।। नमो राघवाय ।।
भगवान् श्रीराम जी ने वनगमन की प्रतिकूल परिस्थिति को भी अपनी सोच से अपने अनुकूल बना लिया था। प्रस्तुत है वनगमन रूपी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुकूल बनानेवाली श्रीरामजी की पहली सोच-
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
श्रीराम जी ने माता-पिता की आज्ञा पालन को ही महत्व दिया, वन के दुःख और कष्टों की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया, बल्कि उन्होंने अपनी सोच में केवल वन के महत्व को ही देखा-
मुनिगन मिलनु बिसेषु बन सबहिं भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।
भगवान् श्रीराम जी की तीसरी सोच अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय भाई भरतजी के प्रति थी-
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू।
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू।।
इन्हीं सभी सोचों को लेकर ही भगवान् श्रीराम जी अपने आपको अत्यन्त भाग्यशाली समझ रहे हैं अर्थात्-
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा।
प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी।
परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीँ।
देखु बिचारि मातु मन माहीं।।
इन्हीं सभी सोचों के कारण से ही श्रीराम जी ने अपनी प्रतिकूल परिस्थिति वनगमन को भी अपने अनुकूल बना लिया था और इसी वनगमन के समय की प्रतिकूल परिस्थिति को ध्यानमें रखते हुए, उनके मन और हृदय में जो आनन्द हुआ था उसका वर्णन करते हुए ही कहा गया है-
नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान।।
श्रीरामचन्द्र जी का मन नये पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बाँधने की काँटेदार लोहे की बेड़ी के समान है। ‘वन जाना है’ यह सुनकर, अपने को बन्धन से छूटा जानकर, उनके हृदय में आनन्द बढ़ गया है।
।। जय भगवान श्री ‘राम’ ।।