ओर लग जाये।’
‘किंतु पुत्र तुम्हारा क्या होगा?’ माँ की ममता अनचाहे ही शब्दों के रूप में छलक पड़ी।वे बेटे की पीठ पर हाथ फेरती हुई चिंता के सागर में डूबने लगीं।
‘मेरा? मुझे क्या हुआ है माँ’ वे एकदम कह गये किंतु माँ की बात का मर्म समझते ही सकुचा गये।अपने को सम्हाँल कर धीरे धीरे बोले- ‘मेरी चिंता न करें बाई हुकुम।लोग तो भक्तों के दर्शन करने के लिए कितनी दूर दूर दौड़े फिरते हैं।अपने तो घर में गंगा आ गयीं और क्या चाहिए हमें।’
‘यह क्या कहते हो बेटे।चित्तौड़ का राजकुँवर तलवार के बदले तम्बूरा बजायेगा? तुम्हारी यह कंठी और तिलक देख मेरा हृदय मुँह को आ जाता है भोज।अभी क्या उमर है तुम्हारी? भक्ति करने को बहुत समय पड़ा है बेटे।तुम दूसरा विवाह कर लो।क्या यह सत्य है कि तुमने विवाह प्रस्ताव फेर दिया?’
‘बाई हुकुम तलवार चलाने का समय आये तो सुनियेगा कि युद्ध से लौटे हुये काका और भाईयों से कि आपके जाये बेटे के दोनों हाथ समान रूप से रण में चल रहे थे।मातृभूमि का ऋण चुकाने में आपका यह बालक कभी पाँव पीछे नहीं रखेगा।रणशय्या पर पौढ़कर अमर लोक जाने की हौंस किस राजपूत में नहीं होती माँ? फिर आपकी कोख का जाया भिन्न कैसे होगा? भक्ति करने की कोई आयु नहीं होती।कौन जाने कब भगवान के यहाँ से बुलावा आ जाये।’
माँ ने घबराकर पुत्र के मुख पर हाथ रख दिया- ‘ऐसा मत बोलो बेटा। एकलिंगनाथ का सहस्त्राभिषेक करवा कर मैनें तुम्हें पाया है।’ माँ की आँखे भर आईं।
‘आपको दु:खी करने के लिए नहीं कहता हुकुम।पर उसके घर की बात कौन जानता है? सेवा का अवसर आये तो अपने इस अपदार्थ पुत्र को याद फरमाईये।’- भोजराज ने माँ के चरणों में सिर रख कर खड़े होते हुये कहा- ‘शीख ( विदा) अर्ज करूँ माँ।’
‘जाओ पुत्र अपनी इस दुखियारी माँ को भूलना नहीं’- उन्होंने निःश्वास छोड़ा।
‘ऐसी आशंका आपको क्यों हुई बाई हुकुम?’- भोज ने आश्चर्य मिश्रित दु:ख भरे स्वर में कहा।
‘कुछ नहीं बेटा।ऐसे ही मुख से निकल गया।जाओ तुम’
नव मंदिर का निर्माण……
‘आपको कोई कष्ट असुविधा हो तो हुकुम करें’- भोजराज ने मीरा से पूछा।
‘एक अर्ज करूँ मानेगें’
‘क्यों नहीं, फरमाईये’
‘वचन दीजिए’
‘वचन, अभी और कुछ बाकी रह गया है क्या? यदि अब भी आपको विश्वास नहीं तो मेरा जीवित रहना व्यर्थ है।’- उनका गला सम्हाँलते सम्हाँलते भी थोड़ा काँप गया।
‘यह क्या फरमाते हैं आप?’- मीरा उतावली से बोल पड़ी- ‘बात बस इतनी सी है कि आप मुझे इस प्रकार आदरयुक्त सम्बोधन न दें’
‘तो हुकुम हो, कैसे बोलूँ’
‘फिर हुकुम’
‘देखिए मैं अर्ज नहीं करना चाहता, पर आप मान नहीं रहीं हैं।पत्नी का सम्बोधन मैं कर नहीं सकता और दूसरा कुछ मेरी इस तुच्छ बुद्धि में आया नहीं।इसलिए आप ही फरमायें कि क्या कहूँ?’
‘जैसे बराबर वाले सम्बोधन करते हैं, जैसे दो मित्र आदमी या स्त्रियाँ।’
भोजराज जोर से हँस पड़े- ‘स्वयं को स्त्री मान लेना कठिन है, वैसे ही आपको पुरूष समझ लेना भी मेरी शक्ति से बाहर है।अब कहिये क्या करूँ।’
‘ यह आप क्यों, तुम कहा जा सकता है’
‘नहीं अपने से श्रेष्ठ को आप ही कहा जाता है।इतना सा शिष्टाचार तो आता है भोज को।’- वे फिर हँसे।
‘श्रेष्ठ कहाँ, कितनी छोटी हूँ आपसे’- मीरा ने मुस्कराकर उनकी ओर देखा।
‘कौन कहता है यह बात? आप बहुत बड़ी हैं मुझसे’
‘नाप तौलकर देखें?’
क्रमशः