कठिनाई उस समय हुई जब बड़ी बहन गुलाब कुँवर बाईसा ने कहा “मुंह खोलो भाई! बेटी के बाप बने हो। चलो मुहँ मीठा करो।”
लज्जा के मारे रतन सिंह का सिर झुक गया। वह बहिन की अवज्ञा करके न वहाँ से जा सकते थे और न हीं मुँह खोल कर उनके हाथ की मिठाई खाते बनता था।
“ऐ भाई मेरी ओर देखो तो”
बहन ने कहा- “मेरी भतीजी इतनी सुंदर है कि क्या बताऊं? ऐसे देखती है सब की ओर जैसे बड़ी उम्र के समझदार लोग देखते हैं एक और बात बताऊँ, यह बात अभी हम सब ने रनिवास के बाहर नहीं निकलने दी है। कन्या के जन्म के समय अपने आप काँसे का थाल बज उठा। है न आश्चर्य की बात? अब तुम मुँह खोलो। व्यर्थ नखरे ना करो।”
“जीजा! (बड़ी बहन का संबोधन) लाइए, आपके पधारने की बधाई में मुझे किसी ने मुँह मीठा नहीं कराया। अब आप ही बख्श दीजिए।”
उन्होंने चतुराई से बात बदल कर हाथ फैला दिया- “किंतु जीजा पहला हक मेरा है। आज्ञा हो तो मैं पहल करूं?”
उन्होंने बहिन के हाथ में थामी तस्तरी से मिठाई उठाकर उनके मुख में देकर पुनः अपनी हथेली फैला दी।
“ऊँ, हूँ! ऐसे नहीं छूट पाओगे। मुँह खोलो।”
गुलाब कुँवर बाईसा ने रतन सिंह के मुंह में मिठाई देते हुए कहा “ऐ भाई! यह मेरे आने की नहीं, मेरी भतीजी के जन्म की मिठाई है कहीं भ्रम में न रहना”
अब रतन सिंह के लिए वहाँ ठहरना कठिन हो गया। वह पीठ फेरकर एकदम भाग चलें। पीठ पीछे उन्हें काकी भाभियों की हँसी सुनाई दे रही थी।
पंडितों को बुलाकर सूर्य-पूजन का मुहूर्त निकलवाया गया और कन्या के ग्रह नक्षत्रों का विचार करने के लिए दूदा जी ने प्रार्थना की। राजपुरोहित जी ने सूर्य-पूजन का मुहूर्त दसवे दिन बताया और कुंडली का फलादेश कहा
“यह बालिका शांत, सुशीला, बुद्धिमती, ऐश्वर्य शालिनी, यशस्विनी, धर्म अनुरागिनी, भक्तिमति, योगिनी, विरागिन होगी। यह भातृ-भगिनी से रहित, सुख दुख से उपराम, सांसारिक सुख रहित, पीहर और ससुर कुल को यश प्रदान करेगी। अपना और माता पिता का नाम अमर करेगी। मानव जीवन का चरम फल भगवत साक्षात्कार प्राप्त करेगी। इसकी मृत्यु अकस्मात और अनोखी होगी।”
सोच विचार के पश्चात राव दूदा जी ने कहा यह भक्ति का सूर्य उदय हुआ है अतः इस बालिका का नाम “मिहिरा” है।
सवा महीने के पश्चात दरबार हुआ। दूदा जी और सभी बड़े बूढ़ों ने कन्या को गोद में लिया। उसे अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार सब ने उपहार प्रदान किए राव जोधा जी ने अपनी पुत्री पर पाँच मोहरे न्यौछावर कर के दासी को दी। नन्ही बालिका को गोदी में लेते ही उन्हें रोमाँच हो आया और आँखें भर आई। उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखकर मन ही मन कहा- “हे प्रभु इस पर अपने चारों हाथों की छाया रखना नाथ! मानव जीवन का चरम फल कृपा करके इसे प्रदान करें। प्रभु! क्या विनय करूं आपसे? यह आपकी ही है, इसे स्वीकार करो! स्वीकार करो!! स्वीकार करो..!!!”
अपनी अपनी ओर से सब ने नजर न्यौछावर की; गोद में लेकर मीरा का लालन-पालन दूदाजी की देखरेख में होने लगा। छह मास की मीरा एक दिन ऐसे रोने लगी कि किसी प्रकार चुप ही नहीं होती थी। गोद, हिंडोला, दूध, मिठाई माँ और धाय ने दिए पर बहलाने के सभी प्रयास विफल हुए तो दूदा जी उसे लेकर सहज ही मंदिर की ओर चल दिए। उस समय चारभुजानाथ जी की संध्या आरती हो रही थी। दूदा जी ने मीरा को संकेत से ठाकुरजी की ओर देखने को प्रेरित किया। ठाकुर जी पर दृष्टि पढ़ते ही वह चुप हो गई और एकटक उन्हें देखने लगी। आश्चर्यचकित दूदा जी धीरे-धीरे भजन गाने लगे। मीरा ठाकुर जी की ओर हाथ से संकेत करके दूदा जी को कुछ समझाने का प्रयत्न कर रही थी।
उस दिन से उसे रोते से चुप कराने का सबको यह सरल उपाय मिल गया। यूँ वह बहुत शांत बालिका थी। जहां बैठा दिया बैठ गई जहां सुला दिया लेटे-लेटे खेलती रहती। भूख से वह कभी नहीं रोती। मां अथवा धाय समय का विचार करके स्वयं दूध पिला देती। उसकी सौंदर्य सुषमा अनुपम थी। स्वर्ण-चंपक सा देह वर्ण, छोटा सा सुकोमल मुख, छोटे-छोटे पाटलवर्ण अधरों से झाँकती दो दो शुभ्र दंतुलिया, बड़े बड़े सुंदर नयन, काले रेशम के लच्छे से सुंदर सघन केश, मधुर हँसी, तोतली बोली देखने सुनने वाले को मोहित कर देती। गर्भ से ही प्राप्त मीरा के भक्ति संस्कारों को दूदा जी पोषण दे रहे थे। वर्षभर की मीरा ने छोटे-छोटे कितने ही कीर्तन सीख लिए थे। वह अपनी तोतली बोली में उन्हें गाकर दूदा जी को सुनाती। दूदा जी, माँ और बाहर भीतर के बड़े बूढ़े उसे गोद में उठा लाड करते ना अघाते।
जब-जब संतों का पधारना होता, मीरा दूदा जी की प्रेरणा से उन्हें प्रणाम करती। कथा वार्ता के समय शांत बैठ कर सुनती और सुनते सुनते ही अपने बाबोसा ( दूदाजी) की गोद में सिर रख कर सो जाती।
क्रमशः