सृष्टिकर्ता’ ही सत्य है

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मृत्यु सत्य है, इस सत्य को न मानना ही ‘असत्य’ है। अर्थी उठते समय बोला जाता है कि- ‘राम नाम सत्य’ है। इसका मतलब ही यही है कि मात्र ‘सृष्टिकर्ता’ ही सत्य है, बाकी इस सृष्टि में जीवन सहित हर चीज़ “असत्य” है, हमारी बेवकूफी ये है कि हम नष्ट होने वाली चीजों को ही सत्य मान कर उस ‘परम सत्य’ को जानबूझकर अनदेखा करते हैं

मित्रों, सत्य के कई अर्थ हैं, एक अर्थ में जो अविनाशी, चिरंतन और शाश्वत है वही सत्य है, दूसरे अर्थों में इंद्रियों द्वारा देखना, सुनना, जानना एवम् अनुभव करना सत्य है, तीसरे अर्थ में इस चराचर प्राणी जगत के एक अंश के रूप में स्वयं के होने का एहसास ही सत्य है, इन तीनों अर्थों में ईश्वर सत्य है, सनातन है, अनुभव योग्य तथा कल्याणकारी है, तभी कहते हैं कि सत्यम शिवम् सुन्दरम।

जगत को मिथ्या कहा जाता है क्योंकि? वह परिवर्तनशील, क्षणभंगुर और नाशवान है, परमात्मा की महिमा इसलिये है क्योंकि वह सत्य है, शिव है और सुंदर है, यहां सत्य और सुंदर का अर्थ तो हमने जाना, पर शिव क्या है? शिव शब्द का अर्थ है कल्याणकारी, जो कल्याणकारी है, वही सुंदर है और जो सुंदर है वही सत्य है।

इस प्रकार सत्यम, शिवम, सुंदरम जैसे मंत्र का उत्स या बीज शिव ही है अर्थात इस सृष्टि की कल्याणकारी शक्ति, सुंदरता का तात्पर्य किसी दैहिक या प्राकृतिक सौंदर्य से नहीं है, वह तो क्षणभंगुर है, सुंदरता वास्तव में पवित्र मन, कल्याणकारी आचार और सुखमय व्यवहार है, इस सुंदरता का चिरंतन स्तोत्र शिव ही है, पर स्वयं शिव का सौंदर्य दिव्य ज्योति स्वरूप है, जिसे इन भौतिक आंखों से देखा नहीं जा सकता।

उसे सिर्फ रूहानी ज्ञान, बुद्धि एवं विवेक से समझा व जाना जाता है, तथा उनके गुणों तथा शक्तियों का अनुभव किया जा सकता है, ध्यान की अवस्था में मन को एकाग्र कर उसे ललाट के मध्य दोनों भृकुटियों के बीच ज्योति रूप में अनुभव किया जा सकता है, गीता में प्रसंग है कि ईश्वर ने अपने विश्वरूप का दर्शन कराने के लिए अर्जुन को दिव्य चक्षु रूपी अलौकिक ज्ञान की रोशनी दी थी।

सज्जनों! परमात्मा को देखने के लिए स्थूल नहीं, आत्म ज्ञान रूपी सूक्ष्म नेत्रों की जरूरत होती है, जो योगेश्वर भगवान् श्री कृष्णजी ने अर्जुन को प्रदान किया, उन्होंने अर्जुन को समझाया कि कर्मेंद्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी आत्मा श्रेष्ठ है, यानी आत्मा सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए खुद को आत्मा रूप में निश्चय कर के ही तुम मेरे (मेरे परमात्मा रूप का) दिव्य स्वरूप का दर्शन कर सकोगे।

शिव शब्द परमात्मा के दो प्रमुख कर्तव्यों का द्योतक है, ‘श’ अक्षर का अर्थ पाप नाशक है और ‘व’ अक्षर का भावार्थ है मुक्तिदाता, अक्सर लोग शिव और शंकर को एक ही मान लेते हैं, लेकिन दोनों में अंतर है, शिव निराकार ज्योतिबिंदु स्वरूप, ज्योतिर्लिंग परमात्मा हैं, शंकर दिव्य मानवीय कायाधारी देवात्मा हैं, ज्योतिर्लिंग के रूप में लोग जिस जड़ लिंग प्रतिमा की आराधना करते हैं, वह शिव का ही प्रतीक है।

इसीलिये धर्म ग्रंथों में राम और कृष्णा जैसे देवता भी शिवलिंग की पूजा-वंदना की मुद्रा में दिखते हैं, देवता अनेक हैं लेकिन देवों के भी देव महादेवजी एक ही है, निराकार परमपिता परमात्मा एक ही हैं, और वह हैं भगवान् शिवजी, शिव पुराण, मनुसंहिता एवं महाभारत के आदि पर्व में शिवजी को अंडाकार, वलयाकार तथा लिंगाकार ज्योति स्वरूप बताया गया है, जो कि ज्ञान सूर्य के रूप में अज्ञानता रूपी अंधकार को नष्ट करते हैं।

ज्ञान एवं योग की ये प्रकाश किरणें पूरे संसार में बिखेर कर वे समग्र मनुष्य, जीव एवं जड़ जगत का कल्याण करते हैं, जैसे आत्मा रूप में ज्योति बिंदु है और ज्ञान, शांति, शक्ति, प्रेम, सुख, आनन्द उनके गुण स्वरूप हैं, वैसे ही परमात्मा शिव रूप में ज्योति बिंदु होते हुये भी आध्यात्मिक ज्ञान एवं शक्तियों में गुणों के रूप में अवस्थित हैं, जब मनुष्य आत्मा सांसारिक कर्म में आता है, तब उन्हीं की कृपा से उसके लोक एवं परलोक दोनों सिद्ध होते हैं।

हर हर महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय् ।। काशी विश्वनाथ की जय हो ।।

अपने मन, बुद्धि को ईश्वरीय ज्योति बिंदु, ज्ञान एवं सहज योग के आधार पर जगत के नियंता एवं परमात्मा शिव से जोड़ के रखने से ही मनुष्य अपने किए हुयें विकर्मों एवम् पापों को योग की अग्नि से भस्म कर देवात्मा पद को प्राप्त कर सकता है और मानव समाज तथा संपूर्ण प्राणी जगत को सतोप्रधान तथा सुखदायी बना सकता है।



Death is true, not believing this truth is ‘untrue’. While getting up, it is said that – ‘Ram Naam is Satya’. It only means that only the ‘Creator’ is the truth, in the rest of this creation everything including life is “untrue”, our foolishness is that we deliberately ignore that ‘ultimate truth’ by considering the things to be destroyed as true. We do

Friends, Truth has many meanings, in one sense that which is indestructible, eternal and eternal is the truth, in the other sense it is true to see, hear, know and feel through the senses, in the third sense it is a part of this lifeless creature world. The realization of one’s self is true, God is true in all these three senses, eternal, experienced and beneficial, only then it is said that Satyam Shivam Sundaram.

The world is called false because? He is changeable, fleeting and perishable, God is glorified because he is true, Shiva and beautiful, here we know the meaning of truth and beautiful, but what is Shiva? The word Shiva means the benefactor, the one who is beneficent, he is beautiful and the one who is beautiful is the truth.

In this way, the origin or seed of mantras like Satyam, Shivam, Sundaram is Shiva itself, that is, the welfare power of this creation, beauty does not mean any physical or natural beauty, it is fleeting, beauty is really pure mind, welfare conduct and happiness. Behavior is, Shiva is the eternal source of this beauty, but the beauty of Shiva himself is the form of divine light, which cannot be seen with these physical eyes.

He is understood and known only by spiritual knowledge, intellect and discretion, and his qualities and powers can be felt, in the state of meditation, by concentrating the mind, it can be experienced in the form of light between the two eyebrows in the middle of the forehead. There is a context in the Gita that God had given Arjuna the light of supernatural knowledge in the form of a divine eye in order to have a vision of his universal form.

Gentlemen! To see the Supreme Soul, it is necessary to have subtle eyes of self-knowledge, which Yogeshwar Lord Krishna ji provided Arjuna, he explained to Arjuna that the mind is superior to the sense organs, the mind is superior to the mind and the soul is superior to the intellect. It is the best, that is, the soul is the best, so only by having faith in yourself in the form of the soul, you will be able to see my (my divine form) divine form.

The word Shiva denotes two main duties of the Supreme Soul, the letter ‘Sha’ means destroyer of sins and the letter ‘V’ means liberator, often people consider Shiva and Shankar to be the same, but there is a difference between the two, Shiva is formless. Jyotirlinga is the divine form, Jyotirlinga is the divine, Shankar is the divine human corporeal deity, the root linga idol worshiped by people in the form of Jyotirlinga is the symbol of Shiva.

That is why in religious texts, gods like Rama and Krishna are also seen in the posture of worship of Shivling, the deities are many, but the God of the gods, Mahadevji is one, the incorporeal Supreme Father, the Supreme Soul is one, and that is Lord Shiva, Shiva Purana, In the Adi Parva of Manusamhita and Mahabharata, Shiva has been described as an oval, annular and linga-shaped form of light, which destroys the darkness of ignorance in the form of the Sun of Knowledge.

By spreading these rays of knowledge and yoga in the whole world, they do welfare of the whole human being, the living being and the material world, just as the soul is the point of light and knowledge, peace, power, love, happiness, joy are their qualities, in the same way. The Supreme Soul, despite being the point of light in the form of Shiva, is situated in the form of qualities in spiritual knowledge and powers, when the human soul comes in worldly work, then by his grace both his world and the hereafter are proved.

Har Har Mahadev! Oum Namah Shivaya. Jai ho Kashi Vishwanath.

By keeping one’s mind, intellect connected with the divine light point, knowledge and on the basis of Sahaj Yoga, the controller of the world and the Supreme Soul, one can attain the position of God by burning his sins and sins with the fire of yoga. Human society and the entire animal world can be made satopradhan and happy.

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