एक दिन, मीरा ने भोजराज से कहा,”आपकी आज्ञा हो तो एक निवेदन करूँ।”
“क्यों नहीं? फरमाइए।” भोजराज ने अति विनम्रता से कहा।"मेड़ते में तो संत आते ही रहते थे। वहाँ सत्संग मिला करता था। प्रभु के प्रेमियों के मुख से झरती उनकी रूप-गुण-सुधा के पानसे सुख प्राप्त होता है,
वह जोशीजी के मुख से पुराण कथा सुनने में नहीं मिलता।यहाँ सत्संग का भाव मुझे सदा अनुभव होता है।”
भोजराज गम्भीर हो गये-“यहाँ महलो में तो संतो के प्रवेश की आज्ञा नहीं है।
हाँ, किले में संत महात्मा आते ही रहते है,किन्तु आपका बाहर पधारना कैसे हो सकता है ?”
“सत्संग बिना तो प्राण तृषा (प्यास) से मर जाते है।” मीरा ने उदास स्वर में कहा।
“ऐसा करते है, कि कुम्भ श्याम के मंदिर के पास एक और मंदिर बनवा दे। वहाँ आप नित्य दर्शन के लिए पधारा करें।
मैं भी प्रयत्न करूँगा कि गढ़ में आने वाले संत वहाँ मंदिर में पहुँचे। इस प्रकार मैं भी संत दर्शन करके लाभ ले पाऊंगा और थोडा बहुत ज्ञान मुझे भी मिलेगा।”
“जैसा आप उचित समझें” -मीरा ने प्रसन्नता से कहा।
महाराणा (मीरा के ससुर) का आदेश मिलते ही मंदिर बनना आरंभ हो गया। अन्त: पुर में मंदिर का निर्माण चर्चा का विषय बन गया
“महल में स्थान का संकोच था क्या?”
“यह बाहर मंदिर क्यूँ बन रहा है?”
“अब पूजा और गाना-बजाना बाहर खुले में होगा ?”
“सिसौदियों का विजय ध्वज तो फहरा ही रहा है. अब भक्ति का ध्वज फहराने के लिए यह भक्ति स्तम्भ बन रहा है।”
जितने मुहँ उतनी बातें।
मंदिर बना और शुभ मुहूर्त में प्राण-प्रतिष्ठा हुई। धीरे धीरे, सत्संग की धारा बह चली।
उसके साथ ही साथ मीरा का यश भी शीत की सुनहरी धूप-सा सुहावना हो कर फैलने लगा।
मीरा के मंदिर पधारने पर उसके भजन और उसकी ज्ञान वार्ता सुनने के लिए भक्तो संतो का मेला लगने लगा।
बाहर से आने वाले संतो के भोजन, आवास और आवश्यकता की व्यवस्था भोजराज की आज्ञा से जोशीजी करते।
गुप्तचरों से मन्दिर में होने वाली सब गतिविधियों की बातें महाराणा बड़े चाव से सुनते ।
कभी कभी वे सोचते -” बड़ा होना भी कितना दुखदायी है ? यदि मैं महाराणा याँ मीरा का ससुर न होता ,
मात्र कोई साधारण जन होता तो सबके बीच बैठकर सत्संग -सुधा का मैं भी निसंकोच पान करता ।
मैं तो ऐसा भाग्यहीन हूं कि अगर मैं वेश भी बदलूँ तो पहचान लिया जाऊँगा ।”
जैसे जैसे बाहर मीरा का यश विस्तार पाने लगा , राजकुल की स्त्री -समाज उनकी निन्दा में उतना ही मुखर हो उठा ।
किन्तु मीरा इन सब बातों से बेखबर अपने पथ पर दृढ़तापूर्वक पग धरते हुये बढ़ती जा रही थी। उन्हें ज्ञात होता भी तो कैसे ?
भोजराज सचमुच उनकी ढाल बन गये थे परिवार के क्रोध और अपवाद के भाले वे अपनी छाती पर झेल लेते ।
मेरे तो गिरधार गोपाल दूसरों ना कोये।