मीरा चरित – भाग 5

कृष्णभक्त संत द्वारा प्रदत्त ठाकुर जी …

एक बार ऐसे ही मीरा राज महल में ठहरे एक संत के समीप प्रातः काल जा पहुंची। वे उस समय अपने ठाकुर जी की पूजा कर रहे थे। मीरा उन्हें प्रणाम करके कुछ दूर बैठकर देखने लगी। महात्मा जी ने पूजा करके भोग लगाया और मीरा को प्रसाद देते हुए पूछा “क्या नाम है बेटी?”
“मेरा नाम मीरा है बावजी! आप यह सब क्या कर रहे थे?”

“मैं पूजा कर रहा था ठाकुर जी की।”

“यही ठाकुर जी हैं हमारे? मंदिर में तो बहुत बड़े हैं ठाकुर जी। यह छोटे ठाकुर जी कौन से हैं?”
मीरा ने कहा

“मैं श्री कृष्ण की पूजा करता हूं। यह मूर्ति भगवान श्री कृष्ण का प्रतीक है। प्रतीक तो छोटा बड़ा कैसा भी बनाया जा सकता है बेटी।”

“क्या यही भगवान है महाराज अथवा यह भगवान नहीं है, मैं समझी नहीं?”

बेटी भगवान तो सर्वत्र है। वह इस मूर्ति में भी है। जो सर्वत्र है उसका अपनी रूचि के अनुसार कैसा भी प्रतीक बनाकर श्रद्धा अर्पित की जा सकती है। जो सर्वत्र है महाराज, उसकी पूजा भी तो सब कहीं की जा सकती है। केवल किसी प्रतीक विशेष में ही पूजा का आग्रह क्यों?”

संत ने दृष्टि उठाकर मीरा को भली प्रकार देखा। उन्हें आश्चर्य हुआ कि लगभग 5 वर्ष आयु की यह बालिका कैसा गूढ़ प्रश्न पूछ गई। मीरा अब भी अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए उनकी ओर देख रही थी। उन शांत निर्मल नेत्रों में उसका प्रश्न जैसे मूर्त हो उठा था। नेत्रों में ऐसी स्पष्ट अभिव्यक्ति उन्होंने कहीं नहीं देखी थी। जिज्ञासा की गरिमा, भोलापन, कोमलता और रूप सब ने मिलकर बालिका को अलौकिक बना दिया है। ऐसा समन्वय कभी देखने में नहीं आया।

“मैंने कोई गलती की महाराज?” मीरा ने पूछा।

“नहीं बेटी! मैं तो तुम्हारी बुद्धि की सूक्ष्मता पर चकित हुआ। सर्वत्र पूजा का निषेध इसलिए है कि प्रत्येक वस्तु और जीव के साथ हमारा अपना व्यवहार रहता है। उन सब के साथ पूर्ण सम्मान का व्यवहार सदा नहीं कर सकते। जैसे आज किसी वृक्ष की हमने पूजा की। कभी उसकी लकड़ी की आवश्यकता होने पर उसे काटना होगा। आज किसी पशु की पूजा की तो कल कदाचित उसे डाँटना पड़े। इससे भाव में उपेक्षा आएगी। पूजा किसी की भी करें, एक की ही करनी चाहिए जिससे ईष्ट के प्रति दृढ़ भाव और सम्मान बना रहे। आगे जाकर धारणा ध्यान दृढ़ होने पर कोई बाधा नहीं रहती। सर्वत्र भगवान ही है ऐसा अनुभव होने लगता है। आरंभ तो प्रतीक से ही करना पड़ता है।”

“यदि यह मूर्ति आप मुझे बख्श दें तो मैं भी इनकी पूजा किया करूंगी।”

“नहीं बेटी अपने भगवान किसी को नहीं देने चाहिए। वह हमारी साधना के साध्य हैं।”

मीरा की आंखें भर आई। निराशा से निश्वास छोड़कर उसने ठाकुर जी की ओर देखा और मन ही मन कहा “यदि तुम स्वयं ही ना आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊं? कौन लाकर देगा मुझे तुम्हारा प्रतीक? मैं बालिका हूं! मेरी बात कौन सुनेगा? कौन मानेगा? मेरी शक्ति कितनी? बाबोसा को छोड़कर और किसी के पास मेरे लिए समय ही नहीं है। तुम ना आओ तो मैं क्या कर सकूंगी।”

उसकी बड़ी-बड़ी आंसू भरी आंखें छलक पड़ी वह मुंह फेर कर अन्तःपुर की ओर चल दी..!!

दूसरे दिन पुनः प्रातःकाल वह उन संतके निवास स्थानपर जा पहुंची। संत पूजा कर रहे थे। उसे आयी जानकर एक बार आँख उठाकर उसकी ओर देखा और अपने कार्यमें लग गये। मीरा प्रणाम करके एक ओर बैठ गयी। पूजा होनेपर उसने कल की भाँति ही आरती ले, धरतीपर सिर टेककर भक्त और भगवान दोनोंको प्रणाम किया।

“तुम ठाकुरजीको पाना चाहती हो न!’- संतने प्रसाद देते हुए कहा। ‘हाँ बावजी! किन्तु ये तो आपकी साधनाके साध्य हैं।’ कहते मीराका कंठ काँप गया।

‘अब ये तुम्हारे पास आना चाहते हैं। तुम्हारी साधनाके साध्य बनकर रहना चाहते हैं।’

‘क्या सच?’ -मीरा आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नतासे भरकर बोल पड़ी। उसे जैसे अपने कानोंपर विश्वास नहीं हुआ।

‘सच पुत्री! रात स्वप्नमें इन्होंने मुझसे कहा कि मुझे मीराको दे दो। मैं उसके पास रहूँगा। इनसे बड़ा कौन है? इनके सामने किसीकी क्या चले?

कहते हुए उनके नेत्र भर आये। भरे कंठसे उन्होंने कहा- ‘पूजा तो तुमने देख ही ली है। पूजा भी क्या बेटी? अपनी ही तरह नहलाना-धुलाना, वस्त्र पहनाना और शृंगार करना, खिलाना-पिलाना। केवल आरती और धूप ही विशेष हैं।’

‘किंतु वे मंत्र, जो आपने बोले, मुझे तो आते ही नहीं!’

‘मंत्रोंकी आवश्यकता नहीं है बेटी। ये मंत्रोंके वशमें नहीं रहते। ये तो मनकी भाषा समझते हैं। इन्हें वशमें करनेका केवल एक ही उपाय है कि इनके सम्मुख हृदय खोलकर रख दो। कोई दुराव, छिपाव या दिखावा नहीं करना है। तुम्हीं सोचो; जो अन्तर्यामी है, उससे कुछ छिपाया भी जाय तो कैसे? तब क्यों न पहले से ही सब कुछ निरावरण रहे? अब रही मंत्रोंकी बात। अपनी बात अपने शब्दोंमें निःसंकोच कह देना। लो, इन्हें ले जाओ। खूब सँभालकर रखना। ये धातु के दिखते हैं, पर हैं नहीं! इन्हें अपने जैसे ही मानना-समझना।’

मीराने संतके चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और जन्मके भूखेकी भाँति अंजलि फैला दी। संतने उसकी अंजलिमें प्रसादकी भाँति ठाकुरजीको रख दिया और सिरपर हाथ रखकर गद्गद कंठसे आशीर्वाद दिया- ‘भक्ति महारानी अपने पुत्र ज्ञान-वैराग्य सहित तुम्हारे हृदयमें निवास करें, प्रभु सदा तुम्हारे सानुकूल रहें!’

मीरा ठाकुरजीको दोनों हाथोंसे छातीसे लगाये उनपर छत्रकी भाँति थोड़ी झुक गयी और डगमगाये पदोंसे वह अन्तःपुरकी ओर चली।

ठाकुरजी का लाड़-चाव और नामकरण…..

‘यह क्या है मीरा! क्या लेकर आ रही है?’- वीरमदेवकी पत्नी
राणावत जी ने पूछा
‘ठाकुरजी हैं भाभा हुकम (बड़ी माँ) !’-मीराने हर्ष-सागरमें उतरते हुए कहा।

‘लाओ मुझे दे दो, मैं ले चलूँ! तुमसे तो देखो चला ही नहीं जा रहा है।’- रायसलजीकी पुत्री लक्ष्मीने कहा।

‘न, न, न!’ – मीराने आतुरतापूर्वक ना कहते हुए मूर्तिको कृपणके धनकी भाँति अपनेसे चिपका लिया और शीघ्रतापूर्वक अपनी माँके कक्षमें चली गयी।
क्रमशः

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